[ जीएन वाजपेयी ]: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में नई मंत्रिपरिषद के गठन के बाद से तमाम जानकार मोदी सरकार को सलाह देने में लगे हुए हैैं। एक भारतीय नागरिक के रूप में मैं भी सरकार को यह सुझाव देना चाहता हूं कि शुरुआती सौ दिनों के लिए उसका एजेंडा क्या होना चाहिए। भारतीय अर्थव्यवस्था में सुस्ती के संकेत स्पष्ट रूप से झलकते हैं। रोजगार के अवसर नहीं बढ़ रहे हैं। मांग के मोर्चे पर भी फिसलन है। अमेरिका और चीन के बीच व्यापार युद्ध से वैश्विक अनिश्चितता, मंदी और मुश्किल हालात पैदा होंगे। पहले कार्यकाल में मोदी ने जीएसटी, आइबीसी, रेरा और एमपीसी जैसे कुछ एकल सुधारों पर ध्यान केंद्रित किया था। दूसरे कार्यकाल में मोदी को श्रम और भूमि सुधारों जैसे उन सुधारों पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए ताकि उत्पादकता में वृद्धि हो और भारतीय अर्थव्यवस्था को दहाई अंकों वाली जीडीपी वृद्धि के दौर में दाखिल किया जा सके। शुरुआती सौ दिनों का समग्र्र एजेंडा मुख्य रूप से अर्थव्यवस्था को मंदी की जकड़न से बाहर निकालने पर केंद्रित होना चाहिए।

अर्थव्यवस्था के तीन भाग होते हैं। प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक। प्राथमिक अर्थव्यवस्था में कृषि, द्वितीयक में विनिर्माण और तृतीयक में सेवा क्षेत्र को शामिल किया जाता है। भारत में विनिर्माण और सेवा से जुड़े बैंकिंग, बीमा, वाणिज्य, उद्योग और यहां तक कि रेल और सड़क परिवहन जैसे मंत्रालयों की गिनती भी आर्थिक मंत्रालयों में की जाती है।

जीडीपी में कृषि का योगदान भले ही 15.7 प्रतिशत हो, लेकिन देश में रोजगार के 60 प्रतिशत साधन और तकरीबन 70 प्रतिशत लोग कृषि पर निर्भर हैं। इसके बावजूद न तो इसे आर्थिक मंत्रालय का दर्जा दिया जाता है और न ही इसे खास तवज्जो दी जाती है। एक को छोड़कर किसी भी आर्थिक अखबार ने नवनियुक्त कृषि मंत्री का प्रोफाइल भी प्रकाशित नहीं किया। कृषि अर्थव्यवस्था की सुस्ती और ग्र्रामीण क्षेत्र में बदहाली स्पष्ट रूप से झलक रही है और इससे समग्र्र मांग बुरी तरह प्रभावित हो रही है। नई सरकार कृषि अर्थव्यवस्था की अनदेखी करने का जोखिम नहीं ले सकती। यदि उसने इसे नजरअंदाज किया तो ग्र्रामीण बाजार के हालात और खराब होकर अर्थव्यवस्था की तस्वीर और बिगाड़ेंगे।

कृषि मंत्रालय को भी आर्थिक मंत्रालय का दर्जा दिया जाना चाहिए और उसके विचारों, सुझावों और प्रस्तावों को भी अन्य आर्थिक मंत्रालयों जितनी तवज्जो मिलनी चाहिए। प्रधानमंत्री ने कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर को सीसीईए में शामिल कर एकदम सही किया। माना जा रहा है कि पिछली सरकार में राधामोहन सिंह अपने काम से कोई खास छाप नहीं छोड़ पाए तो इस बार प्रधानमंत्री मोदी ने तोमर को कृषि मंत्री बनाया है। ऐसे में नए मंत्री को भी वैसे ही सक्रिय हो जाना चाहिए जैसे त्वरित प्रभाव डालने के लिए वित्त मंत्री को सक्रिय होना होता है। कृषि मंत्रालय की समीक्षा भी पूरी सतर्कता के साथ निरंतर की जानी चाहिए।

बीते चार वर्षों से कंस्ट्रक्शन उद्योग कुछ ठहराव का शिकार रहा है। इसके लिए जीएसटी और रेरा जैसे सुधार भी कुछ जिम्मेदार रहे हैं। इस उद्योग का तुरंत कायाकल्प करना होगा। यह भारत में दूसरा सबसे बड़ा रोजगार प्रदाता क्षेत्र है। इस क्षेत्र को मदद पहुंचाने के लिए किफायती आवास योजना को अतिरिक्त सहारा दिया जाना चाहिए। आवासीय कंपनियों सहित इस पूरे क्षेत्र के लिए वित्तीय प्रवाह सुनिश्चित किया जाए। कंस्ट्रक्शन उद्योग करीब 150 से अधिक अन्य उद्योगों को प्रभावित करता है और कृषि क्षेत्र के साथ मिलकर यह रोजगार सृजन के मामले में बड़ा प्रभाव पैदा कर सकता है।

