[गोपालकृष्ण गांधी]। ‘बताइए, बताइए! कुछ तो बताइए गांधी जी के पारिवारिक प्रसंग! घरेलू घटनाएं! आप कितने भाग्यवान हैं जो उनके घर में, उन्हीं के परिवार में जन्मे हैं।’ ऐसा मुझे बार-बार कहा गया है, पूछा गया है। मैं उस जिज्ञासा को समझता हूं, उसका आदर करता हूं। और जब पूछने वाला बालक या बालिका हो तो वह प्रश्न, वह निवेदन और बल ले लेता है। उससे मुकरना कठिन हो जाता है। फिर यह तर्क भी जोड़ दिया जाता है-‘हमें उनको देखने का सौभाग्य नहीं मिला, लेकिन आपको देख रहे हैं। बस, ऐसा लगता है..।’ यह बात जैसे ही शुरू होती है, मैं उसको वहीं का वहीं रोक देने की चेष्टा करता हूं-‘देखिए, मैं अदना इंसान हूं। साधारण आदमी। गांधी नाम जरूर लगा है मेरे नाम के साथ। उनके बेटे का बेटा जो हुआ, लेकिन गांधियन नहीं हूं। मुझमें गांधीवाद कतई ना ढूंढिएगा। वह आपको बाकी कई जगह मिल जाएगा। मुझमें नहीं। हां, मैं गांधी का विद्यार्थी जरूर हूं। उनके जीवन से, उनके कथन से प्रभावित...।’

मुझसे कहा जाता है, ‘फिर भी सर, महात्माजी की ही नस्ल!’ यहां एक और स्पष्टीकरण देता हूं। ‘देखिए, एक और बात! कस्तूरबा और मोहनदास की नस्ल की हम बात कर सकते हैं, लेकिन महात्माजी की नस्ल की बात ठीक नहीं। अगर कोई गांधी जी को महात्मा मानता है तो फिर उसको यह भी समझ लेना चाहिए कि महात्माओं की कुल-परंपरा नहीं होती। अनुयायी-परंपरा हो सकती है, लेकिन कुल-परंपरा नहीं।’ महात्माओं के कुल के सदस्य उनके अनुयायी बनना चाहें तो बन सकते हैं, न बनना चाहें तो अपने में रह सकते हैं, लेकिन उनका महात्मा के साथ रिश्ता पूर्व- आश्रम का रिश्ता बन जाता है। पूर्व-आश्रम का रिश्ता ओछा नहीं होता। उसमें दिल की धड़कन वैसी की वैसी ही बनी रहती है, लेकिन उसका ‘पोखर’ एक बड़े ‘सागर’ से जुड़ जाता है। मिटता नहीं, पर जुड़ जाता है।

‘ठीक कह रहे हैं आप! फिर भी सर, वे आपके दादा थे। कुछ तो यादें, घर की यादें?’ एक किस्म से हार मानकर यह कहता हूं-‘अच्छा तो फिर सुनिए! कस्तूरबा और मोहनदास के चार बेटे थे, कोई बेटी नहीं। काश, उनकी बेटी होती तो क्या बात होती! उन चार बेटों से पहले एक शिशु-जीव जन्मा था जरूर, पर वह बचा नहीं। कुछ ही दिनों में आंखें मूंदकर इस जगत से उठ गया। मोहनदास दर्दभरे शब्दों में लिख गए हैं कि कैसे बचता वह जीव? उसके मां-बाप (यानी कस्तूरबा व मोहनदास) की खुद की उम्र ही क्या थी? बाल-विवाह का परिणाम बालक-वियोग! आज किसी को मालूम नहीं कि वह बालक था या बालिका! फिर चार पुत्र हुए। और उन चार पुत्रों व पुत्रवधुओं से कस्तूरबा-मोहनदास को मिले- चौदह पौत्र-पौत्रियां। मैं उन चौदह में सबसे छोटा हूं। तिहत्तर साल का छोटा!’

‘सर, हमें बस इस तरह की ही बातें बताएं। एक या दो..बस!’ अच्छा तो फिर! ऐसा हुआ कि जब कस्तूरबा मेरे पिता (उनकी अंतिम संतान) को जन्म देने वाली थीं, तब वे दोनों (कस्तूरबा और मोहनदास) डरबन, दक्षिण अफ्रीका में थे। प्रसव का दिन आने वाला था। 1900 के मई की बात है। एक अंग्रेज डॉक्टर से बात हुई थी कि सही घड़ी पर उनको बुलाया जाएगा। और एक दाई से भी बात हो गई थी। किंतु घड़ी की अपनी घड़ी होती है। उनके अनुमान से काफी पहले आ गई। ना डॉक्टर आ सके, ना दाई। मोहनदास ऐसी परिस्थिति के लिए तैयार थे। मां ने सिखामन (मां के लिए उपदेश) नाम की एक गुजराती पुस्तिका मोहनदास पढ़ चुके थे। उसमें बारीकी से लिखा हुआ था कि प्रसव में क्या-क्या, कैसे-कैसे करना चाहिए। तीन पुत्रों को पहले जन्म दे चुकी थीं कस्तूरबा खुद, इसलिए उनको भी प्रसव का अनुभव था। तो फिर, अपनी किताबी समझ का उपयोग करते हुए, ऐन मौके पर, जन्म की घड़ी पर, मोहनदास अपने चौथे पुत्र को अपने हाथों से गर्भगृह से दुनिया में ले आए। देवदास नाम रखा उस बालक का।

