मनुष्य सदैव चाहता है कि उसके मन का हो। जब यह कामना तीव्र होती है, तो आशा में परिवर्तित हो जाती है। उसे लगता है कि जो वह चाह रहा है, वह होकर रहेगा। ऐसा जब नहीं हो पाता तो मनुष्य निराश हो जाता है। उसे सब मिथ्या लगने लगता है। अरुचि पैदा हो जाती है। जीवन भर मनुष्य आशा और निराशा के बीच डोलता रहता है। इससे वह शारीरिक और मानसिक दोनों तरह से प्रभावित होता है। उसकी आध्यात्मिक अवस्था भी इससे विचलित होती रहती है। कभी स्थिरता नहीं आ पाती। ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि मनुष्य को या तो सच का ज्ञान नहीं होता या ज्ञान होते हुए भी वह सच को स्वीकारना नहीं चाहता। सच यह है कि मनुष्य के हाथ में कुछ भी नही है। सारा कुछ उस परम शक्ति के हाथों में है, जो अनंत है। उसके आगे किसी का कोई वश नहीं है। वह क्या चाह रहा है। इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मनुष्य पूर्व दिशा से पश्चिम दिशा की ओर जाने की सारी तैयारियां कर चुका होता है और एकाएक परमात्मा उसे एकदम विपरीत पश्चिम दिशा की ओर मोड़ देता है। मनुष्य जीवन भर धन संचित करता है किन्तु पलों में परमात्मा की लीला धन की थैली किसी और के हाथों में पहुंचा देती है। ये घटनाएं सामान्य हैं और निरंतर मनुष्य के आसपास घटती रहती हैं। मनुष्य उन्हें देखता है किंतु कोई सबक नहीं लेता। उसे लगता है कि जो दूसरे के साथ हुआ, आवश्यक नहीं, वह उसके साथ भी हो। यह सच भी है। फिर भी जो कुछ उसके आसपास या संसार में हो रहा है, वह प्रयोजनहीन नहीं है। यह ईश्वर का न्याय तो है ही, दूसरों के लिए शिक्षा भी है। सत्य को जानने और स्वयं को सुधारने का अवसर भी है।
यदि मनुष्य के अंदर परमात्मा के प्रति सच्ची आस्था और विश्वास है तो वह निश्चिंत हो जाता है। मन में यदि यह धारण कर लिया है कि परमात्मा दयालु, कृपालु और पालनहार है तो आशा और निराशा के बंधन टूटने लगते हैं। मनुष्य स्वयं को कर्मों पर केंद्रित करने लगता है और परिणाम की चिंता से मुक्त हो जाता है। यह प्रेरणा उसे निर्लिप्तता की ओर ले जाती है जो अध्यात्म की परम अवस्था है। जहां मनुष्य सुख-दुख, मान-अपमान, निंदा और प्रशंसा आदि की भावनाओं से ऊपर उठ जाता है। इससे सारे भटकाव समाप्त हो जाते हैं।
[ डॉ. सत्येन्द्र पाल सिंह ]