इन दिनों देश में त्योहारों के चलते उत्साह और उल्लास का माहौल है। ऐसे ही माहौल में बीते दिनों वाराणसी में गणेश प्रतिमाओं के विसर्जन को लेकर एक दुर्भाग्यपूर्ण पर गैर-जरूरी विवाद खड़ा हो गया। इसे टाला जा सकता था। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने गंगा में मूर्तियों के विसर्जन पर रोक लगा दी थी और सरकार को मूर्तियों के विसर्जन के लिए कोई दूसरी वैकल्पिक व्यवस्था करने के लिए कहा था। कोर्ट के फैसले से कुछ लोग और साधु नाराज हो गए, जबकि निरंतर मैली होती गंगा-यमुना और सैकड़ों नदियों को साफ करने के लिहाज से यह अहम फैसला था। देश की नदियों में गणेशोत्सव से लेकर दुर्गा पूजा और काली पूजा तक लाखों मूर्तियों को नदियों और समुद्र में विसर्जित किया जा रहा है। अब यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि इन मूर्तियों को नदियों में विसर्जित करके हम इन्हें और गंदा कर रहे हैं। दोनों बातें एक साथ नहीं चल सकतीं कि एक तरफ हम नदियों को साफ करने का संकल्प लें और दूसरी ओर उन्हें भिन्न-भिन्न तरीकों से गंदा करते रहें। पर्यावरणविद् और नदियों को सफाई करने की दिशा में जुझारू प्रतिबद्धता से लगे हुए जानकार नदियों-समुद्र में मूर्ति विसर्जन की परंपरा पर विराम लगाने की पुरजोर मांग कर रहे हैं। अब इस मांग से समूचे भारतीय समाज को जोडऩा होगा। एक दौर में मूर्तियां मिट्टी की बनती थीं। उन पर स्वाभाविक वनस्पतियों से बने रंग किए जाते थे। अब मूर्तियां पत्थर, प्लास्टिक, फाइबर, ग्लास, अन्य रासायनिक वस्तुओं और धातुओं की भी बनने लगी हैं। कुछ मूर्तियां पत्थर से भी बन रही हैं। उन पर खतरनाक जानलेवा रसायनों से तैयार रंग किए जाते हैं। ये सब अंतत: नदियों में ही पहुंचते हैं।

पर्यावरण के क्षेत्र में सक्रिय टाक्सिक लिंक नाम की संस्था के मुताबिक भारत में हर साल करीब एक लाख से ज्यादा मूर्तियां नदियों में विसर्जित की जाती हैं। कल्पना कीजिए कि इतनी मूर्तियों के नदियों में जाने से उनके साथ हम कितना अन्याय कर रहे हैं। नदियों में बढ़ते प्रदूषण से जलजीवों का जीवन भी खतरे में पड़ता है। कई नदियों से डाल्फिन, घडिय़ाल, कछुए आदि समाप्तप्राय से हो गए हैं। कुछ साल पहले केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) ने दुर्गा पूजा की मूर्तियों के हुगली नदी में विसर्जित करने के असर पर एक अध्ययन किया था। उसके मुताबिक, हर साल दुर्गा पूजा के अंत में करीब 15 हजार मूर्तियां हुगली में विसर्जित की जाती हैं। इसके चलते करीब 17 टन वार्निश और बड़ी मात्रा में रंग हुगली के जल में मिलता है। इन रंगों में मैगनीज, सीसा, क्रोमियम जैसे धातु मिले होते हैं। दुर्गा पूजा के बाद हुगली में जहरीले तेल और ग्रीस की मात्रा में भारी इजाफा हो जाता है। कायदे से तो इलाहाबाद हाई कोर्ट का नदियों में मूर्तियों के विसर्जन करने पर रोक लगाने संबंधी फैसला देश भर के लिए नजीर बनना चाहिए। अफसोस है कि यह नहीं हुआ। कुछ साल पहले तक दुर्गा पूजा के दौरान ही नदियों में मूर्तियों को विसर्जित किया जाता था, लेकिन अब एक नया चलन यह देखने में आ रहा है कि गणेशोत्सव के समय उत्तर भारत में भी हजारों मूर्तियों को नदियों में विसर्जित किया जाने लगा है। पहले गणेशोत्सव महाराष्ट्र और कुछ दूसरे निकटवर्ती राज्यों तक सीमित था। अब इसने अखिल भारतीय स्वरूप ले लिया है। इस बार दिल्ली में गणेशोत्सव के दौरान हजारों गणेश प्रतिमाएं यमुना में विसर्जित हुईं। पहले गणेशोत्सव फिर दुर्गा पूजा और काली पूजा के बाद मूर्तियों के नदियों में विसर्जित करने से गंगा, यमुना और दूसरी नदियों को हम पूरी तरह से नष्ट कर रहे हैं। समय के साथ मूर्तियों का नदियों में विसर्जन बढ़ता जा रहा है।

