[ राजीव सचान ]: हाल में केरल के संत केशवानंद भारती के निधन के बाद संविधान के मूल ढांचे की अवधारणा एक बार फिर चर्चा में आ गई। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि संत केशवानंद भारती की याचिका पर ही सुप्रीम कोर्ट की 13 सदस्यीय पीठ ने 1973 में यह फैसला दिया था कि संविधान के मूल ढांचे को बदला नहीं जा सकता। चूंकि इसके पहले इतनी बड़ी पीठ नहीं बनी और न ही किसी अदालती फैसले में यह कहा गया कि संविधान के मूल ढांचे को बदलने की शक्ति संसद के पास नहीं है, इसलिए इस फैसले को ऐतिहासिक कहा गया। पहले भी इस फैसले की चर्चा समय-समय पर होती रही है, लेकिन यह अभी भी सुस्पष्ट नहीं कि आखिर यह मूल ढांचा है क्या?

1973 का ऐतिहासिक फैसला इंदिरा गांधी को संविधान से छेड़छाड़ करने से रोक नहीं सका

सुप्रीम कोर्ट के 1973 के फैसले को भले ही ऐतिहासिक कहा गया हो, लेकिन सच यह है कि इंदिरा गांधी ने 1975 में आपातकाल लगाकर संविधान में मनमाने संशोधन कर डाले। उनकी सरकार ने संविधान की प्रस्तावना तक में परिवर्तन कर दिया। उसमें समाजवाद और सेक्युलरिज्म शब्द तभी जुड़े। क्या इन शब्दों को जोड़े जाने से संविधान के मूल ढांचे में कोई फर्क नहीं पड़ा? इसका जवाब जो भी हो, यह स्पष्ट है कि 1973 का कथित ऐतिहासिक फैसला इंदिरा गांधी को संविधान से छेड़छाड़ करने से रोक नहीं सका। इससे भी खराब बात यह हुई कि जिस सुप्रीम कोर्ट ने 1973 में यह कहा था कि संसद संविधान के मूल ढांचे को नहीं बदल सकती, उसी ने आपातकाल के समय 1976 में जबलपुर उच्च न्यायालय के उस फैसले को खारिज कर दिया, जिसमें कहा गया था कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता और जीवन के अधिकार वाले अनुच्छेद 21 को निलंबित नहीं किया जा सकता।

सुप्रीम कोर्ट ने जबलपुर हाई कोर्ट के फैसले को खारिज कर आपातकाल का परोक्ष समर्थन किया

सुप्रीम कोर्ट ने जबलपुर हाई कोर्ट के फैसले को खारिज कर एक तरह से न केवल आपातकाल का परोक्ष समर्थन किया, बल्कि लोगों के जीवन और उनकी स्वतंत्रता को भी खतरे में डालने का काम किया। ऐसा होने से उन मौलिक अधिकारों का हनन हुआ, जिन्हें संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा माना जाता है। क्या इसके बाद भी यह कहा जा सकता है कि 1973 का फैसला वास्तव में ऐतिहासिक है?

संसद या फिर सुप्रीम कोर्ट यह स्पष्ट करे कि संविधान का मूल ढांचा है क्या?

इस प्रश्न पर बहस हो सकती है, लेकिन वह किसी ठोस नतीजे पर तभी पहुंचेगी जब संसद या फिर सुप्रीम कोर्ट यह स्पष्ट करे कि संविधान का मूल ढांचा है क्या? इसके स्पष्ट न होने पर कैसे-कैसे अनर्थ हो सकते हैं, इसका उदाहरण है सुप्रीम कोर्ट का वह फैसला जिसके तहत संविधान संशोधन की लंबी कवायद के बाद बनाए गए न्यायिक नियुक्ति आयोग संबंधी कानून को खारिज किया गया। इस फैसले को खारिज करते हुए कहा गया कि यह कानून संविधान के मूल ढांचे का उल्लंघन करता है। यह कानून इसलिए लाया गया था, ताकि न्यायाधीशों की ओर से न्यायाधीशों की नियुक्ति करने का सिलसिला थमे।

