[ संजय गुप्त ]: गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा, मुकुल वासनिक, मनीष तिवारी समेत कांग्रेस के 23 नेताओं ने पूर्णकालिक अध्यक्ष की कमी को लेकर सोनिया गांधी को जो पत्र लिखा और जिसे मीडिया में लीक भी किया गया उसे लेकर अभी भी उथलपुथल जारी है। हालांकि कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में इन नेताओं के रवैये की आलोचना की गई और फिर उन्हें अपनी सीमा में रहने का संदेश देने के लिए लोकसभा और राज्यसभा में उन नेताओं को अहम जिम्मेदारी दी गई जो राहुल गांधी के करीबी माने जाते हैं, फिर भी पत्र लिखने वाले नेता अपने रुख पर अडिग हैं। इसकी प्रशंसा करनी होगी कि इन नेताओं ने सही बात कहने का साहस दिखाया।

कांग्रेस गांधी परिवार पर आश्रित है, लेकिन पार्टी को कामचलाऊ ढंग से चलाया जा रहा है

इससे इन्कार नहीं कि कांग्रेस गांधी परिवार पर आश्रित है, लेकिन इसका यह भी मतलब नहीं कि पार्टी को कामचलाऊ ढंग से चलाया जाए। राहुल के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद से ऐसा ही किया जा रहा है। राहुल के इस्तीफा देने के बाद जब सोनिया गांधी को अंतरिम अध्यक्ष बनाया गया तब यह माना गया था कि कांग्रेस जल्द पूर्णकालिक अध्यक्ष का चयन करेगी और हो सकता है कि वह गांधी परिवार के बाहर का कोई सदस्य हो, लेकिन एक वर्ष बीत गया और कुछ भी नहीं हुआ। इससे यही संकेत मिला कि गांधी परिवार यथास्थिति कायम रखना चाह रहा है। इसकी पुष्टि राहुल की ओर से बिना कोई पद लिए पार्टी के फैसले लेते रहने से भी हुई है।

राहुल गांधी पार्टी को कोई दिशा नहीं दे पा रहे

राहुल गांधी पार्टी को कोई दिशा नहीं दे पा रहे, इसकी पुष्टि ज्योतिरादित्य सिंधिया और अन्य नेताओं के कांग्रेस छोड़ने से तो हुई ही, राजस्थान कांग्रेस के संकट से भी हुई, जो जरूरत से ज्यादा लंबा खिंचा। हालांकि कांग्रेस के कई नेता राहुल को फिर से पार्टी अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे हैं, लेकिन इस मांग को वरिष्ठ नेता अपना समर्थन नहीं दे रहे हैं। दरअसल वे राहुल के नेतृत्व में पार्टी का भविष्य उज्ज्वल नहीं देख रहे हैं। राहुल की राजनीति का एकमात्र मकसद प्रधानमंत्री पर लांछन लगाना नजर आता है। उनके ट्वीट और बयान यदि कुछ कहते हैं तो यही कि उनकी राजनीति प्रधानमंत्री मोदी को नीचा दिखाने पर केंद्रित है। उनके इस रवैये से कांग्रेस का नुकसान ही हुआ है, क्योंकि राहुल के मुकाबले प्रधानमंत्री मोदी की साख कई गुना अधिक है।

राहुल ने न तो 2014 की पराजय से कोई सबक सीखा और न ही 2019 की हार से

राहुल ने न तो 2014 की पराजय से कोई सबक सीखा और न ही 2019 की हार से। कांग्रेस ने 2019 का लोकसभा चुनाव उनके ही नेतृत्व में लड़ा था। चुनावों के दौरान राहुल ने राफेल सौदे को तूल देकर प्रधानमंत्री पर खूब अमर्यादित हमले किए, लेकिन नतीजे में कांग्रेस को एक और करारी हार मिली। इस हार से शर्मिंदा होकर उन्होंने अध्यक्ष पद से इस्तीफा तो दे दिया, लेकिन उन तौर-तरीकों को नहीं छोड़ा जो उनकी छवि के साथ कांग्रेस पर भी भारी पड़ रहे हैं। उनकी अपरिपक्व राजनीति से कांग्रेस के तमाम नेता सहमत नहीं, लेकिन वह अपनी जिद पर अड़े हैं। शायद इसलिए कि उनकी चाटुकारिता करने वाले उन्हें इसके लिए शाबासी देते हैं कि वह मोदी पर हमला करके बिल्कुल सही कर रहे हैं।

