कृपाशंकर चौबे। इतिहास की पुस्तकों में जलियांवाला बाग और चौरीचौरा जैसी घटनाओं का वृत्तांत तो मिलता है, किंतु स्वाधीनता संग्राम के दौरान ऐसी कई खौफनाक घटनाएं घटीं, जो आज भी इतिहास में दफन हैं। जैसे अदीलाबाद का गोंड नरसंहार। उन्नीसवीं शताब्दी में ब्रिटिश शासन ने जब तेलंगाना के गोंड राज पर नियंत्रण करना चाहा तो रजाकारों के खिलाफ फौजी संगठन की दमनकारी कार्रवाइयों का प्रतिरोध करने वाले रामजी गोंड ने क्षेत्र के गोंड आदिवासियों को एकजुट कर अंग्रेजी सेना के साथ सशस्त्र संग्राम किया और अंग्रेजों को पराजित किया। हालांकि, बाद में अंग्रेजी फौज ने हथियारों के बल पर गोंड क्षेत्र में प्रवेश किया और लूट-पाट की। अंग्रेजों को सूचना मिली कि रामजी गोंड अदीलाबाद के निर्मल गांव में हैं तो अंग्रेजों ने उन पर धावा बोल दिया। रामजी गोंड अपने एक हजार आदिवासी सहयोगियों के साथ पकड़े गए। उन सबको नौ अप्रैल, 1860 को एक वट वृक्ष की डाली पर फांसी दे दी गई।

यह दुर्योग ही है कि उसके ठीक तीन साल पहले उसी तरह बंगाल के बैरकपुर में एक वट वृक्ष की डाली पर आठ अप्रैल, 1857 को मंगल पांडे को फांसी दे दी गई थी। वह बूढ़ा वट वृक्ष आज भी गौरवशाली इतिहास और स्मृतियों को अंक में दबाए नि:शब्द खड़ा है। ब्रिटिश शासन के खिलाफ 1855-56 में बिहार, बंगाल और उड़ीसा (ओडिशा) के संथालों ने संग्राम किया था। न उन संथालों के संग्राम के बारे में और न ही अदीलाबाद के गोंड नरसंहार के बारे में इतिहास की पुस्तकों में विवरण मिलता है। इसी तरह केरल के मालाबार क्षेत्र में अंग्रेजी शासन के भूमि कानून के खिलाफ 1922 में हुए मोपला नरसंहार का पर्याप्त विवरण भी इतिहास की पुस्तकों में नहीं मिलता। अंग्रेजों के भूमि कानून के खिलाफ मालाबार क्षेत्र के खेतिहर मजदूरों ने 20 अगस्त, 1921 को आंदोलन आरंभ कर दिया। वह कानून भू-स्वामियों के भूमि स्वामित्व की रक्षा करता था। भू-स्वामियों और ब्रिटिश राज के खिलाफ चला वह आंदोलन 1922 तक जारी रहा। उसे मालाबार विद्रोह अथवा मोपला विद्रोह के नाम से भी जाना जाता है।

कहते हैं कि उस आंदोलन में 2,339 विद्रोहियों समेत दस हजार लोग मारे गए। मोपला नरसंहार का एक दूसरा आख्यान भी मिलता है। वह यह कि आंदोलनकारी खेतिहर मजदूर मुसलमान थे और भू-स्वामी हिंदू। उनके खिलाफ गुस्साए आंदोलनकारियों ने मंदिर तोड़े और मतांतरण कराया। इतिहास की किताबों में नौसैनिक विद्रोह के संबंध में भी वांछित उल्लेख नहीं मिलता। 18 फरवरी, 1946 को ब्रिटिश शासन के विरुद्ध रायल इंडियन नेवी के सैनिकों ने विद्रोह कर दिया था। अंग्रेज सैनिकों और भारतीय सैनिकों में भेदभाव के खिलाफ बंबई बंदरगाह से भड़का नौसैनिकों का विद्रोह कराची से कलकत्ता (अब कोलकाता) समेत दो सौ ठिकानों और जहाजों तक फैल गया था। उस विद्रोह को न गांधी जी का समर्थन मिला और न पंडित नेहरू का। नेताजी सुभाष चंद्र बोस की आजाद हंिदू फौज की भांति नौसैनिक विद्रोहियों को भी भुला दिया गया।

