सुजीत एक दिहाड़ी मजदूर था। वह ठेके पर पेंटिंग का काम करने के क्रम में नौकरी दर नौकरी भटकता रहा। आरएसएस की शाखाओं में जाने के अतिरिक्त वह अपनी मौत के दिन तक संघ के सभी दायित्वों से मुक्त हो चुका था। दरअसल उसकी आर्थिक मजबूरियों ने उसके सामने ऐसे हालात पैदा कर दिए थे कि वह बिना पारिश्रमिक के कोई काम नहीं कर सकता था। चार लोगों के परिवार में सुजीत ही एक ऐसा था जो कमाने के योग्य था। उसके मां-बाप बूढ़े और लाचार हो गए थे, जबकि 28 वर्षीय उसका बड़ा भाई जयेश मानसिक रूप से अशक्त था। पूरे परिवार की संपूर्ण देखभाल की जिम्मेदारी उसके कमजोर कंधों पर ही थी। एक जोशीले युवा के रूप में सुजीत का सबसे पहला जुड़ाव माकपा के साथ हुआ। कन्नूर जिले में इसका व्यापक राजनीतिक प्रभाव था, आज भी है। अधिकतर लोग इसका जिक्र लेफ्ट के गढ़ के रूप में करते हैं। आय के सीमित साधन और परिवार की कमजोर स्थिति के चलते सुजीत को उस समय एक ऐसे सहयोगी समूह की तलाश थी जहां से उसे आर्थिक और दूसरी सुरक्षा मिल सके। बाद में सुजीत का माकपा से मोहभंग हो गया और उससे उसने नाता तोड़ आरएसएस से नाता जोड़ लिया। उन दिनों उसके गांव अरोली में आरएसएस की शाखा आरंभ होनी थी।

सुजीत अपने आसपास गलत होते नहीं देख पाता था। इसी स्वभाव के कारण गांव में उसकी छवि एक परोपकारी इंसान की बन गई थी। उसकी जीवन की यही कमाई भी थी। उसकी अंत्येष्टि में शामिल होने आए लोग भी उसकी अच्छाई का गुणगान करते देखे गए। विभिन्न धर्मो के लोग उसको अंतिम विदाई देने आए थे। एक आरएसएस कार्यकर्ता ने मुङो बताया कि अपने दोस्ताना व्यवहार के कारण ही सुजीत अपने पड़ोस में दो स्कूली बच्चों के बीच उत्पन्न विवाद को सुलझाने में सफल रहा था। उसके पड़ोस में रहने वाले कक्षा दस के एक लड़के को एक लड़की के सगे-संबंधी धमकियां दे रहे थे। जाहिर है कि उसके बाद लड़के के परिवार वाले भी तैश में आ गए और लड़की के परिजनों को खरी-खोटी सुनाने लगे। पल भर में हालात गंभीर हो गए। बाद में यह मामला वहीं रहने वाले सुजीत के पास ले जाया गया। उसने इस विवाद को बेहद शांति और दोस्ताना माहौल में सुलझा दिया। दोनों पक्षों ने एक दूसरे से यह सुनिश्चित भी किया कि आगे से लड़के और लड़की के बीच किसी तरह की बातचीत या संवाद नहीं होगा। इस पहल से मामला शांत हो गया। दोनों का स्कूली जीवन फिर ढर्रे पर आ गया और सुजीत की दिनचर्या भी उसी गति से चलने लगी। बात तब बिगड़ गई जब इस घटना की खबर उसके क्षुब्ध चाचा, जो माकपा से जुड़े हुए हैं, के कानों में पहुंची। उसी रात सुजीत को मार दिया गया। आरोप लगाया जाता है कि 15-16 लोगों का एक समूह मामले का पटाक्षेप करने के इरादे से उसके घर पहुंचा। उनका असली मकसद सुजीत पर गुस्सा निकालना था। लड़के-लड़की के परिवार का वहां कोई अता-पता नहीं था। वे मामले को भुला चुके थे। उन लोगों ने करीब डेढ़ घंटे तक सुजीत को बेदर्दी से पीटा। सुजीत के परिवार वाले उनसे दया की भीख मांगते रहे, लेकिन उन्होंने किसी की नहीं सुनी। यहां तक कि उन्हें भी मारा-पीटा गया। सुजीत की मां का हाथ टूट गया। अरोली के लोगों में दहशत फैल गई।