‘हमें यह किस्सा मालूम नहीं था, सर!’ हां, अपने में यह प्रसंग ही जानने लायक है। हमारे देश में मर्द लोग इस तरह का जिम्मा कम ही लेते हैं। पर वह मर्द (मोहनदास) अजीब-ओ-गरीब तो था ही। ‘और कोई इसी तरह की कहानी..!’ ‘कहानी नहीं, हकीकत!’ ‘सॉरी सर, हकीकत!’ तो फिर, वह देवदास भी बालक से युवा हुआ। और उस युवक का भी ब्याह हुआ। अब 1934 की बात है। मोहनदास अब ‘महात्मा’ के नाम से माने जाते थे, और कस्तूरबा, ‘बा’। देवदास की पत्नी, लक्ष्मी मां बनने वाली थीं। मोहनदास ने अपनी पुत्रवधू को पत्र लिखा। कुछ ऐसे शब्दों में, मेमोरी से बता रहा हूं-‘चिरंजीवी लक्ष्मी, गर्भावस्था में धीमी गति से ही चलना। झुकना ठीक नहीं। इजी चेयर पर बैठना ठीक होता है। फर्श पर अगर बैठना हो तो दीवार से सटकर बैठना। दूध पीना। ताजे फल खाना। अगर ऐसा करोगी तो तुम्हारे लिए भी अच्छा होगा और बच्चे के लिए भी। नारंगी और अंगूर गर्भावस्था में बहुत मदद करते हैं। पर याद रखना कि नारंगी के और अंगूर के बीज कतई पेट में न जा पावें।’ वह महात्मा में महात्मा थे इतिहास के लिए। ससुर में ससुर थे पुत्रवधू के लिए। ‘सर कितने काम की हिदायत दी उन्होंने लक्ष्मी को!’ ‘अच्छा, तो बहुत हुआ घरेलू बातों का बतलाना-सुनना!’ अब इजाजत? ‘सर, सर नहीं! कुछ अपने बारे में। आपकी खुद की यादें!’ ‘मुझे उनकी एक भी याद नहीं। काश! मैं सिर्फ ढाई साल का था 1948 में, जब वे...।’ ‘औरों से तो सुनी होंगी आपने अपनी और अपने दादा की बातें!’ ‘हां...!’ ‘तो बताइए, प्लीज बताइए।’

बिड़ला हाउस, नई दिल्ली में उनकी प्रार्थना सभा हुआ करती थी। 1947-48 की बात है। मैं अपने पिता के साथ जाता था, ऐसा सुना है। तनाव का जमाना था। सांप्रदायिक आग भड़क रही थी। उसके बीच महात्माजी अपनी प्रार्थना जारी रखते थे। फिर प्रवचन होता था। बड़ी तादाद में लोग- हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सब आते थे। बिड़ला हाउस के मैदान में। मैं उनके कुछ पास बैठा दिया जाता था। बिल्कुल पास नहीं, कुछ पास। जिससे कि वे मुझे देख सकें। प्रार्थना में सब आंखें मूंदकर ईश्वर का ध्यान करते या करने की कोशिश करते। बापूजी (ऐसा मैंने सुना है) मुझे भी आंखें बंद कर प्रार्थना में सम्मिलित होने को कहते थे। और मैं ऐसा करता भी था। प्रार्थना के दरमियान बापूजी बीच-बीच में खुद अपनी आंखें खोलकर मेरी ओर देखते, यह चेक करने कि गोपू ने आंखें बंद की हैं या नहीं। और संतोष पाते। प्रवचन के पहले एकत्रित लोगों में चहचहाहट होती थी। स्वाभाविक है। तब बापूजी कहते-‘चुप! सब चुप! शांत हो जाइए, शांत।’ उनके यह शब्द और कहने की मुद्रा मुझे कंठस्थ हो गई थी। और सभा के बाद में उनके कमरे में उनके शब्द और उनकी अदा की नकल कर-कर उन्हें हंसाता। ऐसा मैंने सुना है। ‘बताओ, मैंने क्या कहा?’ ‘तूप! तूप! तब तांत हो दाइए...तांत!’ और वे हंसते ना संभलते। ऐसा मैंने सुना है। इससे आगे कुछ भी कहना, याद करना मेरे लिए मुश्किल हो जाता है। गला बंध जाता है। आंखें भर जाती हैं।

(लेखक महात्मा गांधी के पौत्र व पूर्व

राजनयिक-राज्यपाल हैं और वर्तमान में अध्यापक हैं)