[ संजय गुप्त ]: सबसे ताकतवर देश अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव में दुनिया की हमेशा से दिलचस्पी रही है। यह इस बार भी है, क्योंकि अमेरिका इसके पहले वैचारिक आधार पर इतना विभाजित कभी नहीं दिखा। वहां दोनों प्रमुख दल-डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन, जिस विचारधारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, उसने अमेरिकी समाज के बीच एक खाई पैदा कर दी है, जो आसानी से पटती नहीं दिख रही है। इस खाई के लिए डोनाल्ड ट्रंप को जिम्मेदार माना जाता है। कहते हैं कि ट्रंप ने तब राष्ट्रपति बनने की ठानी थी, जब एक डिनर में बराक ओबामा ने उनका उपहास उड़ाया था। एक उद्योगपति के तौर पर खुद को कई बार दिवालिया घोषित कर चुके ट्रंप ने आखिर रिपब्लिकन पार्टी की उम्मीदवारी हासिल कर ली और 2016 में जब डेमोक्रेट प्रत्याशी हिलेरी क्लिंटन की जीत सुनिश्चित मानी जा रही थी, तब उन्होंने अप्रत्याशित सफलता प्राप्त की।

ट्रंप पर कोरोना की अनदेखी, अश्वेतों के प्रति पुलिस के आक्रामक रवैये की उपेक्षा करने का आरोप

ट्रंप अपने विवादास्पद बयानों और अप्रत्याशित फैसलों के लिए जाने जाते हैं। उन पर न केवल कोरोना की अनदेखी का आरोप लगा, बल्कि अश्वेतों के प्रति पुलिस के आक्रामक रवैये की उपेक्षा करने का भी। इसके चलते चुनाव के पहले श्वेतों और अश्वेतों के बीच तनाव बढ़ा और कई शहरों में हिंसा भी हुई। इस हिंसा को रोकने के लिए जैसे कदम उठाए जाने चाहिए थे, उनसे ट्रंप बचते हुए दिखाई दिए। चुनाव के पहले उन्होंने यह कहना शुरू कर दिया था कि अगर वह हारे तो अमेरिका में दंगे होंगे। उनका मीडिया से भी झगड़ा जारी रहा। वह इसके लिए भी जाने जाते हैं कि उन्होंने अपने वरिष्ठ सहयोगियों को किस तरह उनके पदों से चलता किया।

ट्रंप पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगे

उन पर भ्रष्टाचार के भी गंभीर आरोप लगे। वह पिछले चुनाव में रूस के हस्तक्षेप से इन्कार करते, लेकिन अब खुद चुनाव प्रक्रिया में धांधली का आरोप लगा रहे हैं। इस आरोप पर उनसे यह सवाल किया जा रहा है कि आखिर चुनाव प्रक्रिया की जटिलताओं से परिचित होने के बाद भी उन्होंने उसे ठीक करने की कोशिश क्यों नहीं की? ट्रंप मतगणना को लेकर सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए हैं, लेकिन यह साफ है कि उन्हें कुछ हासिल नहीं होने वाला।

कोरोना: ट्रंप ने डब्ल्यूएचओ पर चीन की कठपुतली होने का आरोप लगाकर छोड़ दी वैश्विक संस्था

जब पूरा विश्व कोविड महामारी से जूझ रहा था तो ट्रंप ने डब्ल्यूएचओ पर चीन की कठपुतली होने का आरोप लगाकर इस वैश्विक संस्था से निकलने का फैसला किया। वह इस महामारी से लड़ने में भी विफल रहे। शुरू में उन्होंने यह मानने से ही इन्कार कर दिया कि यह जानलेवा बीमारी है। वह लॉकडाउन और मास्क को भी गैर जरूरी बताते रहे। परिणाम यह हुआ कि जो अमेरिका खुद को विज्ञान और तकनीक में अव्वल मानता है, वहां इस महामारी के कारण सबसे अधिक मौतें हुईं। मौतों का सिलसिला अभी भी कायम है।

ट्रंप ने पेरिस जलवायु संधि से किया किनारा, अफगानिस्तान में तालिबान से किया समझौता 

ट्रंप ने जैसे डब्ल्यूएचओ से अमेरिका को बाहर किया, वैसे ही उन्होंने पेरिस जलवायु संधि से भी बाहर आने का फैसला किया और ईरान से हुई परमाणु संधि से भी। इसी तरह उन्होंने अफगानिस्तान में तालिबान से समझौता किया। उनके ऐसे फैसलों ने विश्व राजनीति को प्रभावित किया। रिपब्लिकन ‘अमेरिका फर्स्ट’ नीति पर चलते हैं। वे अंतरराष्ट्रीय मामलों और द्विपक्षीय संबंधों में भी इसी नीति का इस्तेमाल करते हैं। इसके चलते विश्व अर्थव्यवस्था के साथ अंतरराष्ट्रीय कूटनीति भी प्रभावित होती है। ट्रंप अमेरिका फर्स्ट नीति को एक अलग ही स्तर पर ले गए, बगैर यह सोचे-विचारे कि इससे विश्व पर क्या असर पड़ेगा। इसी कारण दुनिया के अनेक देश उनके फैसलों को लेकर सशंकित बने रहे।

