नई दिल्ली [सी उदयभास्कर]। कार्ल माक्र्स यकीनन ऐसे विचारक थे जिन्होंने दुनिया पर अपनी बहुत ही गहरी छाप छोड़ी। पांच मई को उनकी दो सौवीं जयंती मनाई गई। इस अवसर पर दुनियाभर में तमाम कार्यक्रम आयोजित हुए। इन कार्यक्रमों की तस्वीर इसी बात पर निर्भर थी कि वहां पिछले सौ वर्षों के दौरान माक्र्स को लेकर कैसा नजरिया और समझ कायम रही। माक्र्स के नाम पर माक्र्सवाद नाम की विचारधारा ही बन गई जिसने कालांतर में वैश्विक राजनीतिक आंदोलन का रूप धर लिया। काफी हद तक इसका श्रेय रूसी नेता व्लादिमीर लेनिन को जाता है। इसके चलते बीसवीं सदी खासी हलचल भरी रही। साम्यवाद के साथ तमाम तरह के हिंसक संघर्षों में पूर्ववर्ती सोवियत संघ और चीन सहित दुनिया के तमाम हिस्सों में लाखों लोग मारे गए। वर्ष 1945 से लेकर 1991 तक कायम रहे शीत युद्ध को एक तरह से अमेरिका और पश्चिम के देशों की अगुआई वाली लोकतांत्रिक एवं पूंजीवादी ताकतों और सोवियत संघ के नेतृत्व वाले अधिनायकवादी एवं साम्यवादी देशों के बीच वैचारिक संघर्ष के तौर पर देखा गया। फिर सोवियत संघ के पतन के साथ ही इतिहास के इस पन्ने का अंत मान लिया गया और इस वैचारिक जंग में पश्चिम की जीत का संदेश गया। इस बीच पूर्ववर्ती सोवियत संघ भले ही लोकतांत्रिक रूस बन गया हो, लेकिन पुतिन के नेतृत्व में वह एक तरह से अधिनायकवादी शासन वाला ही बना हुआ है।

दूसरी ओर चीन ने साम्यवाद का अपना एक अलहदा स्वरूप ही विकसित कर लिया है जहां पूंजीवाद को असंगत रूप से उतार लिया गया है। अभी भी कुछ साम्यवादी देश हैं जो माक्र्सवादी विचारधारा से चिपके हुए हैं। इनमें वियतनाम, क्यूबा और उत्तर कोरिया जैसे देश शामिल हैं। दुनिया के सबसे बड़े साम्यवादी देश चीन में माक्र्स की दो सौवीं जयंती पर राष्ट्रपति शी चिनफिंग ने यह उद्गार व्यक्त किए, ‘आज हम माक्र्स को मानवता के इतिहास में सबसे महान चिंतक के रूप में याद कर रहे हैं और साथ ही माक्र्सवाद के वैज्ञानिक सत्य में अपने दृढ़ विश्वास को भी संकल्पित करते हैं।’

भारत में माक्र्स का स्मरण संयत रहा और निजी अनुभव इस पर ज्यादा रोशनी डालता है। दिल्ली में एक सार्वजनिक व्याख्यान की ही मिसाल लें जिसका विषय ही भारत और एशिया में कार्ल माक्र्स की प्रासंगिकता से जुड़ा था। वहां ऐसी ही प्रतिक्रियाएं आईं जिनमें इस विचारधारा के प्रति आशंका और उपेक्षा का ही भाव था। वहीं कुछ लोगों ने सुस्पष्ट तरीके से सुझाया कि माक्र्सवाद की ‘अप्रासंगिकता’ अधिक उपयोगी होगी तो कुछ लोगों ने कटाक्ष करते हुए कहा कि बर्लिन वॉल गिरने के तीन दशक बाद भी क्या कोई माक्र्स का नाम लेता है। माक्र्स कालजयी बुद्धिजीवी थे। लोक मानस में वह या तो अपने ‘कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो’ की वजह से याद किए जाते हैं या फिर अक्सर ऐसे ‘यथार्थवादी’ के तौर पर जो विषमता और वर्ग संघर्ष को लेकर हद से ज्यादा आग्रही थे। उन्होंने तमाम विषयों को समेटने की कोशिश की। इनमें दर्शन, अर्थशास्त्र, इतिहास, राजनीतिक सिद्धांत, समाजवाद से लेकर पत्रकारिता जैसी विधाओं को छुआ। फिर भी उन्हें सिर्फ सिद्धांतकार या किताबी शख्स के तौर पर ही नहीं याद किया जा सकता। कथनी को करनी में तब्दील करना माक्र्स का मूलमंत्र था और वह एक्टिविस्ट होने के साथ ही समाजवादी क्रांतिकारी भी थे। वह विलक्षण किस्म के लेखक थे जिनके तमाम लेखन कार्य की उचित मीमांसा अभी होनी शेष है। अर्थशास्त्र पर उनकी कई संस्करणों वाली पुस्तक ‘कैपिटल’ के लिए शुरुआती नोट्स 15 संस्करणों के हैं जिनमें 24,000 पन्ने हैं।

