रिजवान अंसारी। हाल ही में हरियाणा चुनाव आयोग द्वारा लिया गया एक फैसला चुनाव सुधार की दिशा में एक अहम कदम साबित हो सकता है। उसके मुताबिक आगामी पांच जिलों में निकाय चुनाव में नोटा को एक प्रत्याशी के तौर पर माना जाएगा। यानी किसी सीट पर नोटा को सबसे ज्यादा वोट मिलने की हालत में उस पर दोबारा मतदान होगा और सभी प्रत्याशी अयोग्य घोषित कर दिए जाएंगे। इसमें कोई शक नहीं कि ऐसा पहली बार होगा जब किसी भी चुनाव में नोटा को भी एक उम्मीदवार की तरह गिना जाएगा। वरना अभी तक जिस नोटा को चुनाव सुधार की एक कुंजी समझा गया था, वह गोपनीयता को बनाए रखने का एक हथियार मात्र बनकर रह गया था। 

दरअसल अभी तक अधिकतम वोट नोटा को मिलने की स्थिति में भी सबसे ज्यादा वोट पाने वाले उम्मीदवार को ही जीत मिलती थी। लिहाजा एक तरफ जहां नोटा की प्रासंगिकता पर सवालिया निशान लग रहे थे, वहीं दूसरी तरफ नोटा के उद्देश्यों की प्राप्ति पर भी सवाल पूछे जा रहे थे। दरअसल यह सवाल होना ही चाहिए कि जिस व्यवस्था को हम व्यापक राजनीतिक सुधार का अंग समझ रहे हों, उससे उम्मीद की कोई किरण नजर क्यों नहीं आती? क्या यह सवाल नहीं होना चाहिए कि अगर किसी मतदाता के सकारात्मक वोट से जीत या हार का फैसला हो सकता है तो फिर नकारात्मक वोट यानी नोटा की कोई कीमत क्यों नहीं है?

एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स यानी एडीआर के मुताबिक मौजूदा लोकसभा में 187 सांसदों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं। इनमें 113 सांसद ऐसे हैं जिन पर गंभीर अपराधों में संलिप्त होने का आरोप है। इसी तरह 2009 के लोकसभा में 162, जबकि 2004 के लोकसभा में 128 सांसदों पर आपराधिक मुकदमें दर्ज थे। लिहाजा दागी सांसदों का बढ़ता ग्राफ बताता है कि भारतीय राजनीति पर नोटा असर छोड़ने में नाकाम रहा है। ऐसे में नोटा की अहमियत और उसकी जरूरत पर भी सवाल उठना लाजिमी है। इससे उन नोटा वोटरों के प्रयासों की सार्थकता पर भी प्रश्न चिह्न् लग गया है जो घर से पोलिंग बूथ तक की दूरी तय करते हैं।

जब साल 2013 में दिल्ली, राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मिजोरम में विधानसभा चुनाव हुए थे, तब पहली बार नोटा का इस्तेमाल हुआ था। उस चुनाव में कुल मतों के 1.85 फीसद वोट नोटा के पक्ष में पड़े थे जिसमें छत्तीसगढ़ में सबसे ज्यादा 3.07 फीसद वोट नोटा के पक्ष में पड़े थे। इसी तरह 2014 के विधानसभा चुनावों में 0.95 फीसद, 2015 में 2.02 फीसद, 2016 में 1.6 फीसद वोट नोटा को मिले। इन आंकड़ों पर गौर करें तो पता चल रहा है कि औसत नोटा वोट 2 फीसद के ही आसपास है। जाहिर है, नोटा का विकल्प वोटरों को पोलिंग बूथ तक खींच पाने में नाकाम रहा है। इसकी वजह क्या है? दरअसल नोटा को चुनाव सुधार का साधन तो समझा गया, लेकिन वास्तव में यह एक खयाली पुलाव ही साबित हुआ।

खयाली पुलाव इसलिए, क्योंकि दूसरे मतदाताओं के मत से चुनाव में जीत-हार का फैसला तो होता है, लेकिन नोटा वोट चुनाव परिणाम की सेहत पर कोई असर नहीं डाल पाता। यहां तक कि सबसे ज्यादा वोट नोटा के पक्ष में आने पर भी चुनाव को रद करने का प्रावधान नहीं है, बल्कि इस हालत में भी सबसे ज्यादा वोट पाने वाला उम्मीदवार ही विजयी होता है। नोटा की अहमियत न होने की वजह से ही मतदाता घर बैठ जाते हैं और इसी कारण वोट फीसद में खास इजाफा नहीं हो पा रहा है। साथ ही नोटा जैसे विकल्प की कवायद भी सार्थक होती नहीं दिख रही है।

