अभिषेक कुमार सिंह। इसमें तो संदेह नहीं है कि सैकड़ों साल पहले आग का इंसान के हाथ लगना उसकी जिंदगी को क्रांतिकारी ढंग से बदलने वाला करिश्मा था। उस वक्त जंगलों में रहने वाला इंसान आग पर नियंत्रण के साथ ऐसी ताकत पा गया, जिससे वह न सिर्फ अन्य जंगली जीवों से अपनी रक्षा कर सकता था, बल्कि उन पर प्रभुत्व बनाते हुए भूख से लड़कर जीने का एक नया आधार पा सकता था, लेकिन कथित विकास के नाम पर असली जंगलों से शहरों के कंक्रीट के जंगलों में पहुंची मानव सभ्यता के लिए आज वही आग उसकी ताकत के उलट कमजोरी साबित हो रही है। मुंबई के मरोल (अंधेरी पूर्व) इलाके में ईएसआइसी कामगार अस्पताल में बीते दिनों लगी आग और इस हादसे में हुई सात मौतों ने साबित किया है कि चंद लापरवाहियों के चलते हम आग के आगे आज कितने लाचार बन गए हैं।

आग से सुरक्षा के जितने उपाय जरूरी हैं, तेज शहरीकरण की आंधी और अनियोजित विकास ने उन उपायों को हाशिये पर धकेल दिया है। विडंबना यह है कि जो कथित विकास हमारे देश में हो रहा है और जिसके तहत आवास ही नहीं, विभिन्न संस्थाओं और अस्पतालों के लिए ऊंची इमारतों के निर्माण का जो काम देश में हो रहा है, उसमें जरूरी सावधानियों की तरफ न तो शहरी प्रबंधन की नजर है और न ही उन संस्थाओं-विभागों को इसकी कोई फिक्र है जिन पर शहरों में आग से बचाव के कायदे बनाने और उन पर अमल सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी होती है।

इसी साल हमने देखा है कि कैसे नियमों की अनदेखी और छोटी-छोटी लापरवाहियों ने दिल्ली के बवाना इंडस्टियल इलाके में स्थित अवैध पटाखा फैक्ट्री में लगी आग से लेकर सुल्तानपुरी के आवासीय इलाके में स्थित अवैध जूता फैक्ट्री में भीषण अग्निकांडों को रच डाला। बीते कुछ अरसे में मुंबई और बेंगलुरु आदि शहरों में आग लगने की कई ऐसी घटनाएं घटी हैं जो साबित करती हैं कि खराब शहरी नियोजन और प्रबंधन ज्यादातर शहरी इमारतों-जगहों में आग लगने की एक वजह है। यह प्रबंधन इमारतों को मौसम के हिसाब से ठंडा-गर्म रखने, वहां काम करने वाले लोगों की जरूरतों के मुताबिक आधुनिक इलेक्ट्रॉनिक साजो-सामान जुटाने में तो दिलचस्पी रखता है, पर जिन चीजों से विनाशकारी आग को पैदा होने या रोकने का प्रबंध किया जा सकता है-उस पर उसका रत्ती भर भी ध्यान नहीं होता।

आधुनिक शहर आग को इस वजह से भी न्योता देते हैं, क्योंकि वहां किसी मामूली चिंगारी को भयावह अग्निकांड में बदलने वाली कई चीजें और असावधानियां मौजूद रहती हैं। कुछ ही महीने पहले मुंबई में ही मशहूर आरके स्टूडियो का एक अहम हिस्सा जलकर खाक हो गया था। इस आग पर स्टूडियो के संस्थापक राज कपूर के बेटे ऋषि कपूर ने कहा था कि आरके फिल्मों की यादों को आग ने छीन लिया है। मुंबई ही नहीं, दुनिया के कई अन्य बड़े शहरों में भी आग से जुड़े बड़े हादसे साल-दो साल की अवधि में हुए हैं। ब्रिटेन के बेहतरीन शहर लंदन का 24 मंजिला ग्रेनफेल टावर देखते-देखते राख हो गया था। इसी अवधि में अमेरिका के नॉर्थ कैरोलिना से लेकर दिल्ली में द्वारका स्थित पांच सितारा होटल और दिल्ली का दिल कहे जाने वाले कनाट प्लेस स्थित अंतरिक्ष भवन, आइटीओ स्थित एक प्रतिष्ठित समाचारपत्र समूह की इमारत और नो

देश के ज्यादातर शहरों की ढांचागत संरचना कैसे अनियोजित विकास की तरफ बढ़ी है, इसका उदाहरण वहां की तंग गलियों और यहां-वहां झूलते बिजली-टेलीफोन के तारों के रूप में दिखाई देता है। यूं तो अब दिल्ली जैसे कई शहर स्मार्ट शहरों की सूची में आ गए हैं, पर अभी भी इन शहरों के कई इलाके इस बेतरतीबी की मिसाल बने हुए हैं। वैसे क्या लखनऊ, क्या दिल्ली, क्या कानपुर और क्या लुधियाना-देश के हर छोटे-बड़े अनियोजित ढंग से बसे शहरों का यही हाल है कि वहां की आम सड़कों और गली-मोहल्लों के बीच बिजली के अलावा टेलीफोन, केबल नेटवर्क आदि के तारों के समूह एक ही जगह से होकर गुजरते हैं।

देखा गया है कि इन जगहों पर बिजली के एक ही पोल से दर्जनों घरों और दुकानों को कनेक्शन दिए जाते हैं। कई छोटे शहरों में तो घनी आबादी वाले इलाकों में घरों-बाजारों के बीच से हाईटेंशन लाइन भी गुजरती है जिससे बड़े हादसे की आशंका हमेशा बनी रहती है। यही नहीं शहरों की जिन संकरी गलियों में पैदल चलना भी आसान नहीं होता, वहां इमारतें बिना इस जांच के खड़ी की जा रही हैं कि अगर दुर्योग से उनमें आग लग गई तो फायर ब्रिगेड का दस्ता वहां तक कैसे पहुंचेगा और कैसे राहत-बचाव का काम चलाया जा सकेगा?

मुंबई के एक अस्पताल में बीते दिनों लगी आग ने फिर साबित किया है कि चंद लापरवाहियों के चलते हम आग के आगे आज कितने लाचार बन गए हैं। आग से सुरक्षा के जितने उपाय जरूरी हैं, तेज शहरीकरण की आंधी और अनियोजित विकास ने उन उपायों को हाशिये पर धकेल दिया है। जरूरी सावधानियों की तरफ न तो शहरी प्रबंधन की नजर है और न ही उन विभागों को इसकी कोई फिक्र है जिन पर शहरों में आग से बचाव के कायदे बनाने और उन पर अमल सुनिश्चित करने की जिम्मेदारी है

(लेखक संस्था एफएसआइ ग्लोबल से संबद्ध हैं)