[पीयूष द्विवेदी]। आज देश के सभी क्षेत्रों में हिंदी का उपयोग बढ़ रहा है। जिन क्षेत्रों में हिंदी का उपयोग नहीं होता था, उनमें भी हिंदी की स्वीकार्यता बढ़ी है। लेकिन दक्षिण भारतीय राज्यों, खासकर तमिलनाडु में हिंदी को लेकर खास बदलाव नहीं हुआ है। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह उन राज्यों में भी हिंदी को बढ़ावा दे ताकि लोग उसे जान-समझ सकें। साथ ही उत्तर भारत के राज्यों में भी दक्षिण की भाषाएं पढ़ाई जानी चाहिए, ताकि यहां के लोग भी दक्षिण की भाषाओं को सीख-समझ सकें।

विवाद बनकर रह गई नई शिक्षा नीति
इसे विडंबना ही कहेंगे कि जिस नई शिक्षा नीति का लंबे समय से देश को इंतजार था, जब उसका प्रारूप सामने आया तो स्वस्थ व सार्थक चिंतन की बजाय विवाद का विषय बनकर रह गया। समग्र शिक्षा नीति पर चर्चा हाशिए पर चली गई और सारा ध्यान उसमें उल्लिखित त्रिभाषा नीति पर केंद्रित हो गया। इसमें हिंदी को वरीयता देने को लेकर तमिलनाडु के राजनीतिक गलियारों से विरोध की आवाज सुनाई देने लगी। त्रिभाषा नीति के विरोध में उतरे दलों और नेताओं ने इतनी-सी बात समझने की जहमत नहीं उठाई कि ये प्रारूप केवल विचारार्थ रखा गया है। यह कोई अंतिम निर्णय नहीं है। इसे सबकी राय लेकर ही लागू किया जाएगा। खबर आ रही है कि विरोध के मद्देनजर सरकार ने इस शिक्षा नीति में उल्लिखित हिंदी की अनिवार्यता वाले प्रावधान को खत्म कर दिया है। यहां प्रश्न यह उठता है कि आखिर त्रिभाषा नीति में हिंदी की मौजूदगी को लेकर विरोध की आवाजें उठ क्यों रही हैं? हिंदी अगर भारत में नहीं, तो और कहां पढ़ी-लिखी और बोली-समझी जाएगी? बहरहाल इस विरोध को समझने के लिए त्रिभाषा नीति के स्वरूप और इतिहास पर दृष्टि डालना समीचीन होगा।

क्या है त्रिभाषा नीति
त्रिभाषा नीति कोई आज का विषय नहीं है, बल्कि इसकी चर्चा आजादी के बाद विश्वविद्यालयी शिक्षा संबंधी सुझावों के लिए गठित राधाकृष्णन आयोग की रिपोर्ट से ही शुरू हो गई थी जिसमें तीन भाषाओं में पढ़ाई की व्यवस्था का परामर्श दिया गया था। आयोग का कहना था कि माध्यमिक स्तर पर प्रादेशिक भाषा, संघीय भाषा और अंग्रेजी भाषा की शिक्षा दी जाए। इसके बाद 1955 में डॉ लक्ष्मणस्वामी मुदालियर के नेतृत्व में माध्यमिक शिक्षा आयोग का गठन किया गया, जिसने प्रदेश की मातृभाषा के साथ हिंदी के अध्ययन का द्विभाषा सूत्र देते हुए अंग्रेजी व संस्कृत को वैकल्पिक बनाने का प्रस्ताव रखा। लेकिन यह प्रस्ताव ठंडे बस्ते में चला गया। फिर वर्ष 1964 में यूजीसी के प्रमुख दौलत सिंह कोठारी की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शिक्षा आयोग का गठन हुआ जिसने वर्ष 1966 में पेश अपनी रिपोर्ट में त्रिभाषा नीति का सुझाव दिया था।

