डॉ गोविंद सिंह। अनुच्छेद 370 खत्म होने का बाद भी यह सवाल बना ही हुआ है कि यह कश्मीरियों के दिलों से कैसे दूर होगा? कैसे उन्हें यकीन हो कि उनका भविष्य भारत भूमि के साथ ही महफूज है। उन्हें कैसे भरोसा हो कि उनके साथ वह सब नहीं होगा, जैसा कि ये झूठे राजनेता बोलते हैं। निश्चय ही इसके लिए आने वाले वर्षों में सरकार को वहां विकास की रफ्तार कई गुना तेज करनी होगी।

विशेष आर्थिक पैकेज देना होगा, राज्य में निवेश बढ़ाना होगा और रोजगार के अवसर पैदा करने होंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि जम्मू एवं कश्मीर की तरक्की में यहां के राजनेता सबसे बड़े बाधक रहे हैं। इसलिए यहां की राजनीति को पुरानी जकड़नों से मुक्त करना होगा। कश्मीर में ही नहीं, जम्मू और लद्दाख में भी आम जनता के दिलों में एक गलतफहमी बरसों से जमी हुई है कि अनुच्छेद 370 में ही सुरक्षा है। 

आम आदमी से बात कीजिए तो यही बताएगा कि इसकी वजह से हमारी नौकरियां बची हुई हैं। हमारी ज़मीनें बची हुई हैं और बची हुई है हमारी संस्कृति। छूटते ही यहां के लोग कहने लगते हैं, 370 हटेगी तो हमारे यहां भी यूपी-बिहार से लोग चले आएंगे और हमारे यहां भी चोरी-चकारी जैसे अपराध बढ़ जाएंगे। यह सब वे इस तरह से कहते हैं, जैसे कि लोग बोरिया बिस्तर बांधकर यहां घुसने के लिए लाइन लगाए खड़े हों। सबसे बड़ी समस्या यही मन:स्थिति है। उन्हें इस मिथ से बाहर निकालनेॉ की जरूरत है। यह काम इतना आसान नहीं है। 
 
कश्मीर समस्या के सुलझने में जो सबसे बड़ी बाधाएं हैं, उनमें निस्संदेह पाकिस्तान सबसे अव्वल है। चूंकि उसके प्राण ही कश्मीर रूपी चिड़िया में अटके हैं, इसलिए वह कतई नहीं चाहेगा कि वह चिड़िया वहां से गायब हो जाये। इसलिए जिस तरह जनरल जिया उल हक ने कश्मीर में छद्म युद्ध शुरू करके कश्मीरी युवाओं को पिछले तीस साल भटकाये रखा, उसी तरह हमें भी ऐसी रणनीति बनानी होगी कि वह कश्मीर की तरफ आंख उठाकर भी न देखे। दूसरी बाधा निस्संदेह हमारे देश के राजनेता हैं। उसमें कश्मीर के भी हैं और देश के अन्य हिस्सों के भी।
 
सबसे बड़ी समस्या यह है कि वे देश के हित में नहीं सोचते। वे सिर्फ अपने हित में सोचते हैं। उन्हें लगता है कि कहीं इससे सत्तारूढ़ दल को लाभ न हो। वे हमेशा वोटबैंक के ही चश्मे से समस्या को देखते हैं। जो समस्या पिछले 70 साल से हजारों देशवासियों की जिंदगी ले चुकी हो, उसे बनाए रखने में उन्हें न मालूम क्या फायदा होता है! वे समस्या पर मरहम लगाने की बजाय उसे भड़काने की फिराक में लगे रहते हैं।
 
इस राष्ट्रीय समस्या पर वे राजनीति न खेलें तो बेशक कश्मीरियों का एकीकरण संभव है। तीसरी बाधा हैं इस देश के बुद्धिजीवी और मीडिया। यही लोग देश का विमर्श तैयार करते हैं। कश्मीर समस्या सिर्फ इसीलिए विकराल बनी हुई है क्योंकि उसे इस देश के बुद्धिजीवियों का समर्थन प्राप्त रहा है। वे उन्हें देश से जोड़ने की बजाय अलगाव की ओर धकेलते रहे हैं। जिस तरह से पिछले 70 वर्षों में अलगाव का विमर्श तैयार किया गया, कश्मीरियों को भारत के विरुद्ध भड़काया गया, उसी की वजह से कश्मीरी युवाओं में कट्टरवाद और अलगाव का भाव भर गया। यही वजह है कि आज देश का मीडिया दो खेमों में विभाजित नजर आता है। इसलिए यह जरूरी है कि देश के बुद्धिजीवी देशहित में सोचें। वे अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धताओं से ऊपर उठकर सोचना शुरू करें।
 
 
(लेखक- जम्मू केंद्रीय विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग से जुड़े हैं)

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