[अंबरीष राय] भारत की शिक्षा व्यवस्था लंबे समय से आर्थिक संसाधनों के संकट से जूझ रही है। जाने-माने शिक्षाविद प्रो. डीएस कोठारी की अध्यक्षता में 1966 में गठित पहले शिक्षा आयोग कोठारी कमीशन ने शिक्षा पर जीडीपी का छह प्रतिशत खर्च करने की संस्तुति की थी, जिसे बाद में 1968 में घोषित शिक्षा नीति ने स्वीकार किया। वर्ष 1986 की शिक्षा नीति तथा 1992 के एक्शन प्लान में भी इसे दोहराया गया, मगर हम कभी भी इस लक्ष्य तक नहीं पहुंच सके। बल्कि इसके उलट, हमारी शिक्षा पर खर्च होने वाले सार्वजनिक संसाधनों में लगातार कटौती होती रही है और आज हम जीडीपी का महज 4.43 प्रतिशत ही शिक्षा पर खर्च कर रहे हैं, जिस कारण स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा निरंतर प्रशिक्षित अध्यापकों की कमी, आधारभूत संरचना की खस्ता हालत, स्कूलों व कॉलेजों की पर्याप्त संख्या में भारी कमी और गरीब छात्रों को मिलने वाली स्कॉलरशिप में कटौती जैसी समस्याओं से जूझ रही है। यहां तक कि आठवीं तक शिक्षा के लोकव्यापीकरण के लिए बने शिक्षा अधिकार कानून 2009 को लागू करने में भी वित्तीय संकट बड़ी रुकावट के रूप में सामने आया जिसके कारण महज 12.6 प्रतिशत स्कूलों में ही कानून का अनुपालन हो सका है।

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 ने एक बार फिर शिक्षा पर होने वाले खर्च को बढ़ाकर छह प्रतिशत करने का वादा किया है, परंतु इस बार भी कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की गई है। कुछ शिक्षाविद 1966 से अब तक शिक्षा पर होनेवाले खर्च में कमी के चलते बन गई संचयी खाई (क्यूमुलेटिव गैप) को देखते हुए शिक्षा पर छह प्रतिशत बजट आवंटन को भी कम मानते हैं और इसे 10 प्रतिशत करने की मांग उठाते रहे हैं।

यह बात तो निर्विवाद रूप से कही जा सकती है कि अगर शिक्षा के लिए आवश्यक संसाधनों की उपलब्धता की गारंटी नहीं हुई तो प्रशासनिक ढांचों में किए गए बदलाव भी निर्थक साबित होंगे। दूसरी समस्या, जिससे हमारी शिक्षा व्यवस्था जूझ रही है, वह है कि केंद्र तथा राज्य सरकारें उपलब्ध संसाधनों का भी सही समय से वितरण व उसे सही तरीके से निर्धारित समय सीमा में खर्च किए जाने के प्रबंधन में विफल रही हैं और इन्ही कारणों से लगभग एक चौथाई संसाधन बिना खर्च किए हुए (अनस्पेंट) रह जाते हैं।

वित्तीय प्रशासन व प्रबंधन को सुनिश्चित करना होगा कि सरकारी संसाधन आसानी से, समय पर और उचित मात्र में उपलब्ध हो और उसका व्यय योजनाबद्ध तरीके से, लक्ष्य केंद्रित एवं ईमानदारी से किया जाए। केंद्रीय उच्च शिक्षा आयोग (एचईसीआइ) शैक्षिक संस्थानों को अनुदान वितरित करने का काम नहीं करेगा, वह केवल एक नियंत्रक संस्था (रेगुलेटरी बॉडी) होगी। अब अनुदान आवंटन की जिम्मेदारी सीधे शिक्षा मंत्रलय की होगी, जिससे केंद्र सरकार के प्रत्यक्ष हस्तक्षेप को बढ़ावा मिलेगा। जबकि विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) यह काम शिक्षा मंत्रलय के तहत एक स्वायत्त संस्था के रूप में करती रही है। यूजीसी और उसके सदस्यों की पृष्ठभूमि अकादमिक रही है, जिससे वे शिक्षण संस्थाओं की कार्यप्रणाली और जरूरतों से परिचित होते हैं व इस अनुसार निर्णय लेने में सक्षम रहते हैं। अब उच्च शिक्षा आयोग को वित्तीय जिम्मेदारियों से मुक्त कर सीधे शिक्षा मंत्रलय को सौंप दिया गया है जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति के दस्तावेज में उल्लेखित विश्वविद्यालयों की कामकाजी स्वायत्तता (फंक्शनल ऑटोनोमी) की गारंटी देने की मूल भावना के खिलाफ है। यह उन संस्थाओं के लिए चुनौती भरा है जो निर्भीक ढंग से अपनी राय रखने या आकलन के लिए जाने जाते हैं। इसके साथ ही उच्च शिक्षा आयोग डिग्री अवार्ड करने के लिए गाइडलाइन बनाने तथा उच्च शिक्षा के लिए पाठ्यक्रम बनाने का काम भी करेगी, जिसका शिक्षण संस्थान अनुपालन करेंगे। सरकार को इन प्रशासनिक व्यवस्थाओं को संचालित करने के लिए उच्च शिक्षा पर खर्चे के लिए संसाधन जुटाने व शिक्षण संस्थाओं की गरिमा एवं स्वायत्तता को कायम रखने की गारंटी देनी होगी। निजी उच्च शिक्षण संस्थाओं को मजबूती एवं विस्तार देना होगा, तभी युवा आबादी के लिए उच्च शिक्षा का लोकव्यापीकरण संभव होगा।

(राष्ट्रीय संयोजक, राइट टू एजुकेशन फोरम)