त्रिभाषा में हिंदी कमजोर, अंग्रेजी को महत्व
यहां एक बात उल्लेखनीय होगी कि मुदालियर आयोग को छोड़कर ज्यादातर शिक्षा व भाषा आयोगों ने भाषा-समस्या के समाधान हेतु प्रस्तावित त्रिभाषा नीति में अंग्रेजी को अधिक महत्व देते हुए हिंदी का पक्ष कमजोर ही किया। कोठारी आयोग का प्रस्ताव भी ऐसा ही था, जिसमें कक्षा आठ से 10 तक छात्रों के लिए तीन भाषाओं (स्थानीय मातृभाषा, हिंदी और अंग्रेजी) के अध्ययन की बात कही गई थी। वहीं विश्वविद्यालयी स्तर पर अंग्रेजी को शिक्षा का माध्यम रखने का प्रस्ताव किया गया था। इसी कोठारी आयोग की सिफारिशों के आधार पर वर्ष 1968 में राष्ट्रीय शिक्षा नीति की घोषणा की गई, जिसमें त्रिभाषा फामरूला शामिल था। उस समय तमिलनाडु के मुख्यमंत्री थे अन्नादुरई, जिन्होंने इस त्रिभाषा नीति को राज्य में हिंदी थोपने की कोशिश करार देते हुए इसका कड़ा विरोध किया और राज्य के विद्यालयों से हिंदी को हटा दिया। इसके बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति में कुछेक बार परिवर्तन हुए, लेकिन तमिलनाडु में अंग्रेजी और तमिल की द्विभाषा नीति ही शिक्षा का माध्यम बनी रही।

तमिलनाडु में व्यापक विरोध
दक्षिण में हिंदी विरोध की शुरुआत आजादी से पहले हो गई थी। वर्ष 1937 में हुए प्रांतीय चुनावों में मद्रास प्रेसिडेंसी में कांग्रेस को बहुमत मिला था और शासन की बागडोर चक्रवर्ती राजगोपालाचारी के हाथ आई, जिन्होंने राज्य में हिंदी की शिक्षा को बढ़ावा देने को लेकर अपने इरादे जाहिर कर दिए। एक प्रमुख मीडिया संस्थान के वेबपोर्टल पर प्रकाशित खबर के मुताबिक, अप्रैल 1938 में मद्रास प्रेसिडेंसी के 125 सेकेंडरी स्कूलों में हिंदी को अनिवार्य भाषा के तौर पर लागू कर दिया गया। तमिलों में इस निर्णय के प्रति कड़ी प्रतिक्रिया दिखी और जल्द ही इस विरोध ने एक जनांदोलन का रूप ले लिया। पेरियार और अन्नादुरई ने इस आंदोलन को अपनी राजनीतिक पहचान स्थापित करने का उपकरण बना लिया। यह आंदोलन लगभग दो वर्ष तक चला।

अंग्रेजों ने खत्म की थी हिंदी की अनिवार्यता
वर्ष 1939 में राजाजी की सरकार ने त्यागपत्र दे दिया और फिर अंग्रेज हुकूमत ने सरकार के फैसले को वापस लेते हुए हिंदी की अनिवार्यता को समाप्त कर दिया। तब यह आंदोलन थम जरूर गया, मगर यहां से राज्य में हिंदी विरोधी राजनीति का जो बीजारोपण हुआ, वो आगे फलता-फूलता ही गया। आजादी के तत्काल बाद भी हिंदी विरोध की राजनीति की आंच में राज्य को जलना पड़ा, तो वहीं 1963 में राजभाषा विधेयक के पारित होने के बाद भी हिंसक रुख लेकर यह आंदोलन शुरू हो गया। 1970 के दशक का पूर्वार्ध इस लिहाज से उथल-पुथल भरा रहा।

हिंदी विरोध से सत्ता में आई थी DMK
वर्ष 1967 में इस हिंदी विरोधी आंदोलन पर चढ़कर डीएमके तमिलनाडु की सत्ता हासिल करने में कामयाब हो गई। इसी के साथ हिंदी विरोध दक्षिण, खासकर तमिलनाडु की राजनीति का एक आवश्यक उपकरण बन गया जो आज भी यथावत कायम है। आज भी वहां के नेताओं को हिंदी विरोध में अपने लिए राजनीतिक संभावनाएं दिखाई देती हैं जिस कारण वे तथ्य और यथार्थ से परे आंख बंद करके हिंदी संबंधी किसी भी बात का विरोध करने लगते हैं। यही कारण है कि अभी त्रिभाषा नीति की चर्चा आते ही हिंदी थोपने की बात कहते हुए राज्य से विरोधी आवाजें उठने लगीं।

