शांति और स्थिरता के वाहक देश के के तौर पर अपनी लंबी यात्र पूरी करने के बाद भारत अब एक वैश्विक ताकत के रूप में उभरने केलिए तैयार दिख रहा है। इस उभार में दुनिया के इस सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए रक्षा उत्पादन में आत्मनिर्भरता हासिल करना एक आवश्यक शर्त है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में कहा कि मेरे सिर्फ तीन एजेंडे हैं-विकास, तेज गति से विकास और चारों ओर विकास। हमने बीते एक साल के दौरान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस विचार को साकार करने की दिशा में रिलायंस डिफेंस के माध्यम से अथक प्रयास किए हैं।

रक्षा क्षेत्र में हमारी यात्र पीपावाव शिपयार्ड के अधिग्रहण से आरंभ हुई जिसका नाम बदलकर रिलायंस डिफेंस एंड इंजीनियरिंग लिमिटेड कर दिया गया है। इस शिपयार्ड को विश्व स्तरीय सुविधाओं से लैस किया गया है। हम नागपुर के मिहान में भारत का पहला इंटिग्रेटेड धीरूभाई अंबानी एयरोस्पेस पार्क बना रहे हैं। इसके अलावा इंदौर के पीथमपुर में धीरूभाई अंबानी लैंड सिस्टम पार्क का भी निर्माण कर रहे हैं। इसके अलावा हम बेंगलुरु में विश्व स्तरीय धीरूभाई अंबानी सेंटर फॉर इनोवेशन एंड रिसर्च इन एयरोस्पेस और इंदौर में सेंटर ऑफ एक्सीलेंस इन लैंड सिस्टम एंड नेवल एप्लीकेशन के निर्माण के लिए प्रतिबद्ध हैं। रिलायंस डिफेंस को विभिन्न रक्षा उपकरणों और प्रणालियों के निर्माण के लिए 12 औद्योगिक लाइसेंस मिले हैं। बीते एक साल के दौरान हमने सैन्य उपकरणों के निर्माण के लिए विश्व की कई जानी-मानी रक्षा कंपनियों के साथ रणनीतिक सहयोग स्थापित किया है। इस तरह हम प्रधानमंत्री के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम मेक इन इंडिया को जमीन पर उतारने में अग्रणी भूमिका निभाने की ओर कदम बढ़ा चुके हैं।

गौरतलब है कि सरकार की ओर से नई रक्षा खरीद नीति का अनावरण इसी साल संपन्न हुए डिफेंस एक्सपो में किया गया। इसके माध्यम से भारत की रक्षा नीति का पूरी तरह से कायापलट किया गया है। इसके मूल में देश में निवेश का माहौल निर्मित करना है। इसके लिए एफडीआइ के नियमों में छूट देने से लेकर रक्षा संबंधी लाइसेंस को सरल बनाया गया है। साथ ही टैक्स सुधार से लेकर एमआरओ के लिए प्रोत्साहन का प्रावधान भी किया गया है। इस प्रकार नई नीति में कई बड़े कदम उठाए गए हैं। इसमें रक्षा खरीद के लिए कम कीमत के बजाय गुणवत्ता को मुख्य आधार बनाया गया है। रणनीतिक सहयोग कायम करने की सोच एक अच्छा विचार है। यह सही ही कहा जाता है कि एक विश्वसनीय रक्षा नीति का निर्माण तब तक नहीं किया जा सकता जब तक निजी क्षेत्र को रणनीतिक सहयोगी के रूप में शामिल नहीं कर लिया जाए।

इस नीति की भावना का मैं भी कायल हूं, लेकिन हमारी रक्षा नीतियां भी अंतरराष्ट्रीय स्तर की होनी चाहिए। दुनिया के विकसित देशों ने रक्षा क्षेत्र के लिए जो रास्ता अपनाया है वैसा ही रास्ता हमें भी अख्तियार करना होगा। दरअसल सक्षम निजी कंपनियों को एक या दो क्षेत्रों तक सीमित करने का प्रस्ताव चिंता का विषय है। यह विभाजन रक्षा उद्योग को अकुशल बना देगा। उदाहरण के लिए कहीं-कहीं पानी के ऊपर और पानी के नीचे जहाज निर्माण कार्य को सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की कंपनियों में विभाजित किया जाता है। फ्रांस से लेकर जर्मनी और ब्रिटेन जैसी कुछ अंतरराष्ट्रीय शक्तियों ने इस तरह की व्यवस्था अपनाई हुई हैं, क्योंकि इसमें निवेश करना अलाभकारी होता है। बहरहाल हमें वायु, थल और जल में बिना किसी प्रतिबंध या विभाजन के खुली प्रतियोगिता की नीति अपनानी चाहिए।