लोकतांत्रिक मान्यताओं के अनुकूल नहीं कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें

यह लोकतांत्रिक मान्यताओं के अनुकूल नहीं कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करें, लेकिन अपने देश में ऐसा ही हो रहा है। यहां न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्ति करते हैं। सवाल उठता है कि क्या हमारे संविधान निर्माता यह चाहते थे कि न्यायाधीश ही न्यायाधीशों की नियुक्तियां करें या फिर संविधान के अपरिभाषित मूल ढांचे में ऐसा कुछ कहा गया है? सभी इससे परिचित हैं कि न्यायाधीशों की नियुक्ति करने वाली कोलेजियम प्रणाली बनने के पहले न्यायाधीशों की नियुक्तियों में सरकार की महती भूमिका होती थी। सुप्रीम कोर्ट ने उसमें कटौती कर दी और फिर संविधान के मूल ढांचे के उल्लंघन का हवाला देकर न्यायिक नियुक्ति आयोग संबंधी कानून को भी खारिज कर दिया। यदि किसी की ओर से यह कहने की कोशिश की जा रही है कि कोलेजियम व्यवस्था संविधान की मूल भावना या फिर उसके मूल ढांचे के तहत है तो इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती।

मूल ढांचा अपरिभाषित होने से संविधान की मनमानी व्याख्या होते रहने का खतरा

विधान का अपना कोई मूल ढांचा हो सकता है और होना भी चाहिए, लेकिन इसका कोई मतलब नहीं कि वह अपरिभाषित बना रहे। इस स्थिति में उसकी मनमानी व्याख्या होते रहने का खतरा है। परिभाषित मूल ढांचा ही संसद और साथ ही सुप्रीम कोर्ट के समक्ष यह सही तरीके से स्पष्ट कर सकता है कि उनकी सामर्थ्य कहां तक है?

हाल के अयोध्या फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने उस कानून का भी जिक्र किया, जो नरसिंह राव सरकार ने 1991 में बनाया था। उपासना स्थल अधिनियम नामक यह कानून कहता है कि 15 अगस्त 1947 को विभिन्न धार्मिक स्थल जिस रूप में थे, उसमें किसी तरह के बदलाव की अनुमति नहीं दी जाएगी। अयोध्या विवाद को इस कानून से बाहर रखा गया था। अयोध्या विवाद पर फैसला देते हुए सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून को सेक्युलरिज्म की अवधारणा के अनुकूल बताया। इसके बाद से यह कहा जाने लगा कि इस कानून को भी संविधान के मूल ढांचे के हिस्से के रूप में देखा जाएगा।

मूल ढांचे को परिभाषित करना आवश्यक है 

क्या 1991 में बना कोई साधारण कानून संविधान के मूल ढांचे का हिस्सा बन सकता है? चूंकि इस कानून का मकसद काशी और मथुरा जैसे विवादों को न उभरने देना था, इसलिए इस पर आश्चर्य नहीं कि उसके खिलाफ याचिकाएं दाखिल होना शुरू हो गई हैं। सुप्रीम कोर्ट इन याचिकाओं का निस्तारण चाहे जैसे करे, लेकिन यह ठीक नहीं कि संविधान के मूल ढांचे को लेकर अस्पष्टता की स्थिति बनी रहे। इस मूल ढांचे को परिभाषित करना आवश्यक है। इसकी परिभाषा जो भी हो, संविधान के मूल ढांचे को पत्थर की लकीर पर देखना सही नहीं होगा, क्योंकि इसका मतलब होगा उसे उन धार्मिक ग्रंथों जैसा दर्जा दे देना, जिनके बारे में यह कहा जाता है कि उनमें एक कॉमा या नुक्ता भी इधर से उधर नहीं हो सकता। चूंकि हमारा संविधान लचीला है इसलिए उसका मूल ढांचा भी ऐसा ही होना चाहिए। इससे भी महत्वपूर्ण बात यह कि वह परिभाषित होना चाहिए।

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैं )