[ हृदयनारायण दीक्षित ]: विचार विविधता भारत की प्रकृति है। यहां ऋग्वैदिक काल में भी विचार विविधता थी। आधुनिक भारत में भी विचार स्वातंत्र्य है, लेकिन राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता सर्वोपरि है। संविधानप्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मूल अधिकार में ‘भारत की संप्रभुता, अखंडता एवं सुरक्षा’ के बंधन हैं, लेकिन भारत के कथित उदारपंथी लिबरल इस मर्यादा का पालन नहीं करते। वे भारतीय संस्कृति, सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और राष्ट्रीय एकता के प्रति अनुदार रुख अपनाते हैं। इस वर्ग के लेखक-स्तंभकार राष्ट्रीय व्यथा के अवसरों पर भी शांत चित्त विचार नहीं करते। राजनीतिक दलतंत्र का भी एक वर्ग राष्ट्रीय एकता एवं अखंडता की मर्यादा का उल्लंघन करता है।

बेशक दलतंत्र को सरकार की प्रशंसा या आलोचना का लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन राष्ट्रीय व्यथा के अवसरों पर शब्द प्रयोग की सुनिश्चित मर्यादा है। पुलवामा हमले से समूचा भारत व्यथित है। आमजन तिरंगा लेकर आंसू बहाते सड़कों पर निकले हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उचित और संयमित प्रतिक्रिया दी। उन्होंने अंतरराष्ट्रीय बिरादरी को इसकी गंभीरता से अवगत कराया। पड़ोसी देश द्वारा प्रायोजित यह हमला राष्ट्रीय बेचैनी की शीर्ष प्राथमिकता है। फिर भी राष्ट्रविभाजक टिप्पणियां हो रही हैं। शत्रु देश को लाभ पहुंचाने वाले वक्तव्य भी आए हैं।

सीआरपीएफ देश का प्रतिष्ठित सुरक्षा बल है। एक पत्रिका ने पुलवामा में शहीद इस बल के जवानों का जातीय विश्लेषण किया है कि शहीदों में अधिकांश निचली जातियों के हैं। सीआरपीएफ प्रमुख दिनकरन ने रिपोर्ट की निंदा करते हुए कहा है कि ‘रिपोर्ट शहीदों का अपमान है। शहीद जातिगत आंकड़ा नहीं है। जवान स्वयं को सिर्फ भारतीय जानते हैं।’ उदारवादियों की अभिव्यक्ति राष्ट्रीय एकता की शत्रु है। वे घटना के बाद सड़कों पर निकले व्यथित ‘भारत के लोगों’ का भी जातिगत प्रतिशत निकाल रहे होंगे। ऐसा जनज्वार किसी दल द्वारा प्रायोजित नहीं हो सकता। यह स्वत: स्फूर्त, स्वयं प्रेरित है। जनता व्यथित और आक्रोशित है। विपक्ष के एक नेता ने पुलवामा को भारत की आत्मा पर आक्रमण बताया था, लेकिन उसी दल के प्रवक्ता ने केंद्र पर उन्मादी राष्ट्रवाद फैलाने का आरोप लगाया। पाकिस्तान ने भी चुनावों के मद्देनजर भारत पर ऐसा ही आरोप लगाया है। अफसोस है कि उदारवादियों एवं राजनीतिक बयानों के संदर्भ पाकिस्तान को लाभ पहुंचाने वाले हैं।

सरकारों पर टिप्पणी विपक्ष का लोकतांत्रिक अधिकार है, लेकिन यह सरकारी आलोचना तक ही सीमित होनी चाहिए। इस सीमा के पार की गई आलोचना शत्रु देश को लाभ पहुंचाती है। भारतीय नागरिक कुलभूषण जाधव पाकिस्तान की जेल में सड़ रहे हैं। उनके विरुद्ध पाकिस्तान में जासूसी के आरोप हैं। मामला अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में है। पाकिस्तान के अनुसार उसने भारतीय मीडिया में प्रकाशित अंशों को साक्ष्य बनाया है। शत्रु देश के मंसूबों को फायदा पहुंचाने वाली ऐसी रिपोर्ट भारत हितैषी नहीं हो सकती।

मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भी पाकिस्तान परस्त सवाल उठाए कि ‘चुनाव के ठीक पहले ही ऐसा हमला क्यों हुआ?’ यह राष्ट्रविरोधी और पाकिस्तान हितैषी बयान है। जैश-ए-मोहम्मद ने हमले की जिम्मेदारी ली। हमला पाकिस्तानी सेना की शह पर जैश ने किया, लेकिन देश के एक बड़े अखबार में छपा कि घटना कश्मीर के स्थानीय लोगों की करतूत है। चिंतक, लेखक और विश्लेषक होना आदर योग्य है, लेकिन राष्ट्रीय हितों के विरुद्ध होना कैसा उदारवाद है? दुनिया के अन्य देशों में ऐसा नहीं होता। ऐसा ‘उदारभाव’ केवल भारत में ही दिखाई पड़ता है।

भारत ने व्यथित होकर सर्जिकल स्ट्राइक की थी। सैनिक जान हथेली पर लेकर उस अभियान में भागीदार बने। यह सैनिकों का उत्साह बढ़ाने का अवसर था। देश के आमजनों को सेना के प्रति गर्व था, लेकिन दलतंत्र सर्जिकल स्ट्राइक के सुबूत मांग रहा था। इसी तरह पाकिस्तान भी लक्षित हमले के सुबूत मांग रहा था। कुछ टिप्पणीकार भी पाकिस्तान की तर्ज पर साक्ष्य मांग रहे थे। पाकिस्तान के विरुद्ध व्यापक जनाक्रोश है। भारतीय मीडिया ने सुरक्षाबलों पर कश्मीरी युवकों द्वारा पत्थरबाजी की घटनाएं दिखाई हैं। ऐसे कश्मीरी युवकों के प्रति भारत में स्वाभाविक गुस्सा है।

देश के कुछ भागों में निर्दोष कश्मीरी युवकों के साथ दुव्र्यवहार की भी घटनाएं हुई हैं। ऐसी घटनाएं भारतीय जन की प्रकृति नहीं हैं। वे अपवाद हैं और अपवाद स्वाभाविक नियम नहीं होते। इन घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर प्रसारित किया जा रहा है। राष्ट्रीय व्यथा और चिंता के समय समाज के सभी वर्गों को एक साथ एकजुट होने की आवश्यकता होती है। विचार प्रकट करने और लोकमत बनाने वाले स्तंभकारों और टिप्पणीकारों को भी राष्ट्रीय व्यथा दूर करने वाले प्रयासों में साथ रहना चाहिए। दलों ने अल्पकालिक एकजुटता दिखाई और निंदा में लग गए। चिंतनशील समूह को तो अपनी जिम्मेदारी निभानी ही चाहिए।

पुलवामा हमले से उपजा जनाक्रोश भारतीय राष्ट्रवाद की स्वाभाविक प्रतिक्रिया है। वंदेमातरम् का जयघोष और पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे किसी दल या सरकार द्वारा प्रायोजित नहीं हैं। भारतीय राष्ट्रवाद सकारात्मक है। यही हिंसक हमले के विरुद्ध आक्रोश में है। मोदी सरकार जनगणमन के साथ है और अपना संवैधानिक कर्तव्य निभा रही है। पाकिस्तान को अलग-थलग करने के प्रयास संवैधानिक कर्तव्य का निर्वहन है। अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में उसे आतंकवादी सिद्ध कराने की कोशिशें प्रशंसनीय हैं।

सिंधु जल संबंधी घोषणा भी इसी का भाग है। भारत को अजेय बनाए रखने और पाकिस्तानी रक्तचरित्र को उचित जवाब देने के लिए सरकार सक्रिय है। कहीं कोई सांप्रदायिक गोलबंदी नहीं है, लेकिन एक स्तंभकार ने लिखा है कि ‘शासक पार्टी परिवार से जुड़े संगठनों ने ही इस बदले की कार्रवाई का आयोजन किया है, क्योंकि सीमापार शत्रु के अलावा राष्ट्रवादी उन्माद के लिए आसपास प्रत्यक्ष शत्रु जरूरी है। सांप्रदायिक राष्ट्रवादी उन्माद जगाने का यह खेल और भी खतरनाक है।’ यह टिप्पणी पाकिस्तानी नजरिये के साथ है। लिबरल सहज राष्ट्र जागरण को सांप्रदायिक राष्ट्रवादी उन्माद बता रहे हैं।

ऐसा अक्सर होता है। उदारवादी राष्ट्रवाद को सांप्रदायिक कहते हैं और बड़े आनंद से पाकिस्तान की पैरवी करते रहते हैं। मुंबई हमला भारत पर सीधा आक्रमण था। पुलवामा की तरह प्रच्छन्न युद्ध था। हमले के बाद अजीज बर्नी की किताब आई-‘आरएसएस की साजिश।’ कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह, फिल्मकार महेश भट्ट आदि इस जलसे में जुटे। लब्बोलुआब यह था कि हमला यहां के ही लोगों ने करवाया। यह निष्कर्ष पाकिस्तान के पक्ष में था, लेकिन बर्नी गच्चा खा गए। पाकिस्तान ही वास्तविक गुनहगार निकला। मुंबई हमला भुलाने की कोशिश के बावजूद नहीं भूलता।

पाकिस्तानी आतंकवाद का दर्द भारत की राष्ट्र देह को प्रतिपल कष्ट देता है। बहुत सारे लोग उससे पगार लेते हैैं। आतंकी ट्रेनिंग लेते हैैं। आत्मघाती बनते हैं, लेकिन कुछ लोग आतंकी बने बिना ही उसके पक्ष में बोलते लिखते हैं। वे उदारवादी कहलाते हैैं। वे स्वयं को लिबरल, सेक्युलर, वैज्ञानिक भौतिकवादी वगैरह कहते हैं। इससे राष्ट्रहित की क्षति होती है। राष्ट्रीय एकता-अखंडता पर चोट होती है। प्राचीन भारतीय साहित्य में इसे ‘प्रज्ञा अपराध’ कहा गया है। अबोध युवकों की बात तो चिंताजनक है ही, लेकिन ज्ञान संपन्न होने के बावजूद राष्ट्रहित की अनदेखी छोटा अपराध नहीं है।

( लेखक उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हैं )