नई दिल्ली [ जगमोहन सिंह राजपूत ]। शहरों में हजारों लाखों लोग गांवों से रोजगार की तलाश में आते हैं। इन्हें अप्रवासी श्रमिक की श्रेणी में गिना जाता है। आने के मुख्य कारक रोजगार पाने के अतिरिक्त बच्चों को अच्छे स्कूल में शिक्षा दिलाने की लालसा भी होती है। यहां ये परिवार सहित अनेक प्रकार की असुविधाओं से जूझते रहते हैं। रहने की व्यवस्था गांव के मुकाबले बदतर ही होती है। कम फीस वाले निजी स्कूल इन्हें भ्रमित करते हैं। गैस कनेक्शन पाने में ‘खर्च’ तो करना ही पड़ता है। आधार कार्ड में नि:शुल्क का मतलब 200 रुपये से कम नहीं होता है। बैंक अकाउंट खोलना अब भी आसान नहीं है। कहते हैं कि निवास प्रमाण पत्र लाओ! इनकी सबसे बड़ी समस्या होती है स्वास्थ्य सेवाओं की अनुपलब्धता की! ग्रेटर नोएडा की एक सोसाइटी की दो घटनाएं उस दर्द को बयान करती हैं जो इनमें से अधिकांश को झेलना पड़ता है।

बड़ी कठिन है डगर पनघट की

बुंदेलखंड के सूखाग्रस्त क्षेत्र से एक परिवार जीवनयापन के लिए ‘काम’ की खोज में ग्रेटर नोएडा आता है। बड़ी कर्मठता से जीवनयापन प्रारंभ करता है। परिवार के मुखिया को प्रोस्टेट का ऑपरेशन कराने की आवश्यकता आ पड़ी। उन्होंने झांसी जाकर ऑपरेशन कराने का निर्णय लिया। झांसी में ऑपरेशन बिगड़ गया, एक पैर में रक्त संचार अनियमित हो गया। लौटकर ग्रेटर नोएडा के दो अस्पतालों में गए। इनमें से भी कोई एडमिशन के लिए तैयार नहीं था। इस हताश परिवार को पड़ोसी ने आगे आकर थोड़ी मदद की। राममनोहर लोहिया में इन्हें भर्ती किया गया। मगर वहां भी पहले जो टेस्ट बताए गए वे इन्हें बाहर से कराने पड़े और एक साठ हजार रुपये का इंजेक्शन इन्हें स्वयं लेना पड़ा। सबकुछ चुपचाप बर्दाश्त करत हुआ यह परिवार संतुष्ट था, अस्पताल में जगह जो मिल गई थी! पैर ठीक हुआ, लेकिन करीब डेढ़ लाख रुपये का कर्ज अब तक परिवार पर आ चुका है। इसी सोसाइटी में कुछ महीने पहले पश्चिम बंगाल से आया एक परिवार अमानवीय परिस्थिति में रहकर भवन निर्माण में कार्य कर रहा था। छोटे बच्चे को रात में सांप ने काट लिया। वे सबसे पास के अस्पताल में गए। वहां एडमिशन मिला। बच्चा तीन-चार दिन ‘आइसीयू’ में रखा गया। फिर बिल मिला डेढ़ लाख रुपये का।

ग्रेटर नोएडा में उपलब्ध हैं विश्वस्तरीय स्वास्थ्य सेवाएं

ग्रेटर नोएडा में अनेक अन्य शहरों की तरह विश्व स्तर की स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध हैं। विदेशों से लोग उनका उपयोग करने आते हैं। सरकारें भी चाहती हैं कि मेडिकल टूरिज्म बढे़! मगर ऊंची-ऊंची अट्टालिकाओं के नीचे संभवत: ऐसी हजारों तकलीफदेह सत्यकथाएं ढक जाती हैं जिनमें भारत के नागरिक की लगातार बढ़ रही निरीहता प्रतिदिन उजागर होती है। इनकी स्थिति को सुनने, जानने या उसमें सुधार करने में रुचि लेने के लिए किसके पास समय है? सरकारी अस्पतालों की साख निम्नतम स्तर पर है, ठीक सरकारी स्कूलों की तरह। इस प्रकार के वाक्य सभी सुनते ही रहते हैं मगर दशकों से स्कूल में अध्यापक और अस्पतालों में डॉक्टर सरकारें नहीं दे पाई हैं! कमी क्या मात्र संसाधनों की ही है या संवेदनशीलता और इच्छाशक्ति की भी? आपके मन में भी अनेक प्रश्न अक्सर उभरते होंगे, क्योंकि यह पब्लिक है सब जानती है! फिर आप भी सोचेंगे कि जानने मात्र से क्या हो सकता है, हो तो वही रहा है जो नहीं होना चाहिए!

देश की चरमराती शिक्षा व्यवस्था और लोगों की पहुंच से दूर होती स्वास्थ्य व्यवस्था

अनेक दशकों से वस्तुस्थिति से सभी परिचित हैं। वे भी जो स्थिति बदल सकते है, जो सत्ता में हैं और वे भी जो व्यवस्था को सहयोग और संबल प्रदान कर सकने की क्षमता रखते हैं। देश का हर राजनेता और राजनीतिक दल गरीबों तथा पिछड़ों के लिए ही ‘प्रतिबद्ध और कटिबद्ध’ है! और यह कोई गुप्त रहस्य नहीं है कि इस वर्ग की पहली आवश्यकता है शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं। अनेक नेताओं ने ‘निजी स्कूल और अस्पताल खोल दिए हैं! उनके इस प्रकार के कार्यों को प्रशंसा भी मिलती रहती है। आप भी सराहना कर सकते हैं! मगर 21वीं शताब्दी में क्या कोई भी देश अपनी चरमराती शिक्षा व्यवस्था तथा लगातार अधिकांश लोगों की पहुंच से दूर होती स्वास्थ्य व्यवस्था से आंख मूंद सकता है? इन दोनों क्षेत्रों में अधिकांश भारतीयों के लिए भारत में यही स्थिति विकट से विकटतर होती जा रही है। विदेशों से लोग भारत में आकर स्वास्थ्य सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं इस पर कुछ ही लोग गर्व कर सकते हैं।

उस व्यक्ति की ओर कोई ध्यान नहीं देता है जो ‘पंक्ति के अंतिम छोर’ पर खड़ा है

यह वही देश है जो बापू को राष्ट्रपिता कहता है मगर उस व्यक्ति की ओर कोई ध्यान नहीं देता है जो ‘पंक्ति के अंतिम छोर’ पर खड़ा है! बापू तो जीवनपर्यंत यही प्रेरणा देते रहे कि जो भी करो, पहले यह सोचो कि इससे सबसे कमजोर व्यक्ति का क्या कोई लाभ होगा या नहीं। उनकी अपेक्षा थी कि ऐसा करने से व्यक्ति की सोच बदल जाएगी, वह आश्वस्त हो जाएगा कि ‘सबकी भलाई में ही मेरी भलाई है’! क्या गांधी भौतिकवाद के प्रभावों की संकल्पना नहीं कर सके? इसका उत्तर उनके अप्रैल 1922 में लिखे एक पत्र में मिलता है, जिसका आशय यह था कि यदि आज स्वराज आ जाय तब भी मेरे भारत के लोगों को कोई खुशी नहीं मिलेगी। चार पक्ष उनपर हावी हो जाएंगे, चार आयाम उनपर भारी पड़ेंगे-चुनावों की कमियां, अन्याय, प्रशासन का बोझ और अमीरों की निरंकुशता! क्या अद्भुत भविष्य-दृष्टि उन्हें मिली थी। सबकुछ अक्षरश: सत्य सिद्ध हुआ है!

 देश की व्यवस्था लचर और लाचार हो गई है

डॉ. राममनोहर लोहिया चाहते थे कि दाम बांधो समिति यह निर्धारित करे कि उत्पाद के उपभोक्ता तक पहुंचने के बीच में लागत तथा परिवहन के ऊपर कितना मुनाफा कमाया जा सकता है? उन्होंने यह भी कहा था कि जिंदा कौमें पांच साल इंतजार नहीं करती हैं। आज की स्थिति देखकर वे पाते कि उनका देश असहाय सा होकर किसी चमत्कार होने की प्रतीक्षा कर रहा है। और उनके ‘लोग’ 15.30 रुपये की एकबार प्रयोग होने वाली सिरिंज 200 रुपये में खरीद रहे हैं! 8.4 रुपये के इंट्रावेनस इन्फ्यूशन सेट के लिए 1115 रुपये देने को बाध्य हैं। यानी मुनाफा है 1271 प्रतिशत! यही नहीं, 5.8 रुपये के थ्री-वे स्टॉप-कॉक को 106 रुपये में बेचकर बड़ा ही नामी-गिरामी अस्पताल 1737 प्रतिशत मुनाफा कमाता है। ऐसे कुछ तथ्य बड़ी मुश्किल से एक-दो समाचार पत्रों में छपे हैं। राजनीति में शुचिता के अभाव में प्रशासन तंत्र पंगु हो जाता है। समाज का कर्तव्य है कि वह व्यवस्था में से ऐसे तत्वों को बाहर करे जो केवल व्यक्तिगत स्वार्थसिद्धि को ही जीवन का परम लक्ष्य मान लेते हैं। क्या हमारी व्यवस्था इतनी लचर और लाचार हो गई है कि यह सब ऐसे ही चलता रहेगा?


[ लेखक एनसीईआरटी के पूर्व निदेशक हैं ]