सड़क, बंदरगाह, रेलवे, हवाई अड्डे और अस्पताल इत्यादि के रूप में विकसित किए जा रहे बुनियादी ढांचे के विकास को और अधिक रफ्तार दी जानी चाहिए। इससे कई खस्ताहाल क्षेत्रों के हालात सुधरेंगे और नई नौकरियों के तमाम अवसर पैदा होंगे। साथ ही साथ बुनियादी ढांचे के विकास में निजी क्षेत्र को जोड़ने के प्रयास करने होंगे। बीते पांच वर्षों से इसका बीड़ा अकेले सरकार ने ही उठा रखा है।

अगले पांच वर्षों के दौरान भारत को बुनियादी ढांचे में दस लाख करोड़ डॉलर से अधिक के निवेश की दरकार है। इसकी पूर्ति सरकारी खर्च से होना असंभव है। बुनियादी ढांचे की परियोजनाओं के मामले में एक सख्त समयसीमा निर्धारित करना अनिवार्य होगा ताकि उनके क्रियान्वयन में देरी की गुंजाइश न रहे। परियोजनाओं में देरी पर दंडित करने और समय से पहले पूरी करने पर पुरस्कृत करने की व्यवस्था बनानी होगी।

हालांकि 2014 के चुनाव के बाद निजी निवेश में तेजी आई थी, मगर शुरुआती तेजी के बाद तमाम कारणों के चलते उसमें गतिरोध आ गया। शिथिल पड़े उद्योगपतियों में गर्मजोशी का भाव भरा जाना चाहिए। जब तक उनके भरोसे में बहाली नहीं होती और निजी निवेश रफ्तार नहीं पकड़ता तब तक सरकार को अपने खर्च से वृद्धि को गति देना जारी रखना चाहिए। इसके साथ ही अब समय आ गया है कि भारत राजकोषीय घाटे के बजाय संरचनागत ढांचे पर ध्यान केंद्रित करे। यह अधिक स्थायित्व वाली व्यवस्था होगी। साथ ही वित्त मंत्री को संसाधन जुटाने के मसले का भी समाधान तलाशना होगा। जीएसटी की कमियों को दूर करना और आसान एवं सरल प्रत्यक्ष कर संहिता भी सौ दिनों के एजेंडे में शामिल होनी चाहिए।

शुरुआती सौ दिनों में नकदी और तरलता की स्थिति बेहतर बनाने पर भी काम करना होगा। आइएलएंडएफ संकट के बाद से खासकर एनबीएफसी और हाउसिंग फाइनेंस कंपनियों और यहां तक कि सामान्य कंपनियों के लिए तरलता का संकट पैदा हो गया है। उधारी में भारी कमी आई है। आरबीआइ ने जरूर कुछ कदम उठाए हैं जिससे कुछ तात्कालिक राहत मिली है। हालांकि मध्यम और दीर्घावधिक उपायों के अभाव में इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है।

सरकारी बैंकों के बहीखातों में सुधार दूर की कौड़ी लगता है, लेकिन इसे युद्ध स्तर अंजाम देना होगा। फिलहाल महंगाई मुंह नहीं फैला रही है और काबू में है। इससे रिजर्व बैंक को वास्तविक ब्याज दरें 2.5 प्रतिशत तक कम करनी चाहिए। वर्ष 2003-04 में जब भारत की जीडीपी वृद्धि नौ प्रतिशत के आसपास थी तब आवासीय ऋण पर ब्याज दर 7.5 प्रतिशत थी और कारोबारियों को भी 7.5 से 7.75 प्रतिशत की दर पर कर्ज मिल रहा था।

अंतरराष्ट्रीय व्यापार युद्ध से भारत के लिए बने अवसरों को भुनाने के लिए वाणिज्य मंत्री पीयूष गोयल को तेजी से प्रयास करने चाहिए। साथ ही अमेरिकी प्रतिबंधों का भी तोड़ निकालना होगा। अवसरों की यह खिड़की हमेशा नहीं खुली रहेगी। गोयल काबिल मंत्री रहे हैं, लेकिन अब उन्हें एक कुशल राजनयिक वाली भूमिका भी निभानी होगी। राज्य मंत्री के रूप में हरदीप पुरी उनके बहुत काम आएंगे।

सौ दिवसीय एजेंडे की सफलता ही मंत्रियों के उनके पदों पर बने रहने का पैमाना बनाई जानी चाहिए। खराब प्रदर्शन करने वालों को बाहर का रास्ता दिखाना होगा। व्याकुल भारत ने मोदी में भारी भरोसा दिखाया है और उसे उम्मीद है कि मोदी उम्मीदों पर खरे उतरेंगे। सौ दिनों का प्रदर्शन इस भरोसे पर खरा उतरना चाहिए।

( लेखक सेबी और एलआइसी के पूर्व चेयरमैन हैं )

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