हिंदीभाषी राज्य भी जिम्मेदार
उक्त बातों से यह तो स्पष्ट हो गया है कि गैर-हिंदीभाषी राज्यों के हिंदी विरोध का मुख्य कारण वहां की राजनीति है। परंतु इस राजनीति के लिए वहां के राजनेताओं को अवसर देने के लिए एक हद तक हिंदीभाषी राज्यों के लोगों का दक्षिण भारतीय भाषाओं के प्रति उदासीन रवैया भी जिम्मेदार है। तमिलनाडु को छोड़ दें तो आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक आदि दक्षिणी राज्यों में कुछ हद तक हिंदी की मौजूदगी मिलती है। वहां के स्थानीय लोग हिंदी बोलते दिख जाते हैं, जिससे जाहिर होता है कि इन राज्यों में कम ही सही, मगर लोग हिंदी सीख रहे हैं। लेकिन इसके उलट हिंदीभाषी राज्यों में तमिल-तेलुगू जैसी भाषाओं को सीखने-सिखाने के प्रति कोई उत्साह नहीं दिखाई देता।

तमिल या तेलुगु का विरोध नहीं
इस संबंध में दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक डॉ. आलोक रंजन पांडेय कहते हैं, ‘दिल्ली में कुछ विद्यालय हैं, जहां तमिल-तेलुगु आदि दक्षिण भारतीय भाषाएं पढ़ाई जाती हैं, मगर उनकी संख्या कम है। यह सही है कि हिंदीभाषी प्रदेशों के लोग दक्षिण भारतीय भाषाओं को सीखने में बहुत रुचि नहीं लेते, जो कि उन्हें लेनी चाहिए। हमारा विरोध तमिल या तेलुगु से न कभी था, न है। हालांकि, हिंदी के बजाय अंग्रेजी का हम सदैव विरोध करते रहे हैं।’

राजनीति ने पैदा की भाषाई खाई
हालांकि एक पक्ष यह भी है कि हिंदी किसी राज्य-विशेष की भाषा नहीं है जो उसको अपनाने के बदले कोई अमुक राज्य से अपनी क्षेत्रीय भाषा को सीखने की उम्मीद करे, लेकिन फिर भी हिंदीभाषी राज्यों को दक्षिण भारतीय भाषाओं को सीखने के प्रति गंभीर होना चाहिए। ऐसा करने से जो अविश्वास की खाई उत्तर और दक्षिण के बीच राजनीति ने पैदा की है, उसे पाटना कुछ आसान होगा।

विरोध और संशोधन से खत्म नहीं होगी समस्या
कुल मिलाकर बात यही निकलती है कि दक्षिण की हिंदी विरोधी राजनीति को रोकने के लिए केंद्र को दृढ़ता एवं हिंदीभाषी लोगों को दक्षिण भारतीय भाषाओं के प्रति रुचि दिखानी होगी। अभी विरोधों के कारण जिस तरह से केंद्र ने शिक्षा नीति के प्रस्ताव में संशोधन कर दिया, यह रुख सही नहीं है। इससे समस्या खत्म नहीं होगी। केंद्र को दृढ़तापूर्वक दक्षिण खासकर तमिलनाडु में हिंदी को स्थापित करने के लिए बिना किसी प्रकार के दबाव में आए कदम उठाने चाहिए। दक्षिण भारतीयों को एक बार यह समझ में आ गया कि हिंदी से उनकी मातृभाषा को कोई खतरा नहीं है, तो वे इसे स्वीकारने में कभी पीछे नहीं हटेंगे। मगर उन्हें ये तब तक समझ नहीं आएगा, जब तक हिंदी वहां पहुंचेगी नहीं। एक बार तमिलनाडु में हिंदी का पढ़ना-लिखना शुरू हो गया तो फिर कोई राजनीतिक दल या नेता हिंदी विरोध को हवा नहीं दे पाएंगे।

कितना जायज है दक्षिण भारत में हिंदी विरोध
दक्षिण भारत के हिंदी विरोध का मूल स्वर यह है कि हिंदी कथित हिंदीपट्टी वाले राज्यों की भाषा है, जिसे उन पर थोपा जा रहा है। इसमें द्रविड़ और आर्य वाली ऐतिहासिक अवधारणा भी एक हद तक काम करती है जिसके अनुसार बाहर से आए आर्यो ने देश के मूल निवासी द्रविड़ों को दक्षिण में खदेड़ दिया और स्वयं उत्तर में बस गए। हालांकि जिस तरह से ये आर्य आगमन सिद्धांत ऐतिहासिक तथ्यों के धरातल पर भ्रामक सिद्ध होता है उसी तरह दक्षिण का हिंदी विरोध भी तथ्यात्मक रूप से फिजूल ही लगता है।

