[संतोष त्रिवेदी]। मेरे एक परम मित्र हैं, जो पहुंचे हुए आलोचक हैं। साहित्य और राजनीति में उनका एक समान दखल है। जब भी उन्हें लगता है कि कुछ गलत हो रहा है, 'फायरिंग' करने मेरे पास आ जाते हैं, पर कल तो गजब हो गया। वे नहीं आए, उनका फोन आ गया। 'हलो' कहते ही शुरू हो गए, 'भाई, बात ही कुछ ऐसी है कि मिलने का इंतजार नहीं कर सकता। जब तक तुम्हें बताने आऊंगा, तब तक सारी 'गर्मी' निकल जाएगी। इसलिए सोचा फोन पर ही निपट लेते हैं।' मैंने पूछा, 'क्या बात है दोस्त? उधर पानी नहीं गिर रहा क्या?'

मित्र के लहजे में अचानक तल्खी आ गई। मेरे ऊपर बरसने लगे, 'पानी गिर रहा हो या न गिर रहा हो, रुपया रोज गिर रहा है। बाजार गिर रहा है। हम भी कब तक बचेंगे?' ऐसा कहकर वे लंबी-लंबी सांसें लेने लगे। 'तुम भी जल्द गिरने वाले हो मित्र! सुना है, इस साल का 'सूरमा भोपाली' सम्मान तुम पर ही गिरने जा रहा है। बिल्कुल अंदर की और सौ टका पक्की खबर है।' मैंने यूं ही हवा में तीर चलाया। वे कराह उठे-'कभी तो 'सीरियस' रहा करो दोस्त! होटलों में सरकार गिर रही है और सड़क पर संगठन। सारे देश में गिरावट का दौर है और तुम्हें मसखरी सूझ रही है। बड़ी गंभीर स्थिति है। देश को बचाने के लिए हमें एक होना होगा।' उन्होंने अपना फरमान सुना दिया।

यह सुनकर मेरा सिर चकरा गया। सनद रहे, यह वही सिर है, जिसके ऊपर 'आलरेडी' जमाने भर का भार लदा है। उसी पर आलोचक-मित्र ने 'गिरावट' बचाने का भार भी लाद दिया। मैंने उन्हें बताया, 'इससे भी बड़ी और ताजा खबर हमारे पास है। साहित्य का 'भुखर-सम्मान' घोषित हुआ है। इस बार यह सम्मान दूसरे गुट के 'प्रखर लखनवी' ले उड़े हैं, जिनकी पिछली किताब की तुमने धज्जियां उड़ाई थीं। अब वही तुम्हें गिरा हुआ आलोचक साबित करने पर तुले हैं।

यह सुनकर मित्र हिल गए। कहने लगे, 'पहले मुझे संदेह था अब भरोसा हो गया है। तुम भी पूरी तरह गिर चुके हो। मैं तो अपनी 'मानहानि' की कहीं न कहीं भरपाई कर ही लूंगा। फिलहाल मुझे अपनी नहीं, देश और समाज की चिंता है। लोकतंत्र में साहित्य की गरिमा गिरी है। अब से लोकतंत्र के मंदिर में किसी को कोई चोर-उचक्का नहीं कह सकता। यहां तक कि पाखंडी, बेशर्म, भ्रष्ट और मूर्ख कहना वर्जित है। ये सारे शब्द अब बेहद शरीफ हो गए हैं। सड़क पर किसी को 'गुंडा' कह दो तो उसे 'टिकट' मिल जाता है। वही टिकट लेकर वह 'माननीय' हो जाता है। सड़क पर इन शब्दों से कोई बुरा तक नहीं मानता। ऐसे 'पवित्र' शब्दों को सदन में गिरने से रोका जा रहा है। कहते हैं इससे संसदीय गरिमा गिरती है। ऐसे शब्दों के जीते-जागते प्रतिमान वहां सशरीर बैठ तो सकते हैं, पर ये निर्जीव 'शब्द' सदन में नहीं घुस सकते। यह साहित्य के विरुद्ध सियासत की साजिश नहीं तो और क्या है? इसके विरुद्ध हमें मिलकर लडऩा होगा। तभी हम अपने हिस्से का सम्मान खींच पाएंगे।' उनकी आवाज कमजोर होती हुई महसूस हुई।

उधर मित्र ने फोन 'होल्ड' पर धर दिया। मैं मन ही मन खुद को कोसने लगा। मूल्यों की गिरावट इतनी हो गई और मुझे टमाटर तक के दाम गिरने की खबर नहीं मिली। खुद को गिरा हुआ फील करता, तभी उधर से उनकी चहकती हुई आवाज सुनाई दी, 'दोस्त, तुम्हारा लेखन भले 'टू जी' स्तर का हो, नेटवर्क बिल्कुल 'फाइव जी' टाइप है। तुम्हारी खबर पक्की निकली। अभी भोपाल से ही फोन आया था। वे बस मुझे सम्मानित करने की सहमति चाहते थे। अब इतना भी गिरा हुआ नहीं हूं कि सामने से आ रहे सम्मान-प्रस्ताव को ठुकरा दूं! इसलिए मैंने बड़ी विनम्रता से उनको 'हां' कर दी। अब बस बैंक जा रहा हूं।'

मैंने उन्हें बीच में टोका, 'मगर इस समय बैंक जाने की क्या जल्दी है?' मित्र तुरंत बोल उठे, 'भई, 'आधुनिक सम्मान' है। उसे पाने में 'तन-मन-धन' से लगना पड़ता है। यह बस सामान्य प्रक्रिया है। तुम नहीं समझोगे। कभी सम्मानित हुए हो तो जानो!' इतना कहकर वे निकल लिए और मैं तभी से साहित्य में अपनी गिरावट पर चिंतन कर रहा हूं। उनकी बात सोलह आना सच निकली। वाकई गिरावट की कमी नहीं है देश में!