नई दिल्ली ( कैप्टन आर विक्रम सिंह )। संविधान निर्माताओं ने कभी इसकी कल्पना नहीं की होगी कि धर्म निरपेक्षता नए-नए धर्मों की नियंता बनेगी, लेकिन आज ऐसा ही हो रहा है और इसे देखते हुए यही कहा जा सकता है-‘‘वो जब्र भी देखा है तारीख की नजरों ने, लमहों ने खता की थी सदियों ने सजा पाई।’’ जस्टिस नागमोहन दास समिति की संस्तुति पर कर्नाटक सरकार का लिंगायत भक्ति परंपरा को अलग धर्म स्वीकार करने का प्रस्ताव एक ऐसा ही क्षण है जिसकी सजा हमें सदियों तक भुगतनी पड़ सकती है। यह साफ दिख रहा है कि आज क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ से वशीभूत होकर लोग कुछ भी करने को तैयार हैं। उन्हें इसकी परवाह नहीं कि धर्म समाज पर इसका क्या और कैसा होगा?

ईसा मसीह ने सूली पर चढ़ते वक्त प्रार्थना की थी कि हे प्रभु इन्हें माफ कर देना, क्योंकि ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं, लेकिन वे लोग जिन्होंने शिव को सनातन धर्म से अलग करने का षड़यंत्र रचा है, बखूबी जानते हैं कि उन्होंने क्या किया है? राजनीति का यह धर्मद्रोही चेहरा आज समाज-संस्कृति के विखंडन की भूमिका लिख रहा है। संविधान के अनच्छेद 25 से 28 तक कहीं भी ऐसा नहीं है जो धर्मों के विखंडन की अनुमति देता हो। संविधान के मूल सिद्धांतों की रक्षा के लिए तो व्यवस्था है, लेकिन आखिर राष्ट्र के सांस्कृतिक आधारों की रक्षा का दायित्व किस पर है?

आज यह प्रश्न सहसा जीवित हो उठा है। 12वीं सदी में ब्राह्मण परिवार में जन्मे संत वासवन्ना निराकार शिवभक्तिके प्रतिपादक, अंधविश्वास, जाति व्यवस्था, वर्ण विभाजन के विरुद्ध संघर्ष करने वाले समाज सुधारक होने के साथ ही कलचुरी राज्य के महामंत्री भी थे। उनका धार्मिक साहित्य मुख्यतया वचनों के रूप में कन्नड़

कविताओं में प्रकट होता है। वह अपने अनुयायियों से कहते थे कि लिंग को शरीर पर धारण करना तुम्हें लगातार शिव की भक्ति के लिए प्रेरित करेगा। उनके अनुसार प्रत्येक व्यक्ति का शरीर ही मंदिर है। उन्होंने सत्संग एवं आध्यात्मिक धर्म चर्चाओं पर जोर दिया। ओम नम: शिवाय ही उनका मुख्य मंत्र है। उनके एक वचन के अनुसार, ‘‘धनवान तो बनाएंगे शिव का मंदिर, निर्धन क्या करेंगे। शरीर तो वह मंदिर है जो पैरों के खंभे पर स्थिर है। तुम्हारा मस्तक है मंदिर का स्वर्णकलश। नदियों के संगम के स्वामी ईश्वर को सुनो। स्थिर वस्तुएं तो ध्वस्त हो जाएंगी, किंतु सदैव रहेगा वह जो है गतिमान।’’

कोई भी समझ सकता है कि यह तो उपनिषदों की भाषा है। दुर्भाग्य यह है कि हिंदू समाज में व्याप्त समस्त वर्जनाओं, बुराइयों को ध्वस्त करने वाले वासवन्ना का स्वतंत्रचेता पंथ लिंगायत स्वयं एक अलग जाति स्वरूप में परिवर्तित हो गया। अब इसे सनातन धर्म से अलग धर्म की मान्यता देने का षड्यंत्र किया जा रहा है। अगर कोई संत हिंदू समाज को रूढ़ियों कुरीतियों से मुक्त करने का कार्य करे तो क्या वह एक अलग पंथ का नियंता मान लिया जाएगा? अन्य संतों के समान संत वासवन्ना भी हिंदू धर्म में चल रही परिवर्तनकारी सनातन खोज का हिस्सा थे। जो संत अन्वेषण की सतत प्रक्रिया में हो वह सनातन धर्म से अलग कैसे हो सकता है? उसका मार्ग तो धर्म की पुनस्र्थापना का मार्ग है, मूल धर्म से अलगाव का नहीं। हमें मालूम है कि सनातन धर्म में ही जाति व्यवस्था के विरुद्ध लगातार आंतरिक संघर्ष चल रहा है। वासवन्ना भी तो इसी सनातन युद्ध के सिपाही थे। उनके धर्मसुधार अभियान को सनातन धर्म की जड़ता समाप्त करने की आकांक्षाओं से अलग कैसे देखा जा सकता है? विभाजनकारी प्रवृत्ति से लैस धर्मद्रोही राजनेताओं को भारत के धार्मिक-सांस्कृतिक इतिहास में खलनायकों की तरह ही याद किया जाएगा।

