[ संजय गुप्त ]: उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा की सदस्यता वाली पीठों की ओर से हाल में एक के बाद एक जो अनेक फैसले दिए गए उनमें से अधिकतर क्रांतिकारी माने जा रहे हैैं तो इसीलिए कि वे समाज और राजनीति को प्रभावित करने वाले हैैं। इनमें सबसे प्रमुख है सबरीमाला मंदिर में सभी उम्र की महिलाओं को प्रवेश की अनुमति देने का फैसला। यह दूरगामी महत्व वाला फैसला है। यह फैसला न केवल स्त्री-पुरुष के बीच भेदभाव पर विराम लगाता है, बल्कि इस दकियानूसी सोच को भी खारिज करता है कि मासिक धर्म के दौरान महिलाएं मंदिर जाने के योग्य नहीं होतीं। आज के युग में इस सोच के लिए कोई स्थान नहीं हो सकता और मंदिर में तो बिल्कुल भी नहीं। आखिर ईश्वर का कोई भी रूप स्त्री-पुरुष में कोई भेद कैसे कर सकता है? जो लोग इस फैसले से सहमत नहीं उन्हें इससे परिचित होना चाहिए कि हिंदू धर्म स्वयं में सतत सुधार के लिए जाना जाता है। इसी के साथ उन्हें इस पर विचार करना चाहिए कि आखिर देवी मानी जाने वाली स्त्री का ईश्वर के घर यानी मंदिर में ही अनादर करने वाली परंपरा को सही कैसे ठहराया जा सकता है?

सुप्रीम कोर्ट का एक अन्य महत्वपूर्ण फैसला समलैंगिक संबंधों को अपराध मानने वाली धारा 377 के अधिकांश हिस्से को खारिज करने का रहा। यह कानून अंग्रेजी शासन के समय बना था। समय के साथ इस तरह के कानून ब्रिटेन समेत अन्य कई देशों में रद किए गए। भारत में भी इसकी मांग हो रही थी। बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने बालिगों के बीच सहमति से समलैंगिक संबंधों को मान्यता प्रदान कर दी। हालांकि समाज का एक बड़ा वर्ग समलैंगिक संबंधों को एक विकृति मानता है, लेकिन यह भी एक सच्चाई है कि इस धारणा को समर्थन मिल रहा है कि समलैंगिकता व्यक्ति विशेष की अपनी यौन अभिरुचि हैऔर इसे विकृति नहीं कहा जा सकता।

चूंकि भारत में समाज का एक बड़ा वर्ग समलैैंगिकता को एक तरह की विकृति मानता है इसलिए राजनीतिक दल और सरकारें उस पर कुछ कहने से बचती रहीं, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि मोदी सरकार ने समलैैंगिकता का विरोध करने के बजाय यह कहा कि उसे सुप्रीम कोर्ट का फैसला मान्य होगा। समलैैंगिकता को अपराध मानने वाली धारा को खत्म करने के बाद सुप्रीम कोर्ट ने एक अन्य ब्रिटिशकालीन कानून की धारा 497 को खत्म किया। सुप्रीम कोर्ट ने विवाहेतर संबंध को सामाजिक बुराई के रूप में देखा और उसे तलाक का आधार भी माना, लेकिन उसे अपराध मानने से इन्कार कर दिया। जैसे तमाम लोग धारा 377 को खत्म करने से खुश नहीं वैसे ही धारा 497 खत्म करने से भी। इतने बड़े देश में ऐसा होना स्वाभाविक है, लेकिन यह निष्कर्ष ठीक नहीं कि सुप्रीम कोर्ट ने विवाहेतर संबंधों को मान्यता दे दी है।

बीते दिनों सुप्रीम कोर्ट ने लोगों के मन में अर्से से कौंध रहे इस सवाल का भी जवाब दिया कि आधार का क्या होगा? उसने आधार को वैधानिकता पर मुहर लगाकर सरकार को एक बड़ी राहत तो दी, लेकिन कुछ मुश्किलें भी खड़ी कीं। आधार की परिकल्पना के पीछे सरकारी सेवाओं और सब्सिडी को समाज के उस वर्ग तक सही तरह से पहुंचाना था जो विकास से वंचित होने के साथ निर्धनता से ग्रस्त हैं, लेकिन मोदी सरकार ने निजी कंपनियों को भी आधार का इस्तेमाल करने की अनुमति प्रदान कर दी। इसके चलते आधार का विवरण जिसमें लोगों की अंगुलियों और पुतलियों की छाप भी होती है, कई ऐसी जगहों पर भी इस्तेमाल किया जाने लगा जहां पहले नहीं होता था, जैसेस्कूली दाखिले, मोबाइल सिम खरीदने, बैैंक खाता खुलवाने और परीक्षाओं में।