खुली नीति यथास्थिति को तोड़ेगी, मौजूदा उत्पादकों के एकाधिकार को खत्म करेगी और नए उत्पादकों का प्रवेश इस क्षेत्र में प्रतियोगिता को बढ़ाएगा। सरकार द्वारा मौजूदा ब्लैक लिस्ट से संबंधित नियमों की समीक्षा एक सकारात्मक कदम है। नए फ्रेमवर्क में पूरे समूह के बजाय गुमराह करने वाली कंपनियों को दंड का प्रावधान होना चाहिए। पहली गलती के लिए वित्तीय दंड और समझौते का विकल्प जरूर होना चाहिए। ब्लैक लिस्ट करना एक बुरा उपचार है। यह बीमारी से बढ़कर है। यह न सिर्फ तकनीक के विकल्प को सीमित करता है, बल्कि लागत को बढ़ाता और एकाधिकार पैदा करता है। यह कुछ लोगों को अधिकारों का दुरुपयोग करने का भी अवसर प्रदान करता है।

सरकार ने सभी प्राकृतिक संसाधनों जैसे कि स्पेक्ट्रम, कोयला, खनिज आदि की बिक्री सार्वजनिक नीलामी के जरिये करके पारदर्शिता के नए मानक स्थापित किए हैं। ऐसी ही पारदर्शिता रक्षा खरीद में भी जरूरी है। नॅामिनेशन के जरिये खरीदारी की प्रथा अपवाद स्वरूप होनी चाहिए। जहां नॅामिनेशन अनिवार्य है वहां भी अब निजी कंपनियों को प्रवेश मिलना चाहिए।

बीते 22 माह में रक्षा खरीद परिषद ने दो लाख करोड़ रुपये से अधिक के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। गौर से देखें तो पाएंगे कि सेना की तत्काल जरूरतों के कारण इनमें से कई अनुबंध दोबारा किए गए हैं या फिर वे सरकारों के बीच हुए हैं। सार्वजनिक क्षेत्र की पोत निर्माण कंपनियां 1.5 लाख करोड़ रुपये से अधिक के ऑर्डर बुक कर चुकी हैं, जबकि बीते दो सालों के दौरान उनकी सालाना उत्पादन क्षमता सिर्फ छह हजार करोड़ रुपये तक ही रही है। इस दर पर अभी किए गए ऑर्डर की पूर्ति करने में उन्हें बीस साल से अधिक का समय लग जाएगा। यह तब है जब भारतीय नौसेना द्वारा अगले पंद्रह सालों में तीन लाख करोड़ रुपये के साजो-सामान की खरीद की योजना है। हम सार्वजनिक कंपनियों की मौजूदा क्षमताओं का सम्मान करते हैं और उनके अनुभवों से सीखने के लिए तैयार हैं। इन कंपनियों के पास रक्षा कार्यो को आउटसोर्स करने का सुनहरा अवसर है। निजी क्षेत्र को उनके साथ काम करने में काफी खुशी होगी। निराशाजनक यह है कि निजी क्षेत्र की कंपनियों में अनुभव की कमी को मुद्दा बनाया जा रहा है। यह प्रतियोगिता पर हमला करने के समान है।

राष्ट्रीय सुरक्षा को चुस्त-दुरुस्त करने के लिए निजी क्षेत्र को उचित अवसर मिलना चाहिए। कोई भी अनुभव की महत्ता से इनकार नहीं करेगा, लेकिन एक सफल उद्यम खड़ा करने के लिए कई अन्य कारक जैसे क्षमता, योग्यता और प्रतिबद्धता की भी जरूरत होती है। मेरे पिता धीरूभाई अंबानी कभी केमिकल इंजीनियर या तकनीशियन नहीं रहे और न ही उनके पास तेल और गैस क्षेत्र में काम करने का कोई पूर्व अनुभव था। बावजूद इसके उन्होंने दुनिया की सबसे बड़ी रिफाइनरी और पेट्रो केमिकल कंपनियों का निर्माण किया।

आज रक्षा क्षेत्र में क्रांति लाने और आत्मनिर्भर होने के लिए देश में सभी जरूरी कारक मौजूद हैं, लेकिन इस दिशा में हम तभी सफल हो सकते हैं जब हम संयुक्त उपक्रम बनाने और तकनीक ट्रांसफर के लिए एफडीआइ की उदार व्यवस्था लागू करेंगे। यह भारत की निजी कंपनियों को रक्षा क्षेत्र की अंतरराष्ट्रीय कंपनियों के साथ जुड़ने का अवसर प्रदान करेगा। हमें सरकार के भरोसे और विश्वास की दरकार है ताकि हम अपनी पूरी क्षमताओं का इस्तेमाल कर सकें और देश की सुरक्षा में सहयोग दे सकें, क्योंकि अर्थव्यवस्था के दूसरे क्षेत्र के विपरीत रक्षा क्षेत्र में सिर्फ सरकार ही खरीदार होती है।

[ लेखक अनिल धीरूभाई ,अंबानी समूह के प्रमुख हैं ]