क्या शिव के बगैर आज सनातन धर्म की कल्पना संभव है? शिव तो हिंदू धर्म के मेरूदंड हैं। यह अवश्य है कि हमारे सनातन धार्मिक इतिहास के किसी दौर में शैव-वैष्णव विवाद चरम पर था। कृष्णा नदी के तट पर ग्राम बाहे, इस्लामपुर, सांगली महाराष्ट्र में स्थित शिव मंदिर के पुजारी की मानें तो पाषाण शिवलिंग की स्थापना भगवान राम ने अपने वनवास काल में की थी। शिवलिंग स्थापित कर श्रीराम शिव के ध्यान में समाधिस्थ हो गए। उधर श्रीराम के चरणों के स्पर्श को आतुर कृष्णा अपना जलस्तर बढ़ाती गईं। हनुमान जी ने देखा कि ये तो प्रभु का ध्यान ही भंग कर देगी। उन्होंने अपनी भुजाओं से आराधना स्थल को एक द्वीप के समान आवृत्त कर लिया। जलधारा को संभालने के लिए कृष्णा को मंदिर की दूसरी दिशा से निकलना पड़ा। इस धारा को आज कोयना कहा जाता है। राम ने अपने दक्षिण प्रवास में बहुत से शिवलिंग स्थापित किए। उनसे बड़ा लिंगायत भला कौन होगा, जिन्होंने जाति नहीं मानी, वर्ण नहीं माना एवं वनवासी शिवभक्तों का विशाल परिवार बनाया।

संपूर्ण दक्षिणांचल आज भी राम एवं शिव-पार्वती की कथाओं से आच्छादित है। मध्यकाल में जब धार्मिक समरसता का दौर आया तो संत तुलसीदास ने राम की शिवभक्ति की कथाएं कहीं और शैव- वैष्णव विवाद का पटाक्षेप सदा के लिए कर दिया। राम विष्णु के अवतार हैं। उनके आराध्य शिव हैं जो रामेश्वर कहे गए।

वे लोग जो शिव के नाम पर हिंदू समाज को खंडित करने चले हैं उन्हें कभी रामेश्वरम तीर्थ का भ्रमण करना चाहिए, जहां राम की शिवभक्तिअपनी पूर्णता को पहुंचती है। राजनीति राम से राम के ईश्वर अर्थात शिव को अलग करना चाहती है। कर्नाटक सरकार द्वारा लिया गया निर्णय धर्म संस्कृति की सीमाओं का अतिक्रमण करता है। यदि इसे स्वीकार किया गया तो कल कुल देवता, ग्राम देवता नाम पर अलग धार्मिक पहचान की मांग की जाएगी। इतिहास के सबसे बड़े राष्ट्रद्रोहियों के कार्यों का प्रभाव तो एक सीमित काल के लिए ही होता है, लेकिन धर्मद्रोही तो अनंतकाल तक की समस्याएं दे जाता है।

आर्य समाज भी मूर्तिपूजा का विरोधी है, लेकिन उसने कभी अलग पंथ की बात नहीं कही। धार्मिक बिखराव को रोकने का कार्य तो हमारे आज के धर्माचार्यों का है। इस देश में राजा एवं राजनीति धर्म से नियंत्रित होती रही है। धर्म निरपेक्षता का स्वांग करने वाला राजनीतिक स्वार्थ आज धर्म को नियंत्रित करने का प्रयास कर रहा है। राजनीतिक तंत्र से आस्थाओं पर हमले की अपेक्षा नहीं की जाती। धर्म, विश्वास और आस्था के क्षेत्र में राजनीति का यह अनुचित-अनाधिकार प्रवेश भविष्य के लिए कोई सुखद संकेत लेकर नहीं आया है। इस तरह की राजनीति समाज को बांटने का ही काम करेगी।

(भारतीय प्रशासनिक सेवा के सदस्य हैं)