विकास के दोराहे पर मनुष्य, मानव का वजूद प्रकृति से है न कि प्रकृति का अस्तित्व मानव से
महात्मा गांधी ने कहा था कि पृथ्वी हर मनुष्य की जरूरत को पूरा कर सकती है परंतु पृथ्वी मनुष्य के लालच को पूरा नहीं कर सकती है। आज हमें इस सीख को अपनाने को संदेश दे रहा है।
डॉ. सुरजीत सिंह गांधी। कोरोना वायरस के संक्रमण से उत्पन्न बीमारी कोविड-19 ने आज मानव जाति के इस विश्वास को पस्त कर दिया है कि हम तो आधुनिक विज्ञान के उस दौर में जी रहे है जहां विज्ञान हमारे समक्ष मौजूद संकटों का कुछ न कुछ समाधान ढूंढ ही लेगा। वह यह भूल जाता है कि प्रकृति की ऐसी हर करवट हमें जागने का संकेत देती है। 18वीं शताब्दी में प्लेग, 19वीं शताब्दी में हैजा, 20वीं शताब्दी में स्पेनिश फ्लू जैसी महामारियों के रूप में प्रकृति ने समय-समय पर हमारे सामने अपने क्रोध का इजहार किया है। इन महामारियों में लाखों लोग काल के ग्रास बने थे।
फिर 21वीं शताब्दी के 2000 में सार्स वायरस और 2003 में एच1एन1 ने हमें चेतने का अवसर दिया, परंतु हमने इसे भी गंभीरता से नही लिया, जिसके परिणामस्वरूप अब 2019 में कोरोना वायरस ने घातक आपदा के रूप में दस्तक दी। 2019 का समापन होते ही इस आपदा ने धीरे-धीरे करके पूरी दुनिया में अपना सिर उठा लिया। देखते ही देखते लाखों लोग उसके चपेट में आ गए और हजारों की मौत हो गई।
कोरोना वायरस के कारण मानव के जीवन में इतना दुख, इतनी पीड़ा और इतना अवसाद बढ़ गया है कि आज प्रौद्योगिकी एवं विज्ञान भी उसके सामने अपने को असहाय महसूस कर रहे हैं। समय-समय पर ऐसी महामारियों के आने का प्रमुख कारण है मानव का प्रकृति से संबंध विच्छेद। चीन के वुहान शहर में जानवरों के मांस की एक बड़ी मंडी है। कोविड-19 विषाणु अमूमन जंगल में रहने वाले जीवों में होता है। माना जा रहा है कि यह जंगली चमगादड़ों के जरिये वुहान के खाद्य बाजार के उन जानवरों के संपर्क में आया जिन्हें चीन के लोग खाते हैं।
दरअसल चीन में इन जानवरों को खाद्य पदार्थ के रूप में औद्योगिक रूप से तैयार किया जाता है। अब मनमाने मांसाहार के बुरे नतीजे सबके सामने हैं। इससे एक बात साफ होती है कि परिस्थितिकी के एक हिस्से में छोटी-सी हलचल दूसरे हिस्सों में तबाही ला सकती है। हम विकास के नाम पर पृथ्वी को बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं, फिर बात चाहे पर्यावरण की हो, प्राकृतिक संसाधनों की हो या फिर जैव विविधता की। हमारी लालच भरी कारगुजारियों का ही यह नतीजा है कि धरती पर मौजूद तमाम जीवों के विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। कई तो विलुप्त भी हो चुके हैं।