माक्र्स का योगदान और प्रासंगिकता पांच दृष्टिहीनों और एक हाथी की कथा जैसी है जिसमें सबको जुदा पहलू नजर आते हैं जिसमें माक्र्स और उनके अद्भुत काम को लेकर अलग नजरिये हैं। सुरक्षा को लेकर सीमित अनुमानों के आधार दृष्टांतों और भारत की आंतरिक सुरक्षा के संदर्भ में एक तस्वीर का खाका पेश करना होगा। अंतरराष्ट्रीय संबंधों के विकास और दुनिया के रणनीतिक ढांचे के आलोक में यह उल्लेख करना तार्किक होगा कि 1917 की रूसी क्रांति एक मौलिक परिघटना थी जिसकी जड़ें माक्र्स-लेनिन के विचारों में छिपी थीं। सोवियत संघ का गठन और द्वितीय विश्व युद्ध के बाद दबंग साम्यवादी गुट के नेता के रूप में स्टालिन के उदय से शीत युद्ध शुरू हुआ जिसने एशिया और विशेषकर भारत पर खास प्रभाव डाला। वहीं दिसंबर, 1991 में शीत युद्ध की समाप्ति और सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका और उसकी अगुआई वाले पश्चिमी देशों के गुट को जीत मिलने के साथ ही उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों के इक्कीसवीं सदी का भरोसेमंद मापदंड बनने का सुझाव भी अपरिपक्व साबित हुआ।

पिछले दशक के वैश्विक आर्थिक एवं वित्तीय संकट ने माक्र्सवादी सिद्धांत से जुड़े शोषण के सिद्धांत के पहलुओं को केंद्र में ला दिया जिनमें उत्पादन प्रक्रिया में शोषण, संपत्ति सृजन और समाज में विषमता जैसे बिंदु प्रमुख हैं। माक्र्स ने पूंजीवाद के खतरों और समाज को विघटन की ओर ले जानी वाली तकनीक को लेकर आगाह किया था जिसे आज अमीर-गरीब के बीच अंतर के रूप में देखा जाता है। जहां सामाजिक-लैंगिक अनुक्रम और विषमता मानवीय परिस्थितियों में अंतर्निहित है, लेकिन हाल के दशकों में अमीर- गरीब के बीच की खाई और चौड़ी ही हुई जो लोकतांत्रिक भारत में स्पष्ट रूप से नजर आती है। एक वैश्विक अध्ययन के अनुसार भारत दुनिया का दूसरा सबसे विषमता वाला देश बन गया है जहां एक प्रतिशत अमीर देश की 53 फीसद संपदा पर काबिज हैं। अमेरिका में यह आंकड़ा 37.3 प्रतिशत है। भारत में धन-संपदा के वितरण का आंकड़ा तो और भी हैरान करने वाला है जिस ढांचे में शीर्ष 10 प्रतिशत लोगों के हिस्से में ही 76.3 प्रतिशत राष्ट्रीय संपदा जाती है जबकि गरीब लोगों की झोली में सिर्फ 4.1 प्रतिशत हिस्सा आता है जबकि शेष मध्य वर्ग के पास चला जाता है। विषमता की यह खाई दिन- प्रतिदिन और चौड़ी होती जा रही है जहां दुनिया के किसी भी अन्य कोने की तुलना में भारत में यह तेज गति से हो रहा है।

विषमता के ऐसे डरावने चेहरे का किसी लोकतांत्रिक देश में नैतिक रूप से बचाव नहीं किया जा सकता, मगर हकीकत यही है कि भारत में एक के बाद एक सरकारों ने ऐसी नीतियां बनाईं जिन्होंने वंचित तबकों के लिए समानता और मानव सुरक्षा के लिए उचित अवसर तैयार नहीं किए जिससे वे शिक्षा हासिल कर सकें और स्वास्थ्य सेवाएं, आवास और रोजगार उनकी पहुंच में हों। इसके उलट आज भारत आंतरिक असंतोष से जूझ रहा है जहां युवाओं को सतत रूप से अपनी सामाजिक-आर्थिक दशा सुधारने का कोई सार्थक विकल्प नहीं सूझ रहा है। अगर यह सामाजिक-आर्थिक विषमता इसी अनुपात में बढ़ती रही तो प्रधानमंत्री मोदी जिस युवा आबादी को भारत के लिए वरदान बताते हैं वही इस देश के लिए अभिशाप बन जाएगी। भारत में आंतरिक सुरक्षा की हालत लगातार खराब होती जा रही है जहां महिलाओं और बुजुर्गों के प्रति बढ़ती हिंसा इसका एक सूचक है। भारत जिस जटिल सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक हलचल के दौर से गुजर रहा है उसमें माक्र्स के सिद्धांतों के मर्म पर विचार की दरकार है।

(लेखक सामरिक मामलों के जानकार हैं)