कन्नूर राजनीतिक रूप से काफी संवेदनशील है और वहां राजनीतिक ¨हसा रह-रहकर सामने आती रहती है। केरल हाईकोर्ट ने इस राजनीतिक हत्या पर कड़ी टिप्पणी की है। पिछले साल माकपा के कुछ कार्यकर्ताओं के भाजपा में जाने के मुद्दे के कारण दोनों दलों में हिंसक संघर्ष छिड़ गया था। भाजपा के जिला अध्यक्ष के घर पर बम फेंका गया, जिसमें वह बाल-बाल बचे। कन्नूर के एक पत्रकार उल्लेख एनपी ने इस जिले को भारत के सिसिली की संज्ञा दी है, जहां बदले की भावना से हत्याएं आम बात है। यहीं से केरल में कम्युनिस्ट आंदोलन की शुरुआत हुई थी। कम्युनिस्टों को चुनौती देने के कारण पिछले दस साल में विभिन्न दलों के 41 लोग राजनीति प्रेरित हत्याओं के शिकार हो चुके हैं। 2012 में इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के एक युवा नेता अब्दुल शकूर की धान के खेत में हत्या कर दी गई थी। उसकी हत्या के आरोपियों में अधिकांश माकपा से संबद्ध हैं। शकूर पर आरोप था कि उसने माकपा के नेता की गाड़ी पर हमला किया था, जिसमें उन्हें मामूली चोटें आई थीं।

ऐसा नहीं है इस क्षेत्र में माकपा ही हमेशा आक्रामक रही है। बदले की भावना वाली राजनीति सिर्फ उसी के कार्यकर्ता नहीं करते हैं, बल्कि कभी-कभी वे इसके शिकार भी होते रहे हैं। लेकिन यह कल्पना करना काफी कठिन है कि कन्नूर जिला और दिल्ली का जेएनयू, दोनों एक ही देश में स्थित हैं। एक तरफ कम्युनिस्ट दल जेएनयू के एक युवा छात्र की गिरफ्तारी पर हंगामा खड़ा कर रहे हैं अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरा बता रहे हैं और दूसरी तरफ एक युवा की बर्बर हत्या (जिसके आरोप में माकपा के छह कार्यकर्ता गिरफ्तार हुए हैं) पर मौन साधे हुए हैं। यह माकपा का पाखंड नहीं तो और क्या है। सुजीत की हत्या सिर्फ प्रतिशोध के चलते नहीं हुई, बल्कि उसे विशेष रूप से निशाना बनाया गया। साथ ही गांव में शाखा लगाने पर धमकी दी गई।

इस आक्रामकता की असली वजह माकपा से सुजीत का अलग विचार रखना थी। उसकी मौत सिर्फ एक मौत नहीं है। वह वास्तव में बौद्धिक जगत के लिए एक चुनौती भी है। इस घटना पर चुप्पी एक सोची-समझी रणनीति प्रतीत होती है, जो कि मुद्दे को और उलझाती है। राजनीतिक कारणों से इसकी निंदा नहीं की जा रही है, लेकिन इससे समाज में न केवल एक घातक रोग को बढ़ावा दिया जा रहा है, बल्कि उसे निर्दयी भी बनाया जा रहा है। आइए ऐसी घटनाओं की हम सब सार्वजनिक निंदा करें ताकि सिर्फ विचारधारा के कारण किसी सुजीत को अपनी जान न गंवानी पड़े।

(लेखिका जानी-मानी स्क्रिप्ट राइटर और ब्लॉगर हैं)