श्रद्धालुओं को समझना होगा कि अगर हम प्रकृति का ही सम्मान नहीं कर सकते तो फिर ईश्वर का सम्मान करने की बात कैसे कर सकते हैं? अगर बात गंगा की करें तो इसके किनारे देश की 43 फीसद आबादी बसी हुई है। यह विश्व का अधिकतम मानव घनत्व वाला क्षेत्र है। ऋषिकेश, हरिद्वार, कानपुर, इलाहाबाद, बनारस, पटना, भागलपुर, कोलकाता जैसे कई महत्वपूर्ण और बड़े-बड़े नगर गंगा के किनारे बसे हुए हैं। इन नगरों में सैकड़ों कल कारखाने हैं। इनसे निकलने वाला सारा कचरा और केमिकल सब गंगा में ही जाता है। उसके बाद मूर्तियां भी इसमें डाली जाती हैं। क्या इसके बाद गंगा सफाई को लेकर कोई आंदोलन चलाने का कोई उद्देश्य बच जाता हैं? पिछले साल कानपुर के पास उन्नाव में गंगा नदी में सौ से ज्यादा लाशें मिलीं। मालूम चला कि कुछ समुदायों के लोग मृतकों को जलाने के बदले लाशें नदी में बहा देते हैं। इन सब परंपराओं को बंद करना ही होगा। गंगा को बचाने के लिए भगीरथ प्रयास की आवश्यकता है।

नदियों को साफ करना सिर्फ सरकारों का ही दायित्व नहीं हो सकता। अब समाज के जाग जाने का वक्त आ गया है। वैसे भी इसमें अब काफी देरी हो चुकी है। बीते तीन दशकों में चले गंगा सफाई के तीन बड़े अभियानों की विफलता से सरकार ने सबक सीखा है। लिहाजा सरकार ने गंगा सफाई परियोजना को सरकारी के बजाय सामाजिक बनाना तय किया है। सरकार चाहती है कि गंगा को स्वच्छ बनाए रखने का जिम्मा इसके किनारे रहने वाले और इसकी आस्था में लगे लोग खुद ही संभालें। अपने देश में नदियों को सिर्फ नदी के रूप में ही नहीं देखा जाता। वे भारतीय जनमानस की आस्था और आध्यात्मिकता की प्रतीक भी हैं, लेकिन एक तरफ हम इन्हें पूजनीय मानते हैं और दूसरी तरफ गंदा करके उनका अपमान भी करते हैं। कुछ समय पहले संगम तट पर जब साधु-संतों ने गंगा में बढ़ते प्रदूषण पर विचार-विमर्श किया तो यह पाया कि गंगा तट पर बने मंदिरों के फूलों से भी प्रदूषण बढ़ रहा है। इस पर यह तय किया गया कि अब हनुमान जी के चरणों में समर्पित फूल संगम में न डाले जाएं। समस्या थी कि इन फूलों का क्या किया जाए? सुझाव आया कि फूलों से खाद बनाई जाए। विशेषज्ञों से बातचीत के बाद खाद बनाने की प्रक्रिया शुरू हो गई। इसी प्रकार बुलंदशहर जिले की एक पंचायत ने यह फैसला लिया कि किसी का शवदाह गंगा तट पर नहीं करके गांव के खेत में ही किया जाएगा। सभी को ऐसी ही कोशिश करनी होगा। एक बार कोशिश करें, सफलता मिलेगी।

[लेखक आरके सिन्हा, भाजपा के राज्यसभा सदस्य हैं]