बद्री नारायण : विकसित देश हों या विकासशील, वहां के विश्वविद्यालय और उच्च शिक्षण संस्थान कई तरह की भूमिका निभाते हैं। वे न केवल डिग्री और शिक्षा देने का काम करते हैं, बल्कि उस देश की आंखें भी होते हैं। ये आंखें यह देख सकती हैं कि उस देश में विकास कैसे हो रहा है? उसकी गति क्या है? उसका समाज पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? इस प्रकार ये देशों में चल रही विकास प्रक्रियाओं में सहभागी तो होते ही हैं, उनका अध्ययन, मूल्यांकन भी करते हैं और उन्हें अधिक प्रभावी बनाने के लिए सरकार को सुझाव भी देते हैं।

भारत में भी कुछ विश्वविद्यालय एवं शोध संस्थाएं ऐसा काम करती रही हैं, किंतु यहां ऐसा काम कम होता है। भारत में सरकारों द्वारा चलाई जा रही विकास योजनाएं एवं उनके कार्यान्वयन और हमारी शिक्षा एवं शोध की दुनिया के बीच एक बड़ा अंतर रहा है। यहां विकास कार्य सरकारों का काम माना जाता रहा है एवं शिक्षण संस्थानों का काम शिक्षा देना एवं पढ़ना-पढ़ाना। शोध की भूमिका इस पूरी प्रक्रिया में गौण ही रही है, लेकिन यह स्थिति ठीक नहीं है। इसमें बदलाव की महती जरूरत है।

वैसे तो हमारे देश में अनेक शोध एवं उच्च शिक्षण संस्थान हैं। वे अच्छा काम भी कर रहे हैं। चूंकि भारत एक विशाल देश है और यहां बड़े स्तर पर विकास कार्य चलाए जा रहे हैं, लिहाजा कुछ शोध संस्थाओं के सक्रिय होने से काम नहीं चलेगा। इसी वजह से विकास परियोजनाओं का दस्तावेजीकरण एवं इन पर शोध-अध्ययन संभव नहीं हो पा रहा है। 1990 के बाद नवउदारवादी अर्थव्यवस्था के लागू होने के बाद भारतीय समाज में हुए परिवर्तनों का हमारे पास कोई सम्यक लेखा-जोखा नहीं है। 2014 के बाद 'आकांक्षी भारत' किस तरह विकास की गति से जुड़ा और क्या पाने की आकांक्षा लोगों के मन में सृजित की, इन सब पर जितना अध्ययन और शोध होना चाहिए, उतना नहीं हो पा रहा है। जैसे कि विकास योजनाओं के लाभार्थी कौन हैं? योजनाएं किस रूप में किस-किस तक पहुंच पा रही हैं? इसका कोई व्यवस्थित शोधपरक आकलन हमारे पास नहीं है। हाल में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी विकास की इस गति को समझने का आग्रह किया।

कुछ दिनों पहले यह खबर आई थी कि भारत सरकार का शिक्षा विभाग विकास कार्यों एवं गवर्नेंस की रूपरेखा के इर्द-गिर्द ज्ञान सृजन-संरक्षण की एक महत्वाकांक्षी परियोजना पर काम करने जा रहा है। इसके तहत देश के अनेक केंद्रीय विश्वविद्यालय, आइआइटी, आइआइएम एवं शोध संस्थान मिलकर भारत सरकार के विभिन्न विभागों द्वारा चलाई जा रही विकास परियोजनाओं की समीक्षा एवं उनके सामाजिक प्रभावों का मूल्यांकन करेंगे। आंकड़ों पर आधारित ये शोध मूल्यांकन मिलकर विकास, क्षमता निर्माण, संस्कृति, खेल, सुरक्षा, गरीब कल्याण, किसान कल्याण पर केंद्रित ज्ञान कोशों की रचना करेंगे। इन ज्ञान कोशों से निकले सुझावों का उपयोग सरकार के विभिन्न विभाग तो करेंगे ही, साथ ही इनका उपयोग शिक्षण एवं प्रशिक्षण में भी हो सकेगा। इस प्रक्रिया में हमारे उच्च शिक्षण संस्थान भारत में विकास एवं उन्नति के 'थिंक टैंक' के रूप में स्थापित हो सकेंगे। नए भारत की रूपरेखा बनाने में भी उच्च शिक्षण संस्थानों की भूमिका को यह अभियान और महत्वपूर्ण बनाएगा। बौद्धिक विरासत मिशन का यह अभियान शिक्षण संस्थानों एवं शिक्षा मंत्रालय के बीच रिश्ते को मजबूती देगा, क्योंकि विद्या एवं ज्ञान की विरासत सबसे ज्यादा प्रभावी होती है।

अभी तक इस संदर्भ में जो चर्चाएं हैं, उनके अनुसार केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान के नेतृत्व में शिक्षा मंत्रालय इस मिशन में देश की सभी शिक्षण संस्थाओं को जोड़ने में संलग्न है। इस परियोजना में विषयों और क्षेत्रों के आधार पर अनेक क्लस्टर बनाए गए हैं। विज्ञान, कला-संस्कृति, तकनीकी, प्रबंधन आदि क्षेत्रों से जुड़े अनेक विद्वानों को इस मिशन में जोड़ने का प्रयास चल रहा है। इस प्रकार यह भारत में ज्ञान एवं विद्या की एक नई विरासत सृजित करने की परियोजना है, जिसमें सरकार द्वारा संचालित विकास एवं राष्ट्र निर्माण की प्रक्रियाओं को केंद्र में रखकर शोध, अध्ययन एवं दस्तावेजीकरण करने पर बल होगा।

सरकार एवं उच्च शिक्षण संस्थानों के बीच संवाद से नीतियां बनाने एवं उन्हें कार्यान्वित करने में मदद तो मिलेगी ही, साथ ही ज्ञान एवं विद्या के इतने विस्तृत एवं शक्तिवान स्रोत का उपयोग देश के विकास के अभियान में भी हो सकेगा। वैसे भी नए भारत के निर्माण के प्रयासों एवं उद्यमों को एक सम्यक आधार देने के लिए 'थिंक टैंक्स' की जरूरत है। विकास एवं आर्थिक प्रक्रियाएं दृष्टि, दर्शन तथा सुझावों से और ज्यादा प्रभावी एवं प्रखर हो जाती हैं।

यदि भारत की विकास प्रक्रिया को समाज के निचले स्तर तक पहुंचने की गति को समझने का काम विश्वविद्यालय एवं अन्य उच्च शिक्षण संस्थान कर सकेंगे तो भारत में विकास को नई दिशा मिल सकेगी। कुल मिलाकर ज्ञान की विरासत अन्य दूसरी चीजों से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण होती है। अगर यह बन जाए तो देश के युवाओं की मानसिकता निर्माण में इसकी महती भूमिका होगी। अपने-अपने क्षेत्रों में बने ये शिक्षण संस्थान अगर अपने आस-पास के विकास की भी निगरानी कर सकें तो देश भर में विकास की प्रक्रिया को संतुलित एवं सार्थक बनाने में बड़ी भूमिका निभा पाएंगे। विकास की प्रक्रिया एवं ज्ञान निर्माण के इस जुड़ाव से दिल्ली से चलने वाला 'एक रुपया' अंतिम छोर तक एक रुपये के रूप में तो पहुंचेगा ही, साथ ही यह एक रुपया अपने मूल्य से कई गुना अधिक परिणाम दे पाएगा।

(लेखक जीबी पंत समाज विज्ञान संस्थान, प्रयागराज के निदेशक हैं)