डॉ. अजय खेमरिया। कोरोना संक्रमण की दूसरी लहर से समूचा देश भयभीत है। इसकी तीसरी लहर आने की आशंकाओं के बीच भय की स्थिति कायम है। यदि तीसरी लहर आती है तो उससे बेहतर तरीके से निपटा जा सके, कोई भी इस बारे में आश्वस्त नहीं कर पा रहा। ऐसे में यह स्पष्ट है कि अगले कुछ वर्ष भारतीय स्वास्थ्य क्षेत्र के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण होने वाले हैं। आज की परिस्थितियां किस कारण निर्मित हुई हैं इस बहस में उलझने की जगह उन संभावनाओं को अमल में लाने के लिए समवेत होने का समय है जिनके बलबूते भविष्य का भारत कोरोना जैसी अन्य आपदाओं से सुरक्षित हो सकता है। करीब सवा लाख स्नातक चिकित्सक परीक्षा के लिए प्रतीक्षारत हैं, जिन्हें सीधे कोविड प्रबंधन केंद्रों पर प्रैक्टिशनर के रूप में संलग्न कर दिया जाना चाहिए। हालांकि प्रधानमंत्री द्वारा इस संदर्भ में किए गए आवाहन के बाद इस दिशा में काम शुरू भी हो चुका है, लेकिन आवश्यकता इसमें तेजी लाने की है।

राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2020 के अनुसार हमारे हेल्थ सिस्टम में 78 फीसद चिकित्सकीय एवं पैरामेडिकल स्टाफ की कमी है। देश भर में करीब ढाई लाख नर्सें पढ़ाई कर अंतिम नतीजों के इंतजार में हैं। इन्हें भी सरकारी सिस्टम का हिस्सा सीधे बनाए जाने में कोई बुराई नहीं है। जाहिर है जब हालात आपातकालीन हों तो निर्णयन भी उसी अनुपात में त्वरित होने चाहिए। सवाल यह भी कि क्या भारत का स्वास्थ्य तंत्र अफसरशाही की जड़ता के आगे दम तोड़ रहा है? आइएमए के अध्यक्ष का कहना है कि कोविड से निबटने में ब्यूरोक्रेसी नहीं चिकित्सक ही सक्षम है और अब अखिल भारतीय चिकित्सा संवर्ग के गठन का समय आ गया है। वस्तुत: हमारा स्वास्थ्य ढांचा इतनी उलटबांसियों से भरा हुआ है कि कोई विशेषज्ञ डॉक्टर सरकारी तंत्र का हिस्सा नहीं बनना चाहता।

प्रधानमंत्री केयर फंड से जारी हुई वेंटीलेटर मद की राशि लगभग एक साल में अगर खर्च नहीं हो पाई है तो इसके लिए हम डॉक्टरों को नहीं उस प्रशासनिक व्यवस्था को दोषी मानेंगे जिसके पास हर मामले में अपरिमित अधिकार है। आक्सीजन प्लांट लगाने का काम एक प्राइवेट अस्पताल सात दिन में पूरा कर लेता है, लेकिन सरकारी अस्पताल में इसके लिए प्रशासनिक, तकनीकी स्वीकृति से लेकर निविदा और वर्क आर्डर की प्रक्रिया में महीनों लग रहे हैं। सिविल कार्य के कांट्रेक्टर अलग हैं, उपकरणों की खरीदी की प्रक्रिया अलग है, फिर परिचालन और रखरखाव की एजेंसियां अलग। मतलब महामारी जैसे हालातों में भी हमारा सिस्टम अपनी जड़ता, दुरूहता और सुस्ती त्यागने को तैयार नहीं है। ऐसे में भविष्य का स्वास्थ्य क्षेत्र नागरिकों के लिए आरोग्य सुनिश्चित कर पाएगा? कहते हैं हर संकट एक सबक देकर जाता है, इसलिए इस कोविड संकट के साथ हमें स्वास्थ्य के बुनियादी अधिकार और ‘वन नेशन वन हेल्थ सिस्टम’ पर आगे बढ़ने की आवश्यकता है। यह मानकर चला ही जाना चाहिए कि अगले दो वर्ष ऐसे ही चुनौतियों से भरे होंगे, इसलिए सबसे पहले हमें निर्णयन की प्रक्रिया को युद्धकालीन मोड पर लाना होगा।

