[शंकर शरण]। नागपुर में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यक्रम में प्रणव मुखर्जी का भाषण राष्ट्रवाद पर केंद्रित था। लोग उनसे किसी बुनियादी राष्ट्रीय मुद्दे पर अनुभव- जनित और रचनात्मक सलाह की आशा कर रहे थे ताकि पार्टी-बंदी से जर्जर बौद्धिक-राजनीतिक विमर्श से हट कर कोई दिशा खोजने में सहायता मिले, लेकिन उन्होंने किसी स्कूल-मास्टर की तरह राष्ट्रवाद पर नेहरूवादी पाठ दोहरा दिया। नेहरूवादी विचार-तंत्र की विशेषता के अनुरूप उसमें इतिहास भी गलत बताया गया। यहां अंग्रेजों ने शासन मुगलों से नहीं लिया था।

उन्होंने मराठों, सिखों और हिंदू राजाओं को हरा कर भारत के मुख्य भागों पर कब्जा किया था। यह भी उल्लेखनीय है कि उनके भाषण में स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद और श्रीअरविंद का नाम नहीं आया, जबकि नेहरू का लंबा वक्तव्य उद्धृत था। इन तीनों महापुरुषों ने ब्रिटिश औपनिवेशिक जुए में दबे भारत को जगाकर, उठाकर देश ही नहीं, पूरे विश्व में सम्मानित किया था। उनके बदले नेहरू को राष्ट्रवाद का अधिकारी बताना बौद्धिक ह्रास का परिचायक है। दो साल पहले जेएनयू में ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ का नारा लगाने, लगवाने वालों ने भी राष्ट्रवाद पर कुछ ऐसे ही भाषण दिए थे। उन्होंने भी जिद की थी कि भारतीय राष्ट्रवाद में स्वामी दयानंद, स्वामी विवेकानंद और श्रीअरविंद का नाम लेना कुफ्र है, क्योंकि उनकी समझ से जो भी चीर्ज हिंदू हो या फिर हिंदू ‘रंगत’ लिए हुए हो उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता।

अक्सर कहा जाता है और खासकर इस तरह के भाषणों में कि भारत केवर्ल हिंदुओं का नहीं। इसीलिए हिंदू धर्म, हिंदू मनीषी, हिंदू संगठन आदि सब के नाम वर्जित होते हैं, लेकिन इसका मतलब होता है कि यह देश और जिसका भी हो, हिंदुओं का तो नहीं ही है। इसीलिए आप कम्युनिज्म, इस्लाम, ईसाइयत, सेक्युलरिज्म, मॉडर्ननिज्म, आदि विचारधारा का सादर उल्लेख करें, लेकिन ‘भारत माता की जय’ अथवा अन्य किर्सी हिंदू भाव का नहीं। इसी को प्रणब मुखर्जी ने भी अपनी तरह से दोहराया। हमारे यहां देश को तोड़ने का खुला एजेंडा रखने वालों को भी भारतीय राष्ट्रवाद का हिस्सेदार बताया जाता है। जेएनयू कांड के दौरान ऐसा ही किया गया था। ऐसे विचारों के विरुद्ध भारत की देशभक्त जनता में क्रोध पनपता है, लेकिन आम तौर पर इस भावना की उपेक्षा की जाती है। जहां तक अकादमिक या शब्दकोषीय बात है, राष्ट्रवाद का कोई पक्का अर्थ नहीं है। यह हाल की यूरोपीय धारणा है, जिसकी पृष्ठभूमि भारतीय इतिहास से मेल नहीं खाती।

इसीलिए भारत र्के हिंदू समाज की चिंताओं को राष्ट्रवाद की शब्दावली में व्यक्त नहीं किया जा सकता, फिर भी हर कहीं राष्ट्रवाद के अर्थ में मूल भावना संबंधित जनता की इच्छा ही है। इसके प्रति नेहरूवादियों को कभी सहानुभूति नहीं रही। वे जनभावना को अंधविश्वास, पिछड़ा आदि कहकर अपनी संकीर्ण, बनावटी, विदेशीविजातीय विचारधारा देश पर थोपते रहे। भारतीय जनता की इच्छा ‘वंदेमातरम’ से लेकर मातृभाषा में शिक्षा और शासन, अयोध्या आंदोलन के पक्ष में और गोहत्या, विकृत सेक्युलरिज्म, दोहरे नागरिक कानून आदि के विरुद्ध बार-बार व्यक्त होती रही है। इसके प्रति बुद्धिजीवियों के मन में केवल हिकारत रही है। हमारे नेताओं द्वारा इसकी चिंता न करना दुर्भाग्य ही है। उनके द्वारा सच्ची देशभक्ति के बदले कोरी पार्टी-बाजी या आइडियोलॉजी ग्रस्त प्रमाद को ही प्रोत्साहन दिया जाता है। वे समझते हैं कि देश की शक्ति या कमजोरी किसी पार्टी या आइडियोलॉजी से जुड़ी है, मगर हाल के युग में भी इस देश को सजग, सचेत, सशक्त बनाने वाले किसी मनीषी ने ऐसा नहीं माना। यह हानिकारक परंपरा नेहरूवाद ने ही डाली और उसे सेक्युलरवाद, समाजवाद आदि नाम देकर प्रचारित किया।