अमेरिका में भारतीयों का भी अच्छा-खासा असर, एक दर्जन से अधिक भारतीय मूल के लोग चुनाव जीते

अमेरिका प्रवासियों का देश है। यहां पर हर देश से आकर लोग बसे हैं। यहां भारतीयों का भी अच्छा-खासा असर है। इस बार एक दर्जन से अधिक भारतीय मूल के लोग चुनाव जीते हैं। भारतीय-अफ्रीकी मूल की कमला हैरिस तो उप राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी ही हैं। भारत को अपना दोस्त बताने के बाद भी ट्रंप एच-1बी, एच-2बी समेत अन्य विदेशी वीजा पर अंकुश लगाने वाले फैसले करते रहे।

ट्रंप और मोदी की दोस्ती: भारत के दौरे पर आए थे ट्रंप

एच-1बी वीजा भारतीयों के लिए बहुत मददगार है। आम तौर पर आईटी सेक्टर के पेशेवर इस वीजा का लाभ उठाते हैं। इस वीजा को लेकर ट्रंप की टेढ़ी निगाह के बाद भी भारत और अमेरिका के संबंध लगातार प्रगाढ़ होते रहे। पिछले कुछ समय से ट्रंप और मोदी की दोस्ती भी प्रगाढ़ हो गई थी। इसी के चलते अपने कार्यकाल के अंतिम समय में वह भारत के दौरे पर भी आए।

ट्रंप ने अनेक देशों के खिलाफ आक्रामक रवैया अपनाया

ट्रंप ने अनेक देशों के खिलाफ आक्रामक रवैया अपनाया। हाल के दिनों में उन्होंने चीन के प्रति खासी आक्रामकता दिखाई। उन्होंने चीन के साथ व्यापार घाटा रोकने के लिए कई कदम अवश्य उठाए, लेकिन उनसे चीन पर बहुत असर नहीं पड़ा। चूंकि ट्रंप यह आरोप लगाते रहे हैं कि बाइडन चीन के प्रति नरमी रखते हैं, इसलिए देखना यह है कि बतौर राष्ट्रपति वह चीन की ओर से पेश की जा रही चुनौती से किस तरह निपटते हैं? वैसे इस पर डेमोक्रेट और रिपब्लिकन, दोनों सहमत हैं कि चीन विश्व व्यवस्था के लिए चुनौती बन रहा है। अमेरिका चीन के मामले में जो नीति अपनाएगा, उसका असर भारत पर भी पड़ेगा। नि:संदेह भारत के प्रति चीन के आक्रामक रवैये की ट्रंप प्रशासन ने निंदा तो की, लेकिन उससे जैसी मदद की दरकार थी, वह नहीं दिखी।

बाइडन भारत की मूल समस्याओं को हल करने में दिलचस्पी दिखाते हैं या नहीं?

चूंकि डेमोक्रेट उतने अमेरिका केंद्रित नहीं हैं, जिसका भारत को लाभ मिलना चाहिए, लेकिन यह देखना होगा कि बाइडन भारत की मूल समस्याओं को हल करने में दिलचस्पी दिखाते हैं या नहीं? इनमें एक समस्या पाकिस्तान के भारत विरोधी रवैये को लेकर है और दूसरी चीन के आक्रामक रुख को लेकर। एक के बाद एक अमेरिकी राष्ट्रपति यह तो मानते रहे कि पाकिस्तान भारत में आतंक फैलाता है, पर वे इस आशय के बयान देने तक ही अधिक सीमित रहे। उन्होंने पाकिस्तान में चल रहे आतंकी अड्डों की ओर कभी गंभीरता से ध्यान नहीं दिया। अमेरिका तालिबान और अन्य आतंकी संगठनों को पोषित करने वाले पाकिस्तान की मदद करता रहा। इसका खामियाजा भारत को भुगतना पड़ा। पाकिस्तान आतंक से लड़ने के नाम पर अमेरिका से मदद लेता रहा और आतंकियों को पालता रहा। ट्रंप ने पाकिस्तान को दी जाने वाली मदद तो रोक दी, मगर तालिबान से समझौता कर लिया।

भारत-अमेरिका के बीच दोस्ती का सिलसिला थमने वाला नहीं

देखना है कि बाइडन क्या रवैया अपनाते हैं? इतना तय है कि उनके राष्ट्रपति बनने के बाद भी भारत-अमेरिका के बीच दोस्ती का सिलसिला थमने वाला नहीं, क्योंकि दोनों देशों के रिश्ते उस मुकाम पर पहुंच गए हैं, जहां से पीछे नहीं लौटा जा सकता।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]