कोविड-19 के विस्तार का पहला और व्यापक कारण है पारिस्थितिकी संकट। पृथ्वी पर सभी जीव-जंतुओं का अस्तित्व बनाए रखने के लिए जैव विविधता बुनियादी आवश्यकता है। इसके लिए वैश्विक स्तर पर व्यापक एवं समन्वित योजना बनाने की जरूरत है। इस संबंध में संयुक्त राष्ट्र की जैव विविधता की रिपोर्ट हमें आईना दिखाती है कि जल्द ही कदम न उठाए गए तो मनुष्य को इसकी बड़ी कीमत चुकानी पड़ सकती है। अब भी हम नहीं संभले तो मानव जीवन बहुत बड़े संकट में फंस सकता है। आज हमें प्रकृति का संदेश समझने की आवश्यकता है कि ठहरिए, समझिए, विचारिए अन्यथा पृथ्वी को आप विनाश की तरफ ले जा रहे हैं। दरअसल विकास के नाम पर पर्यावरण से छेड़छाड़ का ही परिणाम है कि आज पर्यावरण क्षति, जलवायु परिवर्तन, कार्बन उत्सर्जन, ग्लोबल वार्मिंग, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, जल प्रदूषण, वायु प्रदूषण, ध्वनि प्रदूषण, तापीय प्रदूषण आदि भयानक समस्याएं उत्पन्न हो रही हैं।
अमेजन और ऑस्ट्रेलिया के जंगलों में लगी आग की वजह से जंगली जानवरों की मौत भी इंसानों की लापरवाही का ही परिणाम है। उद्योगीकरण के बढ़ने के साथ जंगलों की बेतहाशा कटाई ने इंसान एवं जीवों को आमने-सामने ला खड़ा कर दिया है। आज तेंदुए, हाथी आदि जानवरों का मनुष्य की बस्तियों एवं शहरों में आना, बंदरों की टोलियों द्वारा मानव बस्तियों में घुसना बेवजह नहीं है। उत्पादन की नई तकनीकों के कारण इन दिनों बड़ी संख्या में मुर्गियों, सुअरों एवं अन्य पशुओं को बड़ी तंग जगह में रखा जाता है, जिससे संक्रमण का खतरा उतना ही अधिक बढ़ जाता है। जानवरों से संबंधित मीट उद्योग ने भले ही खाद्य सुरक्षा को बढ़ाया है, परंतु इससे फैलने वाले स्वाइन फ्लू, एवियन फ्लू एवं अन्य बीमारियों से बचने के लिए हमारे पास सुरक्षा कवच कमजोर है।
कोरोना वायरस के संकट ने मनुष्य को उसके विकास के पुनर्मूल्यांकन के दोराहे पर खड़ा कर दिया है। आज हमें विकास के नए मापदंड अपनाने होंगे। कोरोना के बाद नई दुनिया का विकास पर्यावरण संरक्षण के साथ हो, जिससे वन्य प्राणियों के पर्यावास पर विशेष ध्यान दिया जा सके। खाद्य सुरक्षा के अंतर्गत आने वाले पशु-पक्षियों में संक्रमण न फैले, इसके लिए उनके रखरखाव संबंधी नए कानून बनें एवं जो कानून मौजूद हैं उनका कड़ाई से पालन हो जिससे फ्लू जैसी बीमारियों को रोका जा सके। हमें अपनी आहार शैली बदलने की सख्त जरूरत है। हमें यह तय करना होगा कि हम क्या खा सकते हैं और क्या नहीं?
मानव का वजूद प्रकृति से है न कि प्रकृति का अस्तित्व मानव से है। इस सच्चाई को जब तक मनुष्य स्वीकार नहीं करेगा, उसकी जीवनशैली में बदलाव भी नहीं होगा। इसके लिए मनुष्य को अधिक संवेदनशील होना होगा और वैश्विक समाज को एकजुट होकर काम करना होगा। साथ ही प्रकृति को अपने एक अंग के रूप में स्वीकार करना होगा। महात्मा गांधी ने कहा था कि पृथ्वी हर मनुष्य की जरूरत को पूरा कर सकती है, परंतु पृथ्वी मनुष्य के लालच को पूरा नहीं कर सकती है। कोरोना का संकट आज हमें इस सीख को अपनाने को संदेश दे रहा है।
(लेखक बीएसएम पीजी कॉलेज, रुड़की में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं)