मनुष्य में जो कुछ भी शक्ति है, वह उसकी अपनी नहीं है। यह बात याद रखनी चाहिए कि मेरा कुछ भी नहीं है। जब मनुष्य के मन में यह भावना उठती है कि मेरी शक्ति से नहीं, उन्हीं की शक्ति से सब कुछ हो रहा है, तब उनमें अनंत शक्ति आ जाती है। आप लोग इस दुनिया में आए हैं। इसलिए आपको बहुत कुछ करना है। वस्तुत: दुनिया में जो कुछ भी होता है, उसके पीछे एषणा वृत्ति काम करती है। एषणा है इच्छा को कार्य रूप देने का प्रयास। जहां इच्छा है और इच्छा के अनुसार काम करने की चेष्टा है, उसे कहते हैं एषणा। दुनिया में जो कुछ भी है, एषणा से ही है। परमात्मा की एषणा से दुनिया की उत्पत्ति हुई है। जब परमपुरुष की एषणा और मनुष्य की व्यक्तिगत एषणा एक साथ काम करती है तो उस स्थिति में कर्म में मनुष्य सिद्धि पाते हैं, किंतु वे सोचते हैं कि मेरी कर्मसिद्धि हुई है। कर्मसिद्धि कुछ नहीं हुई है। परमपुरुष की एषणा की पूर्ति हुई है। वह जैसा चाहते हैं, वैसा हुआ। आपकी ख्वाहिश भी वैसी थी। इसलिए आपके मन में भावना आई कि मेरी इच्छा की पूर्ति हो गई है।


आपकी इच्छा की पूर्ति नहीं होती है। उनकी इच्छा की पूर्ति होती है। वे अपनी इच्छा के अनुसार काम करते हैं, किंतु मनुष्य के मन में आनंद तब होता है, जब मनुष्य यह जान लेता है कि उनकी इच्छा की पूर्ति हो गई। इसलिए बुद्धिमान मनुष्य इस संदर्भ में क्या करते हैं? वे सोचते हैं कि परमात्मा की इच्छा इसमें क्या है। उसी इच्छा को मैं अपनी इच्छा भी बना लूं। वे देखते हैं कि परमात्मा की जो एषणा है उसके पीछे कौन सी वृत्ति है? वह है इस दुनिया का कल्याण हो। कल्याण हो यही है परमात्मा की एषणा। इसलिए शास्त्र में परमात्मा का एक नाम ‘कल्याणसुंदरम’ भी है। परमात्मा सुंदर क्यों हैं? चूंकि उनमें कल्याण वृत्ति है। इसलिए वे सुंदर हैैंं। परमात्मा हर जीव की नजर में सुंदर हैं, क्योंकि वे ‘कल्याणसुंदरम’ हैं। साधक केवल अपने आगे बढ़ेंगे और दुनिया के और व्यक्ति पीछे रह जाएंगे। यह मनोभाव साधक का नहीं है। इसलिए कहा जाता है कि साधना का अन्यतम अंग है तप। तप माने अपने स्वार्थ की ओर नहीं ताकना। ताकना है समाज के हित की ओर। सामूहिक कल्याण की भावना जहां है, व्यक्तिगत कल्याण उसमें हो या न हो, उसी का नाम है तप। तप का सर्वोत्तम उपाय जनसेवा है। जनसेवा से आध्यात्मिक विकास होता है।
[ श्रीश्री आनंदमूर्ति ]