बेहतर होगा देश का स्वास्थ्य तंत्र अफसरों के नियंत्रण से बाहर किया जाए और केंद्रीय सूची में इसे शामिल कर केंद्र सरकार हर नागरिक का आरोग्य सुनिश्चित करने का दायित्व अपने ऊपर ले। अभी राज्य और केंद्र के बीच भारतीय नागरिकों का स्वास्थ्य अधर में झूलता रहता है। हर नागरिक को अमेरिका की तर्ज पर स्वास्थ्य बीमा का कवर आसानी से उपलब्ध कराने का यह बेहतर वक्त है। आयुष्मान के दायरे में पहले ही 65 करोड़ आबादी आ चुकी है, शेष सक्षम या संगठित क्षेत्र को नियोक्ताओं के जरिये बीमा से जोड़ा जा सकता है। यह भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि एक भी बीमारी बीमा कवरेज से बाहर न हो। अफसरशाही के जड़तामूलक दखल को समाप्त किए बिना भारत का स्वास्थ्य ढांचा भविष्य की चुनौतियों से निपटने में सक्षम नहीं हो सकता है। यह एक अनुभवजन्य तथ्य भी है कि डॉक्टरों एवं नौकरशाही में एक स्थाई टकराव भाव है। एक कलेक्टर या सचिव जिस तरह राजस्व या अन्य मामलों को निबटाते हैं, कमोबेश वे डॉक्टरों की दक्षता का मूल्यांकन भी इसी भाव से करते हैं। आगामी कार्ययोजना में इस स्थाई टकराव भाव को तभी समाप्त किया जा सकता है जब स्वास्थ्य क्षेत्र का विनियमन पूरी तरह से चिकित्सकों के हवाले किया जाए। क्या यह संभव नहीं कि एम्स दिल्ली के पदेन डायरेक्टर भारत के स्वास्थ्य सचिव हों और संयुक्त सचिव स्तर के अधिकारी भी लेटरल भर्ती के माध्यम से विशेषज्ञ पूल से नियुक्त किए जाएं।

सरकारी अस्पतालों के अलावा सभी ख्यातिनाम निजी अस्पतालों को एक निर्धारित मानक के मुताबिक मेडिकल कॉलेज के रूप में काम करने की नीतिगत अनुमति से चिकित्सा सुविधाओं का असंतुलन दूर होगा। इंग्लैंड में सीएचसी, पीएचसी स्तर के अस्पतालों में चार साल की पदस्थापना के साथ पीजी डिग्री देने का चलन है। इसे भारत में अपनाने का यह सबसे उपयुक्त समय है। इस नवाचार से शहरी अस्पतालों में भीड़ नहीं होगी, क्योंकि चार साल तक पीजी के लिए डॉक्टर गांव/ कस्बों में उपलब्ध होंगे जो अध्ययन के साथ प्राथमिक एवं सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों पर आवश्यक उपचार भी लोगों को उपलब्ध करा सकते हैं। फिलहाल देश की कस्बाई-ग्रामीण आबादी में केवल 30 फीसद डॉक्टर ही सेवारत हैं। इस स्थिति के लिए मेडिकल शिक्षा का दोषपूर्ण ढांचा जिम्मेदार है, क्योंकि स्नातक डॉक्टर्स को पीजी डिग्री के लिए बड़े शहरों में ही आना पड़ता है। ब्रिटेन की तरह ‘मेंबर ऑफ रॉयल कॉलेज ऑफ फिजीशियन एंड सर्जन’ अपनाकर बड़े शहरों एवं अस्पताल के इस बोझ को आसानी से खत्म किया जा सकता है। इस मॉडल में पीजी की डिग्री चार साल स्थानीय अस्पतालों में सेवा करने के बाद त्रिस्तरीय परीक्षा पास कर मिलती है। हमारे देश में ठीक उलट सिस्टम है।

बेशक मोदी सरकार ने 135 से ज्यादा नए मेडिकल कॉलेज खोले हैं, लेकिन ये कॉलेज डॉक्टरों की स्थानीय मांग को पूरा नहीं कर पाएंगे, क्योंकि स्नातक के बाद अधिकांश डॉक्टर पीजी करने या फिर अच्छे प्रैक्टिस के लिए बड़े शहरों का रुख करेंगे। फिर कोरोना जैसी आपदाओं में शहरी अस्पताल आक्सीजन या बिस्तरों के लिए जंग का मैदान नहीं बनेंगे। अभी महाराष्ट्र, आंध्र, तेलंगाना, कर्नाटक, तमिलनाडु जैसे राज्यों का मेडिकल शिक्षा में दबदबा है। यदि सरकार हर जिला अस्पताल को मेडिकल कॉलेज बनाकर पीजी व्यवस्था की नीति लागू कर दे तो यह कदम विशेषज्ञ सुविधाओं को समावेशी बनाने का काम करेगा। सुपर स्पेशियलिटी के नाम से देश में एक नई विधा मेडिकल क्षेत्र में फल-फूल रही है। वस्तुत: यह एक तरह का मेडिकल साम्राज्यवाद है। दुर्भाग्य से केंद्र सरकार ने 22 एम्स भी इसी तर्ज पर आरंभ कर दिए हैं। राज्य सरकारें भी हर बड़े शहर में ऐसे ही अस्पताल खोलकर हजारों करोड़ रुपये व्यय कर रही हैं।