ऐसा इसलिए किया जाने लगा ताकि व्यक्ति विशेष की सही पहचान हो सके। इस पर कांग्रेस, वामपंथी दलों और बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने ऐसे आरोप लगाने शुरू कर दिए कि सरकार लोगों की जासूसी करना चाहती है। यह भी कहा जाने लगा कि आधार के डाटाबेस में सेंध लगाई जा सकती है। ये आरोप इसलिए गंभीर नजर आने लगे, क्योंकि कुछ लोगों का आधार का विवरण सार्वजनिक हो गया था।

उच्चतम न्यायालय ने आधार को वैध तो करार दिया, लेकिन कई सेवाओं में उसके इस्तेमाल को अमान्य करार देते हुए निजी कंपनियों को भी उसका प्रयोग करने से मना कर दिया। आम तौर पर इसका स्वागत किया गया, लेकिन इसकी अनदेखी नहीं की जा सकती कि निजी कंपनियों के पास लोगों की पहचान साबित करने का वैसा कोई पुख्ता उपाय नहीं जो आधार जितना भरोसेमंद हो। बेहतर होगा सरकार आधार के डाटाबेस को सुरक्षित करने के पुख्ता उपाय करके उच्चतम न्यायालय से नए सिरे से इसकी अनुमति मांगे कि बैैंकों के साथ निजी कंपनियों को आधार का इस्तेमाल करने की इजाजत दी जाए और अगर लोग निजी कंपनियों के समक्ष आधार को अपनी पहचान पत्र के तौर पर पेश करना चाहें तो उन्हें इसकी स्वीकृति दी जाए।

सुप्रीम कोर्ट ने समाज के साथ राजनीति पर व्यापक असर डालने वाला एक और फैसला यह दिया कि मस्जिद में नमाज मामले का अयोध्या विवाद से कोई लेना-देना नहीं। इस फैसले के चलते अयोध्या मामले की दिन प्रति दिन सुनवाई का रास्ता साफ हो गया। कुछ महीने पहले जब उसकी सुनवाई शुरू हुई तो सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकीलों ने इस पर जोर देना शुरू कर दिया कि पहले 1994 के उस मामले पर नए सिरे से विचार किया जाए जिसमें कहा गया था कि नमाज के लिए मस्जिद इस्लाम का जरूरी हिस्सा नहीं।

यह अच्छा हुआ कि सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले में अड़ंगेबाजी करने वालों को हतोत्साहित किया। एक समय कांग्रेसी नेता एवं वकील कपिल सिब्बल की ओर से दी गई यह दलील अडं़गेबाजी ही तो थी कि अगले आम चुनाव तक अयोध्या मामले की सुनवाई टाल दी जाए। राजनीति और समाज को कहीं गहरे तक प्रभावित करने वाले अयोध्या मामले की सुनवाई में और देरी का कोई औचित्य नहीं, लेकिन अभी भी देखा जाना चाहिए कि यह मामला आपसी बातचीत से कैसे सुलझे? आपसी बातचीत से इस मसले को हल करने की कोशिश इसलिए होनी चाहिए, क्योंकि सुप्रीम कोर्ट का फैसला जिस भी पक्ष के खिलाफ होगा वह उसे आसानी से स्वीकार नहीं करेगा और इसके चलते सामाजिक समरसता प्रभावित हो सकती है और साथ ही इस मसले पर नए सिरे से समाज को बांटने वाली राजनीति भी हो सकती है।

सुन्नी वक्फ बोर्ड और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी जैसे संगठनों को चाहिए कि वे अयोध्या में भगवान राम का मंदिर बनने पर अपनी सहमति देकर समरसता का एक नया इतिहास लिखें। इसकी अपेक्षा इसलिए की जाती है कि राम भारत की अस्मिता के प्रतीक हैैं और यदि उनके जन्म स्थान पर उनकी स्मृति में मंदिर नहीं बन सकता तो और कहां बन सकता है? अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला तो आ जाएगा, लेकिन इसमें संदेह है कि उसके बाद राजनीतिक दल इस मसले की आड़ में विभाजनकारी राजनीति बंद कर देंगे। इस राजनीति से बचने का एक ही उपाय है-सबकी सहमति से राम मंदिर का निर्माण।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं]