नई दिल्ली। भारत के महापंजीयक यानी आरजीआइ ने हाल में मातृ मृत्यु दर में प्रगति पंजीयन प्रणाली डाटा निकाला है। इसमें गर्भावस्था, प्रसव काल और प्रसव बाद आने वाली समस्याओं के कारण मृत्युदर में सुधार की स्थिति सामने आई है। 2014-2016 में देश भर में एक लाख बच्चों के जन्म के दौरान 130 महिलाओं की मौत का आंकड़ा सामने आया था। यह खबर बमुश्किल ही मीडिया माध्यमों में जगह बना पाई, जबकि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री ने संवाददाता सम्मेलन करके यह जानकारी साझा की थी। इस मामले में प्रति एक घंटे में चार युवा महिलाओं की मौत भी ध्यानाकर्षण के लिए पर्याप्त नहीं लगती। अन्य मामलों में लोगों की जान गंवाने पर जितनी बहस और जागरूकता जगाने का प्रयास मीडिया के माध्यम से किया जाता है उसकी तुलना में महिलाओं की प्रसव काल में होने वाली मृत्यु दर के प्रति उपेक्षा यही दर्शाती है कि युवा महिलाओं एवं बच्चों के स्वास्थ्य के प्रति समाज आज भी उतना जागरूक नहीं है। इसमें मीडिया की भूमिका पर भी सवालिया निशान उठना स्वाभाविक है।

बहरहाल पिछले दो दशकों से मातृ शिशु मृत्यु दर में आई कमी की उपलब्धियों का श्रेय हमारे अग्रिम पंक्ति के कार्यकर्ताओं को दिया जाना चाहिए। ये कार्यकर्ता अत्यंत पिछड़े क्षेत्रों में विषम परिस्थितियों में कार्यरत हैं। जब भारत द्वारा सहस्नाब्दि विकास लक्ष्यों पर हस्ताक्षर किए गए थे तब हमारे अनुभवी विशेषज्ञों को भी वांछित लक्ष्य की प्राप्ति पर संदेह था। विशेषकर शिशु मृत्यु दर दो तिहाई, मातृ मृत्यु दर तीन चौथाई करने का लक्ष्य अपेक्षा अत्यंत कठिन था। 2010-2011 तक तमाम लोग वांछित लक्ष्य प्राप्ति के प्रति आशान्वित नहीं थे, परंतु 2015 तक हमने लक्ष्य हासिल कर लिए। जैसे मातृ मृत्यु दर जिसकी लक्ष्य दर 139 रखी गई, उसमें 130 का स्तर हासिल कर लिया गया। इसी तरह शिशु मृत्यु दर लक्ष्य 43 रखा गया जो इससे एक कम यानी 42 के स्तर पर प्राप्त भी कर लिया गया। इस तरह हम पांच वर्ष से कम उम्र के 23 लाख बच्चों को मौत के मुंह में जाने से बचाने में सफल रहे हैं। वास्तव में स्वास्थ्य प्रणाली के मोर्चे पर यह परिणाम हर्ष का विषय है, परंतु अभी भी कई कार्य करने की जरूरत शेष है। यद्यपि 1990 से अभी तक प्रतिवर्ष 50,000 महिलाओं को प्रसव काल के समय मौत से बचाया गया, लेकिन अभी भी 32,000 महिलाएं इस दौरान जान गंवा रही हैं। यह किसी भी सूरत में स्वीकार्य नहीं होना चाहिए। इस स्थिति को बदलने की आवश्यकता है। नवजात शिशुओं की मृत्यु दर और प्रसव काल में महिलाओं की मौत के मामलों में लगाम लगाने में जो भी सफलताएं मिली हैं उसका श्रेय अग्रिम मोर्चे पर जुटे उन तमाम कार्यकर्ताओं को देना चाहिए जिन्होंने आशा, एएनएम आंगनबाड़ी जैसी योजनाओं के माध्यम से समाज को संगठित करके स्वास्थ्य सेवाओं का लाभ पहुंचाया। इसमें राष्ट्रीय स्वास्थ्य मिशन के अंतर्गत जननी शिशु सुरक्षा योजना कार्यक्रम, जनस्वास्थ्य सुविधा का लाभ, बीमार नवजात केयर यूनिट के द्वारा बच्चों की देखरेख को लेकर जागरूकता के प्रसार में सफलता मिली है।

राष्ट्रीय एंबुलेंस सेवा के तहत 108 और 102 सेवा के समय से उपयोग और आकस्मिक चिकित्सा सुविधा पहुंचाकर लोगों की जान बचाने में भी सफलता मिली है। तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था के कारण आय बढ़ने से गरीबी रेखा के नीचे आने वाले लोगों की संख्या घटने से भी स्वास्थ्य के मोर्चे पर हालात बेहतर हुए हैं। सर्व शिक्षा अभियान के अंतर्गत प्राथमिक शिक्षा पर जोर, स्त्री साक्षरता दर में वृद्धि का भी इसमें सहयोग मिला। मनरेगा और प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना जैसे अन्य सामाजिक सुरक्षा कार्यक्रमों से पिछड़े क्षेत्रों में मूलभूत ढांचागत सुधार और संचार जैसी सुविधाओं ने भी स्वास्थ्य सेवाओं को सराहनीय बनाया है। इसी के साथ यह भी सच है कि संयुक्त राष्ट्र सहस्नाब्दि विकास लक्ष्यों के एक क्षेत्र में हम लोग बुरी तरह असफल रहे हैं। आज भी तीन साल से कम उम्र के बच्चों में प्रत्येक तीन में से एक बच्चा सामान्य वजन से कम का है। इस सूचकांक के तहत वांछित लक्ष्य को पाने के लिए पोषण अभियान ने एक अच्छा अवसर प्रदान किया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि कुपोषण के कई अन्य कारण भी हैं जिन्हें दूर करना भी उतना ही आवश्यक है।

(डॉ. पॉल नीति आयोग के सदस्य और सलाहकार हैं)