नई दिल्‍ली [अजय कुमार]। कोविड-19 महामारी से निपटने में दुनिया भर की सरकारें अपने-अपने ढंग से प्रयासरत हैं, लेकिन सभी सरकारों को यह मानना पड़ा है कि जन स्वास्थ्य का मुद्दा शेष सभी चिंताओं से ऊपर है और इसमें एक सामूहिक हस्तक्षेप की जरूरत है। वास्तव में अब हमें इस बारे में सोचना शुरू कर देना चाहिए कि स्वास्थ्य को वैश्विक स्तर पर मौलिक अधिकार बनाया जाए। इस राह में सबसे बड़ी बाधा इस सोच के साथ आती है कि स्वास्थ्य एक व्यक्ति का निजी मामला है और किसी भी स्वास्थ्य संबंधी समस्या के लिए वह निजी रूप से जिम्मेदार है।

निजी जिम्‍मेदारी है स्‍वास्‍थ्‍य...

ऐसे तर्क देने वाले समूह अक्सर यह कहते भी नजर आते हैं कि स्वास्थ्य जैसे मामलों में सरकारें थोड़ा बहुत हस्तक्षेप कर सकती हैं, लेकिन अंतत: यह एक व्यक्ति की निजी जिम्मेदारी है और उसे ठीक करने के लिए उसे स्वयं खर्च वहन करना चाहिए। कहा यह भी जाता है कि स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बनाने के लिए सरकार के पास पर्याप्त संसाधन नहीं हैं। इसके अलावा सरकार या राज्य की चिंता और प्राथमिकता में अर्थव्यवस्था और अन्य क्षेत्र आते हैं, लेकिन मौजूदा संकट ने यह दिखा दिया है कि अर्थव्यवस्था और सरकार की प्राथमिकता में रहने वाले अन्य क्षेत्र लोगों के स्वास्थ्य से किस कदर जुड़े हुए हैं।

स्‍वास्‍थ्‍य प्राथमिकताओं की अनदेखी नहीं की जा सकती

अगर लोगों के स्वास्थ्य की उपेक्षा की गई तो बाकी क्षेत्र भी इससे प्रभावित होंगे। दुनिया भर में पैदा हुए हालात इस बात की पुष्टि कर रहे हैं। आज आम लोगों के अपने घरों में बंद होने के चलते रोजमर्रा की आर्थिक गतिविधियों पर भी विराम लग गया है। दुनिया के तमाम विकसित और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था डांवाडोल हो रही है और इससे अब धीरे-धीरे जन असंतोष भी बढ़ रहा है। भारत में तमाम औद्योगिक इकाइयों के लिए श्रम की आपूर्ति प्राय: बड़ी संख्या में मजदूर करते हैं। अगर अर्थव्यवस्था को चलाने वाला औद्योगिक उत्पादन इन मजदूरों पर निर्भर है तो इस वर्ग की स्वास्थ्य प्राथमिकताओं की अनदेखी नहीं की जा सकती।

चिंता के दायरे में बड़ा वर्ग 

स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बना देने से इस वर्ग की स्वास्थ्य जरूरतें भी सरकारों के एजेंडे में आ जाएंगी। वास्तव में स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बना देने से सरकारें सामूहिक नीतियां बनाने पर विवश हो जाती हैं और उसकी चिंता के दायरे में बड़ा वर्ग आ जाता है। वैसे भी एक व्यक्ति जिस परिवेश में रहता है वह उसके लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार नहीं होता। अपने गुण-दोषों के साथ वह परिवेश उसे मिलता है और बहुधा उसका स्वास्थ्य इस मिले हुए परिवेश से प्रभावित होता है। उदाहरण के लिए इस समय राजधानी दिल्ली और महानगरों में पैदा होने वाली पीढ़ी को तुलनात्मक रूप से प्रदूषित वातावरण मिलेगा जिस पर उनका नियंत्रण नहीं है। वातावरण के दुष्प्रभावों से उसका स्वास्थ्य और कार्यक्षमता भी प्रभावित होगी। ऐसे में लोगों की स्वास्थ्य चिंताओं को सामूहिक रूप से समझने की जरूरत होती है।

संक्रमण के स्तर पर कोई भेदभाव 

कोरोना वायरस के प्रसार ने यह दिखाया है कि स्वास्थ्य चिंताओं को लेकर एक साझा और समन्वित दृष्टिकोण के साथ आगे बढ़ने की जरूरत है। इस मामले में विकासशील देशों और विकसित देशों की समझ में फर्क नहीं होना चाहिए, क्योंकि इस महामारी ने संक्रमण के स्तर पर कोई भेदभाव नहीं किया है। उसने सभी देशों को प्रभावित किया है और सभी देशों में स्वास्थ्य के बुनियादी ढांचे की कमियों को उजागर किया है। यह समय इस बात को समझने का है कि स्वास्थ्य को मौलिक अधिकार बनाना नागरिकों के स्वास्थ्य के लिए ही नहीं, अर्थव्यवस्था को चलाने के लिए जरूरी हो गया है। यह समय भविष्य की तैयारियों को अमलीजामा पहनाने का भी है। अगर कोरोना महामारी से यह सबक लिया जा सके तो एक बार फिर मानवता विजयी होगी।

(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं और दो दशकों से इस अभियान से जुड़े हैं)