[अर्चना चतुर्वेदी]। उन दिनों साहित्य में हमारा पदार्पण हुए ज्यादा वक्त नहीं गुजरा था, इसलिए साहित्य की दुनिया से हम लगभग अनभिज्ञ थे। एक दिन हमने फेसबुक पर एक साहित्यिक परिचर्चा की सूचना पढ़ी। विषय बहुत ही अलग था, इसलिए उस कार्यक्रम में जाने की इच्छा इतनी बलवती हुई कि हम ठीक समय से कुछ पहले ही जा पहुंचे। कार्यक्रम शाम चार से छह बजे तक था। वक्ता के तौर पर आने वाले लोगों की सूची में बड़े-बड़े साहित्यकारों के नाम थे, जिनको हम पत्रिकाओं और समाचार पत्रों के माध्यम से ही जानते थे।

हमें लगा कि सही समय पर दिन के उजाले में कार्यक्रम में भागीदारी हो जाएगी और साहित्य के बारे में कुछ नया सीखने को भी मौका मिलेगा। हम कार्यक्रम में समय से पूर्व पहुंच गए थे इसलिए आगे की सीट मिल गई। कार्यक्रम शुरू होने के एक घंटे बाद तक यानी पांच बजे तक तो लोग चाय-नाश्ता ही करते रहे। चार बजे शुरू होने वाला कार्यक्रम आखिरकार साढ़े पांच पर शुरू हुआ।

फिर एक-एक करके सभी साहित्यकारों को उनके लंबे परिचय के साथ मंच पर बैठा दिया गया। संचालक जी तो बस बोलते जा रहे थे। दुनिया भर की बातें करने के बाद सहसा उनको दीप प्रज्वलन की याद आई। उसके बाद मंच पर विराजमान गणमान्य अतिथियों का स्वागत शुरू हो गया और इस सब चीजों में आधा-पौना घंटा और निकल गया। अब हमारी बेचैनी बढ़ रही थी। हमने पतिदेव को मैसेज कर दिया कि 'कार्यक्रम लेट शुरू हुआ है, सो घर पहुंचने में लेट होंगे।’

हम कार्यक्रम छोड़कर जाना नहीं चाहते थे, क्योंकि बड़े साहित्यकारों को सुनना चाहते थे जिसमें 'व्यंग्य के सौंदर्यशास्त्र' पर बात होनी थी। अंतत: चर्चा शुरू हुई। एक वक्ता माइक पर आए, फिर दूसरे, तीसरे वक्ता आए, पर बड़ी अजीब बात यह थी कि मुख्य विषय पर तीनों में से किसी ने कुछ भी नहीं कहा। ऐसा लगा मानो उनकी गाड़ी पटरी से उतर खेतों में भ्रमण को निकल गई थी। अब हम और परेशान होने लगे, यह सोचकर कि ‘सामने जो विषय लिख रखा है उस पर तो कोई बात ही नहीं कर रहा।' दस मिनट बोलने के लिए कहा जाता है, लेकिन आधा घंटा बोलते हैं, फिर भी तय विषय पर नहीं बोलते हैं। हमारी बेचैनी बढ़ती जा रही थी और उम्मीद थी कि टूट नहीं रही थी।

हम सोच रहे थे आज तो 'व्यंग्य का सौंदर्यशास्त्र' समझकर ही जाएंगे। शेष बचे दो वक्ता भी आए, परंतु मेरी जिज्ञासा पूरी न कर सके। तब तक घड़ी ने रात के नौ बजा दिए। हम सब वक्ताओं की बातों में व्यंग्य के सौंदर्य और शास्त्र दोनों को खोज रहे थे। कमाल की बात यह थी कि मौसम, पहाड़ों के सौंदर्य के साथ महिलाओं के सौंदर्य की बात तो हुई, पर बात नहीं हुई तो व्यंग्य के सौंदर्य की। तभी कार्यक्रम के समापन की घोषणा हो गई। हमारा मन बुझ गया। इस सौंदर्य शास्त्र के चक्कर में हमारा सुंदर चेहरा भी मुरझाने लगा था। हम खुद को ठगा-सा महसूस कर रहे थे। जैसे-तैसे भारी कदमों से बाहर की ओर निकले।

हमने एक लेखक जी से धीरे से कहा कि 'विषय पर तो कोई बोला ही नहीं।' हमारी बात सुनकर वह जोर से हंसे और बोले, 'क्या आप इस उम्मीद में आई थीं कि विषय पर बोलेंगे? अजी मैडम ये सब साहित्यकार हैं। ये तो किसी की पुस्तक के विमोचन में भी जाते हैं तो वहां अपनी बात करते हैं। उस पुस्तक की बात नहीं करते, जिसका विमोचन हो। यदि विषय पर बोलेंगे तो काहे के बड़े साहित्यकार। विषय पर हम जैसे नवांकुर बोलते हैं।

बड़े साहित्यकार तो विषय के आस-पास आने में भी अपनी तौहीन समझते हैं। कोई बात नहीं, अभी आप साहित्य में नई हैं, सीख जाएंगी, विषय से भटकना और लोगों को भटकाना भी सीख जाएंगी और अपने मनपसंद विषय पर लटकना भी सीख जाएंगी।' वह महाशय हमें ज्ञान दे अपने गंतव्य की ओर बढ़ गए और इधर हम आटो में सवार हो घर की ओर चल दिए। व्यंग्य का सौंदर्यशास्त्र अब तक हमारे मन-मस्तिष्क के सौंदर्य को बिगाड़ चुका था।