दरअसल शुरुआत में नोटा को व्यापक चुनाव सुधार की एक बानगी के तौर पेश किया गया। उम्मीद जताई गई कि इससे चुनावी भ्रष्टाचार, राजनीति का अपराधीकरण, राजनीति में दागियों के प्रवेश पर लगाम लग सकेगी, लेकिन हमें समझना होगा कि नोटा के महत्वहीन होने की स्थिति में हम किसी भी उद्देश्यों को पूरा नहीं कर सकते। सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फैसले में कहा था कि एक वोट की एक कीमत मानी जाएगी, लेकिन कोर्ट की यह टिप्पणी एक विरोधाभासी टिप्पणी तब बन जाती है, जब नोटा वोटों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया जाता है। लिहाजा नोटा को अहमियत देने के लिए काननू में कुछ प्रावधान तय करने की जरूरत है।

सबसे पहले तो यह प्रावधान लाया जाए कि सबसे अधिक वोट नोटा पर पड़ने की स्थिति में उस चुनाव को रद किया जाएगा। इससे राइट टू रिजेक्ट की संकल्पना को भी अमलीजामा पहनाया जा सकेगा। हालांकि पूर्व मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्र ने एक जनहित याचिका की सुनवाई करते हुए यह जरूर कहा था कि भारत में चुनाव कराना एक महंगी प्रक्रिया है इसलिए नोटा को ज्यादा वोट पड़ने की स्थिति में किसी चुनाव क्षेत्र में दोबारा मतदान नहीं कराया जा सकता, लेकिन किसी चुनाव क्षेत्र की जनता किसी अयोग्य उम्मीदवार को सिर्फ इसलिए बर्दाश्त क्यों करना चाहेगी कि चुनाव कराने में बड़ा खर्चा आएगा? ऐसे में चुनाव कराने जैसे प्रयास का क्या औचित्य रह जाएगा?

दूसरी यह भी व्यवस्था हो कि लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में भी नोटा को सबसे ज्यादा वोट पड़ने की स्थिति में दोबारा मतदान कराने की व्यवस्था हो। साथ ही सभी उम्मीदवारों को अगले कुछ सालों के लिए अयोग्य करार दिया जाए। यकीनन इससे राजनीतिक दलों में एक प्रकार का डर पैदा होगा और वे साफ छवि के उम्मीदवारों को टिकट देने को मजबूर होंगे। दरअसल जब विकास कार्य में रुकावट पैदा होती है तो जनता बिदकती है और राजनीतिक दलों का किला ढहने लगता है। जाहिर है, जब जनता उम्मीदवारों को खारिज करना शुरू कर देगी, तब राजनीतिक दलों को भी सार्थक राजनीति करने पर मजबूर होना पड़ेगा।

तीसरा प्रावधान यह हो कि अगर किसी क्षेत्र का जनप्रतिनिधि अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन नहीं कर रहा हो और वहां की अधिकतर जनता नाखुश हो तो ऐसी स्थिति में उस जनप्रतिनिधि को वापस बुलाने यानी राइट टू रिजेक्ट की व्यवस्था हो ताकि शेष कार्यकाल के लिए दूसरे उम्मीदवार को चुना जा सके। बहरहाल सही अर्थो में चुनाव सुधार करना है तो हरियाणा चुनाव आयोग की पहल को राष्ट्रीय स्तर पर लागू करना होगा ताकि राजनीति से अपराध का खात्मा हो सके, लेकिन सवाल यह भी कि क्या इसके लिए हमारे रहनुमाओं की राजनीतिक इच्छाशक्ति जग सकेगी?

हाल ही में हरियाणा चुनाव आयोग द्वारा लिया गया एक निर्णय चुनाव सुधार की दिशा में अहम कदम साबित हो सकता है। उसके मुताबिक आगामी निकाय चुनाव में नोटा को एक प्रत्याशी के तौर पर माना जाएगा। यानी किसी सीट पर नोटा को सबसे अधिक वोट मिलने की हालत में उस पर दोबारा मतदान होगा और सभी प्रत्याशी अयोग्य घोषित कर दिए जाएंगे। ऐसा पहली बार होगा जब किसी भी चुनाव में नोटा को भी एक उम्मीदवार की तरह गिना जाएगा

(लेखक जामिया मिलिया इस्लामिया में अध्येता हैं)