प्रदीप सिंह: विपक्षी एकता का पूरा दारोमदार अब कांग्रेस की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की सीमा पर टिका है। कर्नाटक विधानसभा चुनाव के नतीजे के बाद से कांग्रेस का गुब्बारा फूल चुका है। पांच राज्यों के आगामी चुनाव के बाद यह गुब्बारा पिचका नहीं तो विपक्षी एकता की हांडी चुनावी आग पर चढ़ नहीं पाएगी। कांग्रेस जितना बढ़ेगी, विपक्ष को उतना ही सिमटना पड़ेगा। फूलने-सिमटने के इस सिलसिले की एक सीमा है। वैसे इस बात के आसार पहले से ही दिखने लगे हैं कि कांग्रेस अब फूलने के साथ ही फैलने की भी तैयारी में है।

कांग्रेस को लग रहा है कि अमेरिका यात्रा के बाद राहुल गांधी अब भाजपा विरोधी खेमे के नेतृत्व के लिए तैयार हैं। इसका पहला शिकार बने नीतीश कुमार। 12 जून को पटना में बुलाई उनकी बैठक स्थगित हो गई। कांग्रेस ने उन्हें संदेश दे दिया कि विपक्षी एकता की अगुआ कांग्रेस है, किसी और को कोई गलतफहमी न हो। कांग्रेस ने नीतीश कुमार से सीधे संवाद करने के बजाय संदेश देने के लिए सार्वजनिक मंच को चुना। प्रेस कांफ्रेंस करके कहा कि 12 जून को राहुल गांधी पटना नहीं जाएंगे और पार्टी अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे भी खाली नहीं हैं। फिर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने भी कहा कि वह खुद नहीं आएंगे, अपना प्रतिनिधि भेजेंगे। ममता बनर्जी पहले ही कह चुकी थीं कि वह खुद नहीं आएंगी। सीताराम येचुरी ने भी कहा कि तारीख उनके लिए सुविधाजनक नहीं है।

सवाल है कि नीतीश कुमार ने बैठक की तारीख और जगह किससे पूछ कर तय की? नीतीश कुमार अभी तक किसी ऐसे दल को एकता के इस प्रयास से जोड़ नहीं पाए हैं, जो पहले से कांग्रेस के साथ न रहा हो और ममता बनर्जी एवं अरविंद केजरीवाल क्या करेंगे, अभी तय नहीं। सवाल है कि एकता के प्रयास में नीतीश कुमार की उपलब्धि क्या है? जो दल इस प्रक्रिया से जुड़े दिख रहे हैं, वे तो पहले से ही कांग्रेस के साथ हैं।

विपक्षी एकता की सारी कवायद अभी तक ‘थोथा चना-बाजे घना’ जैसी है। देश भर में एकता का हल्ला है, पर एकता कहां छिपी बैठी है, दिख नहीं रही है। हां, राहुल गांधी जरूर आत्मविश्वास से भरे नजर आ रहे हैं। अमेरिका में उन्होंने कहा कि एकता का गणित देख लीजिए, आपको समझ में आ जाएगा। उनको पता नहीं है कि ऐसे न जाने कितने गणित कब और कैसे हवा में उड़ गए, पता ही नहीं चला। साल 1971 में कांग्रेस विरोधी पार्टियों को भी ऐसा ही लगा था। विपक्ष तो एक हुआ, पर चली इंदिरा गांधी की आंधी। पिछले लोकसभा चुनाव में इसी गणित के चक्कर में मायावती अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल कर बैठीं। सपा को गेस्टहाउस कांड के लिए माफ करके उससे हाथ मिला लिया। इस अंकगणित को ही देखकर 2019 में कांग्रेस ने कर्नाटक में जनता दल सेक्युलर से गठबंधन कर लिया था। नतीजा यह हुआ कि दोनों का सफाया हो गया। उत्तर प्रदेश और कर्नाटक में भाजपा की आंधी चली।

