संतोष त्रिवेदी। कल सुबह ई-मेल खोली तो खुशी के मारे उछलने ही वाला था, पर घुटनों ने साथ नहीं दिया। किसी इनामी संस्था के सचिव का पत्र था। उन्होंने इस वर्ष के सम्मान देने के लिए मुझसे सुझाव मांगे थे। उत्सुकतावश संस्था का परिचय पढ़ने लगा। उसमें साफ लिखा था कि संस्था विगत 40 वर्षों से साहित्य-सेवा में अहर्निश जुटी हुई है। इस दौरान वह अनगिनत लेखकों और कवियों की झोली में सम्मान उड़ेल चुकी है। जो अपने लेखन से साहित्य-जगत में हलचल मचाने में असमर्थ होते हैं, संस्था तन और मन से उनकी सहायता करती है। जिस दिन उन्हें सम्मान दिया जाता है, उस दिन हंगामा मच जाता है।

संस्था का दावा था कि उसके द्वारा सम्मानित साहित्यकार हर गली-मुहल्ले में मिल जाएंगे। इस वर्ष उनकी संस्था 21 साहित्यकारों के मन और मान की चाह शांत करने के लिए प्रतिबद्ध है। इस पवित्र कार्य में आपसे सुझाव आमंत्रित हैं। आप अपनी संस्तुति भी दे सकते हैं। हम उस पर उदारतापूर्वक विचारेंगे। पत्र पढ़कर घुटनों को भी ‘फीलगुड’ हुआ। इतनी ऐतिहासिक संस्था न केवल सुझाव मांग रही, बल्कि मुझे भी सम्मानित करने का हौसला रखती है।

शहर के साहित्यकारों ने कभी मेरी सुध नहीं ली। जरूर इस साहित्य-सरगना को मुझमें ऐसा कुछ दिखा होगा, जो कभी मुझे नहीं दिखा। मैंने साहित्य-सेवा करने का संकल्प उठा लिया। संस्था-सचिव को कई सुझाव लिख डाले खटाखट-खटाखट। आपकी संस्था बड़ा नेक काम कर रही है। साहित्य की सबसे ज्वलंत समस्या का समाधान करने के लिए आप बधाई के पात्र हैं। बिल्कुल सही जगह आपने संपर्क साधा है। वरना आजकल पता नहीं लोग किस-किस को साध रहे हैं! रही मेरी बात, तो कई सम्मानार्थियों से मेरे वैध संबंध हैं। वे मुझे उठाते हैं, मैं उन्हें। आप नाहक परेशान हो रहे हैं। एक खोजेंगे, 21 मिलेंगे। यह मेरी गारंटी है।

अव्वल तो अब आपको 20 ही खोजने हैं। मैं आपके प्यार भरे अनुग्रह को इन्कार नहीं कर सकता। इन दिनों साहित्यकारों में सम्मान की भीषण कमी है। उनकी इस क्षतिपूर्ति के लिए आपकी संस्था का प्रयास स्तुत्य है। बहरहाल, मेरे पास कुछ अनुभव हैं, जिन्हें आपसे साझा कर रहा हूं। आपके पास जो भी संस्तुति आए, ध्यान से देखना कि उसे पहले कोई सम्मान मिला है कि नहीं। अगर नहीं मिला तो फिर रिस्क न लें। हो सकता है, उसे इसीलिए न मिला हो कि सम्मान देने वालों का वह लिहाज न करता हो। साहित्यिक-गैंगस्टर को साहित्यकार न मानता हो। ऐसे लोगों को सम्मान बांटना कुल्हाड़ी पर पैर मारना है। वह संस्था का असली उद्देश्य उजागर कर सकता है। ऐसे को सम्मानित करने का कोई औचित्य नहीं, जो सम्मान तक ठीक से हजम नहीं कर सकता। इससे बेहतर है, अपने गैंग का विस्तार करें। सम्मानार्थी को वाट्सअप ग्रुप का सक्रिय सदस्य होना अनिवार्य हो। परिवारदार आदमी हो तो सोने पर सुहागा। समारोह में श्रोताओं की संख्या की चिंता भी नहीं करनी पड़ेगी।

अब दूसरे पहलू पर ज्यादा गौर करिए। जिसके परिचय में जितने ज्यादा सम्मान हों, उन्हें वरीयता दें। इनके मुंह में सम्मान लगा होता है। नहीं मिलने पर और खूंखार हो उठते हैं। पक्षपात का आरोप और लगाएंगे। ऐसे ‘सीरियल-रिसीवर’ सरोकार से ज्यादा सम्मान के प्यासे होते हैं। बारात में फूफा के बाद सम्मान का कोई भूखा होता है तो यही हैं। गोष्ठियों में ये अपने लेखन को छोड़कर लिफाफे और शाल पर गर्व करते हैं।

दरअसल, सम्मान लेने की एक तमीज होती है। ये इसमें निपुण होते हैं। अगर भूखे-नंगों को सम्मान दोगे तो बड़ी थू-थू होगी। मेरी बात और है। मैं आलरेडी सम्मान-हीन हूं। साहित्य के लिए पूरा जीवन होम कर चुका हूं। बस, सम्मान पाने भर के लिए प्राण अटके हैं। मैंने भी बीड़ा उठाया है कि बिना अपने हिस्से का सम्मान लिए संसार नहीं छोड़ूंगा, साहित्य क्या चीज है! हां, बाकियों के बारे में थोड़ा सतर्कता बरतना। सब मेरे जैसे संकल्पशील नहीं हैं।

सम्मान न पाने पर गैंग और ग्रुप से भी भाग सकते हैं। संस्था चलानी है तो सहेजना और समेटना सीखिए। ईमानदारी से सरकार तक नहीं बचती, संस्था कैसे बचेगी! सभी सम्मानयाफ्ता लोगों की सूची बना लें। सम्मान की टोपी इन्हीं के इर्द-गिर्द घूमनी चाहिए। इनसे सहयोग वसूला जाए, ताकि संस्था के साथ इनका ‘परमानेंट बांड’ स्थापित हो सके। ध्यान रहे, समय-समय पर ‘बांड’ कैश भी कराते रहें!