बेहतर होगा कि निर्माणाधीन सभी एम्स नेशनल रिसर्च सेंटर में तब्दील कर दिए जाएं जहां एक या दो बीमारियों पर सांगोपांग शोध का ही काम हो और वे सभी दिल्ली एम्स के अधीन काम करें। इनमें से कुछ को एलाइड र्सिवसेज यानी पैरामेडिकल सेवाओं के नवोन्मेषण से भी जोड़ा जा सकता है, क्योंकि देश में इस विधा के लिए अभी तक कोई रिसर्च सेंटर नहीं है। अगले दो वर्षों में ही देश के करीब 10 लाख एलाइड र्सिवस यानी कंपाउंडर, ड्रेसर, लैब टेक्नीशियन, फीजियोथेरेपिस्ट जैसे 56 तरह के र्कािमकों की जरूरत होगी। मोदी सरकार ने बीते बजट सत्र में एलाइड र्सिवस बिल पास किया है, इसलिए इस विषय पर बहुत ही प्रमाणिकता और ईमानदारी से काम की आवश्यकता है। यह सोचने वाली बात है कि भारत से पढ़े डॉक्टर विकसित देशों में जाकर वहां की सरकारों के मुख्य सलाहकार तक बन जाते हैं। एक बार विदेश जाने के बाद भारतीय डॉक्टर वापस नहीं लौटना चाहते। जाहिर है हमारी व्यवस्था न केवल जटिल है, बल्कि प्रतिभा के साथ न्याय नहीं कर पाती है। कोरोना संकट ने अवसर दिया है कि हम अपनी प्रतिभा और संसाधनों का नागरिकों के आरोग्य में उपयोग सुनिश्चित करने वाली नीतियों पर विचार करें।

टेस्टिंग, वैक्सीनेशन और आइसोलेशन की अलग व्यवस्था: डिग्री के लिए प्रतीक्षारत डॉक्टरों और नर्सों को तत्काल सरकारी सिस्टम का हिस्सा बनाने का नीतिगत निर्णय लेने के साथ ही कोरोना प्रबंधन को तीन हिस्सों में बांटना होगा। टेस्टिंग, वैक्सीन और आइसोलेशन की व्यवस्थाएं तत्काल प्रभाव से अलग करने की आवश्यकता है। अभी जिला अस्पतालों में तीनों काम हो रहे हैं, इसलिए न केवल बेतहाशा भीड़ वहां जमा है, बल्कि अस्पताल संक्रमण के सबसे बड़े वाहक बन गए हैं। सरकार को जिला या सभी कोविड अस्पताल से कोरोना टेस्टिंग यूनिट हटाकर स्कूल, कॉलेज में शिफ्ट करनी चाहिए। इसी तरह टीकाकरण केंद्र भी अस्पतालों से हटाए जाएं। अस्पतालों में केवल संक्रमित मरीज ही आएं ताकि उनका प्रबंधन और उपचार बेहतर तरीके से हो सके। मेडिकल कॉलेज, स्वास्थ्य विभाग, स्थानीय निकायों, ईएसआइ एवं अन्य विभागों के अस्पताल को तत्काल एकीकृत करने की आवश्यकता है। यह सबसे उपयुक्त समय है जब हम ‘नेशनल हेल्थ सिस्टम’ को अपनाने की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं। देश में ऐसा कोई प्रबंधन तंत्र नहीं है जिससे यह पता लगाया जा सके कि कौन सी बीमारी किस वर्ग और संख्या में किन वजहों से फैल रही है। कितने डॉक्टर कहां सक्रिय हैं और किन डॉक्टरों की किस क्षेत्र में आवश्यकता अधिक है।

मसलन अफसरशाही यह निर्णय लेती है कि कौन सा डॉक्टर किस क्षेत्र में पदस्थ होगा। यूरोप सहित कॉमनवेल्थ के कई देशों में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा सिस्टम लागू है। अपने नागरिकों के स्वास्थ्य का उनके पास पूरा एकीकृत डाटा उपलब्ध होता है। विशेषज्ञ डॉक्टरों के लिए पीजी सीट का आवंटन भी इसी आवश्यकता के अनुरूप होता है, जबकि हमारे देश में पीजी सीट्स आवंटन का ऐसा कोई सिस्टम ही नहीं है। किस जगह कितने विशेषज्ञ डॉक्टरों की जरूरत है यह वास्तविक मांग या क्षेत्र के हिसाब से तय नहीं होता है। एक ही ढर्रे पर कॉलेजों को चलाया जा रहा है। जबकि विकसित देशों में विशेषज्ञता प्राप्त डॉक्टरों के रिटायरमेंट के आधार पर इन सीट्स की संख्या निर्धारित होती है।

[लोकनीति विश्लेषक]