देश प्रेम से ओत-प्रोत ऐसी घटनाओं के बारे में इतिहास की पुस्तकों में कोई विवरण नहीं मिलने की सबसे बड़ी वजह है एकांगी इतिहास लेखन। ईस्ट इंडिया कंपनी की बंगाल विजय के उपरांत अंग्रेजों ने जो इतिहास लेखन किया, वह तत्कालीन शासक के पक्ष में लिखा गया इतिहास था। सभी इतिहासकार यूरोप के थे और जाहिर है कि पश्चिमी प्राच्यवाद और यूरोप के पाठकों को ध्यान में रखकर भारत में शासितों का इतिहास लिख रहे थे। भारत पर अंग्रेजों के शासन को न्यायसंगत प्रमाणित करना भी उनका एक ध्येय था। इतिहास लेखन को सांस्थानिक रूप देने के लिए विलियम जोंस के प्रयासों से 1884 में एशियाटिक सोसायटी आफ बंगाल की स्थापना हुई। हालांकि, पश्चिमी प्राच्यवाद के आधार पर लिखे गए भारत के इतिहास को आरसी दत्त, एचसी राय चौधरी, काशीप्रसाद जायसवाल, बेनी प्रसाद, आरसी मजूमदार और आरके मुखर्जी जैसे भारत के राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने चुनौती दी और इतिहास लेखन को एक राष्ट्रवादी दृष्टि प्रदान की।

राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने पश्चिमी प्राच्यवाद के आख्यानों को ही नहीं, बल्कि कई अन्य धारणाओं को भी खारिज किया। जो इतिहासकार भारत के 1857 के संग्राम को सिपाही विद्रोह मान रहे थे, उनके मत को विनायक दामोदर सावरकर की पुस्तक ‘वार आफ इंडिपेंडेंस 1857’ ने खारिज किया। दिलचस्प है कि कम्युनिस्ट सोवियत संघ ने भी सावरकर के मत को स्वीकार किया। सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी ने 1857 के संग्राम से संबंधित मार्क्‍स और एंगेल्स की रचनाओं का संकलन ‘द फर्स्‍ट वार आफ इंडिपेंडेंस 1857-59’ वर्ष 1959 में प्रकाशित किया और उसे भारत का पहला स्वाधीनता संग्राम माना।

भारत के राष्ट्रवादी इतिहासकारों ने समवेत स्वर में स्वीकार किया कि भारत सदा से अविभाजित रहा है और उसकी स्वायत्तता और संप्रभुता की रक्षा के लिए उसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से स्वयं को मुक्त करना होगा। अधिकांश इतिहासकारों ने संस्कृतीय आख्यान को स्वीकार किया और भारत विद्या को यूरोपीय खांचे से बाहर निकालने का महत्वपूर्ण कार्य भी किया। राष्ट्रवादी इतिहासकारों को प्राथमिकता के आधार पर उत्कट बलिदान की उन घटनाओं और तथ्यों को खोजना होगा, जो इतिहास में दफन हो गई हैं। उन घटनाओं को पाठ्य पुस्तकों में अनिवार्यत: शामिल भी किया जाना चाहिए। साथ ही उन ऐतिहासिक तथ्यों और घटनाओं को कारण और परिणाम की सुव्यवस्थित श्रृंखला में रखकर विवेचित किया जाना चाहिए। जब तक यह कार्य नहीं होता तब तक इतिहास के कई गौरवपूर्ण तथ्य अनजान बने रहेंगे।

(लेखक महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा में प्रोफेसर हैं)