कांग्रेस को छह महीने में पूर्णकालिक अध्यक्ष मिलेगा, लेकिन इसमें संदेह है

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में यह फैसला अवश्य लिया गया कि छह महीने में पूर्णकालिक अध्यक्ष की खोज की जाएगी, लेकिन इसमें संदेह है कि यह वैसे हो सकेगा जैसे कांग्रेस के 23 नेता चाह रहे हैं। भले ही राहुल यह कह रहे हों कि वह अध्यक्ष नहीं बनना चाहते और प्रियंका गांधी भी कह चुकी हों कि अध्यक्ष परिवार से बाहर का बनना चाहिए, लेकिन एक गुट राहुल को ही अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहा है। राहुल के अध्यक्ष पद छोड़ने के बाद अंतरिम अध्यक्ष बनीं सोनिया गांधी ने जिस तरह पूर्णकालिक अध्यक्ष के चयन को लेकर कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई उससे यह नहीं लगता कि परिवार के बाहर का कोई नेता पार्टी अध्यक्ष बन सकता है।

पुत्र प्रेम भारी: सोनिया गांधी राहुल को अध्यक्ष पद पर आसीन होते हुए देखना चाहती हैं

सोनिया गांधी राहुल को ही अध्यक्ष पद पर आसीन होते हुए देखना चाहती हैं। पार्टी हित पर उनका पुत्र प्रेम भारी पड़ रहा है। राहुल की नाकामी और कांग्रेस के रसातल की ओर जाने के बाद भी वह पार्टी को परिवार की पकड़ से बाहर नहीं देना चाहतीं। यह तब है जब राहुल की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठने के साथ यह धारणा गहरा रही है कि वह प्रधानमंत्री मोदी के आगे कहीं नहीं टिकते। उनकी बातें जनता को आर्किषत नहीं करतीं, क्योंकि उनमें गहराई नहीं होती। वास्तव में इसी कारण कांग्रेस के वरिष्ठ नेता उन्हें फिर अध्यक्ष बनाने की मांग के साथ नहीं। ये नेता इस नतीजे पर भी पहुंच चुके दिखते हैं कि राहुल लंबी रेस के घोड़े नहीं बन सकते।

जिस तेवर से राहुल, प्रियंका कांग्रेस को राह दिखाना चाह रहे हैं, वह सामंती राजनीति का परिचायक है

सोनिया गांधी यह बात इस तथ्य के बावजूद समझने को तैयार नहीं कि संप्रग शासन के दौरान राहुल किस तरह जिम्मेदारियों से भागते रहे और साथ ही अपरिपक्व राजनीति कर मनमोहन सिंह के लिए मुसीबतें खड़ी करते रहे। आखिर कोई यह कैसे भूल सकता है कि राहुल ने मनमोहन सरकार के अध्यादेश को फाड़कर फेंक दिया था?

इसमें हर्ज नहीं कि गांधी परिवार कांग्रेस को मार्ग दिखाए, लेकिन जिस तेवर और गुरूर के साथ राहुल और प्रियंका गांधी कांग्रेस को राह दिखाना चाह रहे हैं, वह सामंती राजनीति का ही परिचायक है।

कांग्रेसी नेता राहुल की हां में हां नहीं मिलाते: प्रियंका गांधी

प्रियंका गांधी राहुल की कमियों को ढकती ही नजर आती हैं। उन्हें यह भी शिकायत है कि कांग्रेसी नेता राहुल की हां में हां नहीं मिलाते। यह शिकायत उनकी राजनीतिक नासमझी को ही प्रकट करती है। भले ही गांधी परिवार भीड़ जुटाने में समर्थ हो, लेकिन उसे यह समझना होगा कि किसी भी दल को आगे ले जाने का काम वही कर सकता है जो राजनीतिक समझ रखता हो और अपनी बातों से जनता के मन में छाप छोड़ने में सक्षम हो। राहुल ऐसा करने में समर्थ नहीं। यह साफ है कि कांग्रेस के जो क्षत्रप राहुल को फिर अध्यक्ष बनाने की मांग कर रहे हैं वे कमजोर नेता की छत्रछाया में रहकर अपना उल्लू सीधा करना चाह रहे हैं, न कि कांग्रेस का भला।

23 कांग्रेसी नेताओं का पत्र राहुल गांधी का खुला विरोध है 

यह भी साफ है कि 23 कांग्रेसी नेताओं का पत्र राहुल गांधी का खुला विरोध है। इस विरोध की वजह उनका यह यकीन है कि कांग्रेस सरीखे दल का संचालन करना राहुल के बस की बात नहीं और उनके नेतृत्व में 2024 के चुनावों में पार्टी को कुछ हासिल होने वाला नहीं है। यदि सोनिया गांधी कांग्रेस के भविष्य को लेकर वास्तव में चिंतित हैं तो उन्हें पुत्र मोह त्यागकर अपने वरिष्ठ नेताओं के पत्र पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]