जबकि दयानंद से लेकर गांधी तक किसी ने इसकी अनुशंसा नहीं की थी। सभी सचेत मनीषी जानते थे कि भारत की प्राण-शक्ति सनातन धर्म में है। हिंदू ही इसके मुख्य वाहक हैं। उनके विवेक-बल पर ही प्रतिवादी भी अपने विविध विचारों, मान्यताओं के साथ चलने का स्थान और अवसर पाते हैं। यर्दि हिंदू समाज की मुख्य शक्ति और चेतना न होती तो विविध साम्राज्यवादी विचार-तंत्र या तो प्रतिद्वंद्वियों को खत्मकर इस पर एकाधिकार कर लेते या अपनेअपने बल के अनुसार इसे टुकड़े कर बांट लेते। पाकिस्तान बनना और फिर वहां का हाल इसका सीधा प्रमाण है। नेहरूवाद उन तमाम साम्राज्यवादी विचार- तंत्रों का समवेत रूप है। इसीलिए उसर्में हिंदू धर्म-परंपरा को छोड़कर हर विचार-तंत्र के लिए स्थान है। जिन्हें संदेह हो वे अप्रतिम इतिहासकार सीताराम गोयल की बौद्धिक आत्मकथा या नेहरूवाद पर लिखी उनकी पुस्तक देखें। ध्यान दें यहां सारे विखंडनवादी नेहरूवाद के झंडाबरदार हैं। दुर्भाग्य यह कि जिसे वे खुला निशाना बनाते हैं वे भी नेहरूवादी नारे ही दोहराते रहते हैं। वे ऐसे वक्तव्यों का कभी विश्लेषण नहीं करते। न व्यवहार या अनुभव से उस की परख करते हैं। यदि करते तो भारतीय राष्ट्रवाद पर भाषण में उन श्रीअरविंद को निष्कासित करना फौरन खटकता जिन्हें ‘भारतीय राष्ट्रवाद के पैगंबर’ की उपाधि मिली थी। इसी नाम से कांग्रेस के विद्वान नेता डॉ. कर्ण सिंह की पुस्तक भी है।

यह श्रीअरविंद थे जिन्होंने राष्ट्रीय स्वर को सिंह की गर्जना में बदल दिया। उन्होंने सनातन धर्म को ही भारतीय राष्ट्रवाद कहा था। इसी से उन्होंने ‘वंदेमातरम’ नारा दिया, जो स्वतंत्रता प्राप्ति तक संपूर्ण भारत का निर्विवाद राष्ट्रगीत बना रहा। उस राष्ट्रगीत को स्वतंत्रता मिलते ही किस ने ठुकराया? उन्हीं नेहरू ने। वह भी साफ-साफ कह कर कि उसे ‘दूसरे’ पसंद नहीं करते, क्योंकि उस में ‘हिंदू’ ध्वनि है। नेहरूवाद यही था, यही है। इसीलिए सभी नेहरूवादी वक्तव्यों र्में हिंदू-उपेक्षा र्या हिंदू-विरोध ही समान सूत्र होता है। यह स्वयं परखने की बात है। भारत र्में हिंदू-विरोध अंतत: राष्ट्र-विरोध है। यह सच्चाई अनेक वामपंथी, इस्लामी, ईसाई, बुद्धिजीवियों के सिवाय विदेशी मित्र-शत्रु भी जानते हैं। भारतीय राष्ट्रवाद र्को हिंदू-धर्म र्या हिंदू समाज से अलग करना या तो अज्ञान या फिर सोची-समझी राजनीति है। इससे फर्क नहीं पड़ता कि कितने बड़े पद या आयु का व्यक्ति ऐसा कर रहा है। वह स्वामी दयानंद से ऊंचा नहीं, जिन्हें स्वयं कांग्रेस के आधिकारिक इतिहासकार पट्टाभि सीतारमैया ने ‘भारत का राष्ट्र-पितामह’ कहा था। इसीलिए राष्ट्रवाद पर भाषण देने वाले ऐसे किसी शख्स को गंभीरता से न लिया जाना स्वाभाविक है जो भारतीय राष्ट्रवाद के महानतम पुरोधाओं की बातों की उपेक्षा करता हो। यह तो एक तरह से देश की चेतना को कुंद करने के समान है। जिसे भी भारत से प्रेम हो उसे यह ठीक से जांच-परख लेना चाहिए कि भारतीय राष्ट्रवाद र्में हिंदू भाव होना इसका दोष नहीं, इसकी मूल शक्तिहै। इसके बिना कम्युनिस्ट-माओवादी, इस्लामवादी-जिहादी और चर्च-मिशनरी इस देश को टुकड़े-टुकड़े कर आपस में बांट लेंगे। यह आशंका निराधार नहीं है। यह तो उनकी घोषित योजनाएं हैं जिन्हें पिछले सौ वर्षों में कई बार प्रकट होते देखा जा चुका है। इस सच्चाई को छिपाकर कोई कितनी भी सद्भावना रखे, वह बचे-खुचे भारत को खतरे में डाल रहा है।

(लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ स्तंभकार हैं)