एक तरफ विपक्षी एकता की बातें कोई ठोस रूप नहीं ले पा रही हैं तो दूसरी ओर भाजपा बिजली की तेजी से आगे बढ़ रही है। आंध्र प्रदेश में जगन मोहन रेड्डी और चंद्रबाबू नायडू, दोनों उसके साथ आने को तैयार हैं। बस भाजपा के हां कहने भर की देर है। कर्नाटक में देवेगौड़ा की पार्टी को लग रहा है कि राजनीतिक अस्तित्व बचाना है तो भाजपा संग जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं है। बिहार में पासवान परिवार में चाचा-भतीजा, दोनों का साथ आना तय है। बिहार में उपेंद्र कुशवाहा और उत्तर प्रदेश में ओमप्रकाश राजभर एक पैर राजग में रख चुके हैं। पंजाब में अकाली दल ने भी राजनीति के बियाबान में घूमकर समझ लिया कि एकला चलो की नीति पर चलकर कहीं पहुंचने वाले नहीं हैं। उसे भाजपा के न्योते का इंतजार है। केरल में भाजपा ईसाई समुदाय को रिझाने का हरसंभव प्रयास कर रही है। लव जिहाद का मुद्दा दोनों को और करीब ला सकता है। केंद्र की सत्ता में होने के कारण भाजपा के पास उन्हें देने के लिए बहुत कुछ है।

सत्तारूढ़ खेमे में नेतृत्व का मुद्दा पहले से ही तय है। सीटों के बंटवारे में भी कोई बड़ी समस्या नहीं। दूसरी ओर विपक्षी खेमे में नेतृत्व का मुद्दा तय करने का गंभीर प्रयास किया गया तो एकता बनने से पहले टूट सकती है। सीटों का बंटवारा सबसे कठिन काम है। क्षेत्रीय दल चाहते हैं कि कांग्रेस 200-225 सीटों पर चुनाव लड़े और बाकी उनके लिए छोड़ दे। कांग्रेस पहले इस पर चुप थी, पर अब चुप्पी तोड़कर कह रही है कि वह साढ़े तीन सौ सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी। मतलब बाकी दलों के लिए केवल 193 सीटें बचती हैं। क्या क्षेत्रीय दल इसके लिए तैयार होंगे? भाजपा के वर्चस्व के कारण पहले ही राष्ट्रीय राजनीति में उनकी भूमिका सीमित हो गई है। 1989 से 2014 तक के 25 साल क्षेत्रीय दलों की राजनीति का स्वर्णकाल था। यदि वे कांग्रेस के सीट बंटवारे का फार्मूला मान लेते हैं तो उनकी भूमिका और सीमित हो जाएगी। ममता बनर्जी और अखिलेश यादव पहले ही कह चुके हैं कि उनके लिए विपक्षी एकता का मतलब है कि बंगाल और उत्तर प्रदेश का मैदान तृणमूल कांग्रेस और सपा के लिए छोड़ दिया जाए।

विपक्षी एकता की चर्चा के बीच भाजपा राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन को नया स्वरूप देने में लगी है। वह राजग को गठबंधन की राजनीति की अपनी बड़ी उपलब्धि के रूप में देश के सामने पेश करना चाहती है। राजग एकमात्र राष्ट्रीय गठबंधन है, जो 25 साल से चल रहा है। इसीलिए लोकसभा चुनाव से पहले इसका दायरा बढ़ाने की कोशिश हो रही है। नए संसद भवन के लोकार्पण के बाद भाजपा के मुख्यमंत्रियों और वरिष्ठ नेताओं की बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा कि यह धारणा नहीं बननी चाहिए कि भाजपा क्षेत्रीय दलों के विरोध में है। भाजपा राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीति में अपना पूरा हस्तक्षेप चाहती है। वह कांग्रेस के लिए विस्तार की गुंजाइश को कम करना चाहती है। क्षेत्रीय दलों की राजनीति का जवाब वह राजग के विस्तार से देना चाहती है। साफ है कि 2024 के चुनावी संग्राम की रणभेरी बज चुकी है।

(लेखक राजनीतिक विश्लेषक एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)