इस विषय में ‘निफ्ट’ पटना में प्राध्यापक रत्नेश्वर सिंह कहते हैं, ‘आज हिंदीपट्टी कहे जाने वाले जो राज्य हैं वास्तव में हिंदी उनकी मातृभाषा नहीं है। लेकिन आजादी के बाद देश की एकता के लिए उन्होंने उदारता दिखाते हुए हिंदी को अपनी मातृभाषा से ऊपर रखा। दक्षिण के राज्य वैसी उदारता नहीं दिखा पाए। इसका कारण वह क्षेत्रवादी राजनीति है जिसने ऐसी हवा बना दी कि हिंदी कुछ खास प्रदेशों की भाषा है और उन पर थोपी जा रही। दूसरी बात कि हिंदी को जिन राज्यों ने आत्मसात किया, उनकी मातृभाषा भी हिंदी के साथ-साथ फल-फूल रही है।’

हिंदी विरोधः राष्ट्रीयता के बजाय क्षेत्रीयता की मानसिकता
देखा जाए तो हिंदी का स्वरूप भारतीय संस्कृति के ही समान महासमन्वयकारी है। संस्कृत से जन्मी इस भाषा में खड़ी, कुछ राजस्थानी, कुछ अवधी, कुछ ब्रज, कुछ भोजपुरी सहित अनेक भारतीय भाषाओं एवं कुछ अंग्रेजी, उर्दू, फारसी जैसी विदेशी भाषाओं के शब्दों का महासंगम है। ऐसे में राष्ट्रीयता की भावना के साथ यदि विचार किया जाए तो हिंदी के विरोध का कोई कारण नजर नहीं आता। परंतु दक्षिण के राजनेताओं ने अपने संकीर्ण राजनीतिक हितों के लिए वहां के लोगों में राष्ट्रीयता की बजाय क्षेत्रीयता की भावना का पोषण किया है। राजनीति ने तमिलों के विवेक को इस कदर ग्रस लिया है कि उन्हें विदेशी भाषा अंग्रेजी से अपनी मातृभाषा को कोई खतरा नहीं लगता, लेकिन अपने देश की भाषा हिंदी से लगता है।

हिंदी विरोध पर क्या कहते हैं विशेषज्ञ
सरकार कई बार हिंदीतर क्षेत्रों को नाराज नहीं करना चाहती है, क्योंकि हम लोकतंत्र में रह रहे हैं और यहां वोट बैंक की राजनीति है। त्रिभाषा सूत्र सबसे उपयुक्त समाधान है। इसमें अंग्रेजी, क्षेत्रीय भाषाएं और हिंदी सभी सुरक्षित हैं। हम शुरू से अपनी क्षेत्रीय भाषाओं का समर्थन करते हैं, हमारा अंग्रेजी से भी विरोध नहीं है, लेकिन हिंदी की कीमत पर अंग्रेजी का विकास हो, यह ठीक नहीं है।
- प्रो पूरनचंद टंडन, प्राध्यापक, दिल्ली विश्वविद्यालय

वर्तमान भाषाई विवाद को सुलझाने का सबसे सटीक समाधान त्रिभाषा फार्मूला है। जब यह बना था तो इसमें सभी राज्यों की सहमति थी एवं संसद के दोनों सदनों द्वारा सर्वसम्मति से इसे पारित किया गया था। आज इसका विरोध जायज नहीं लगता। यह विरोध कुछ नेता केवल अपनी राजनीति चमकाने के लिए कर रहे हैं। विश्व के जिस देश ने विकास किया अपनी भाषा में किया, पिछड़ेपन का कारण विदेशी भाषा रही है। यदि अभी भी मोदी की बहुमत वाली सरकार भाषा के मसले पर नेहरू की तरह ढुलमुल रहेगी तो दोनो में क्या अंतर रहेगा?
- प्रो. करुणाशंकर उपाध्याय, अध्यक्ष, हिंदी विभाग, मुंबई विश्वविद्यालय

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पीयूष द्विवेदी
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