नई दिल्ली [मनोज जोशी]। कॉमनवेल्थ गेम्स में हमारे खिलाड़ियों के प्रदर्शन ने एक उम्मीद जगाने के साथ ही यह भी रेखांकित किया कि खेलों की दुनिया में देश का परचम और शान से फहराने के लिए अभी काफी कुछ करना है। यह काफी कुछ खेल मंत्रालय और खेल संगठनों के साथ राज्य सरकारों एवं स्कूलों को करना होगा। इस मामले में हरियाणा से सीख ली जा सकती है। इस पर हैरत नहीं कि अन्य अंतरराष्ट्रीय खेलों की तरह एक बार फिर हरियाणा के खिलाड़ियों ने कॉमनवेल्थ गेम्स में भी अपनी छाप छोड़ी।

हरियाणा की आबादी देश की आबादी का केवल दो फीसदी है, लेकिन कॉमनवेल्थ गेम्स में उसने देश को 33 फीसदी पदक (9 स्वर्ण, 6 रजत, 7 कांस्य) दिलाए। महाराष्ट्र दूसरे (5-2-1), तेलंगाना तीसरे (4-1-2), दिल्ली चौथे (3-1-2) और मणिपुर पांचवें (3 स्वर्ण) स्थान पर रहे। इसके बाद पंजाब और उत्तर प्रदेश का नंबर आया। यूपी आबादी के लिहाज से सबसे आगे है, लेकिन पदकों के लिहाज से वह नौवें नंबर पर रहा। पंजाब का खेलों में पिछड़ना सवाल खड़े करता है। लगता है इस राज्य में अब खेल संस्कृति को वैसा बढ़ावा नहीं मिल रहा जैसा पड़ोसी राज्य हरियाणा में मिल रहा है। बेहतर होगा कि अन्य राज्य हरियाणा से प्रतिस्पर्धा करें।

जिस मध्य प्रदेश और ओडिशा के मुख्यमंत्री खेलों में काफी रुचि लेते हैं वहां के खिलाड़ी भी खाली हाथ रहे। इसी तरह जम्मू-कश्मीर, छत्तीसगढ, झारखंड समेत कुछ प्रांतों के नसीब में भी कोई पदक नहीं आया। आम धारणा है कि हरियाणा के खिलाड़ी केवल दमखम वाले खेलों यानी पॉवर गेम में ही महारत रखते हैं, लेकिन कॉमनवेल्थ गेम्स में यहां के खिलाड़ियों ने निशानेबाजी में भी तीन स्वर्ण पदक जीतकर सबको चौंकाया। 16 साल की मनु भाकर ने दस मीटर एयर पिस्टल, 15 साल के अनीश ने 25 मीटर रैपिड फायर पिस्टल और संजीव राजपूत ने 50 मीटर राइफल-3 पोजीशन में स्वर्ण पर निशाना लगाया। अनीश पहले पेंटाथलान जैसी मुश्किल स्पर्धा में भाग्य आजमा रहे थे।

बाद में उन्होंने शौकिया इस खेल में भाग लिया और जूनियर वल्र्ड रिकॉर्ड बनाकर सबको अपना मुरीद बना लिया। अनीश और मनु के अलावा दिल्ली की 22 साल की मनिका बत्रा दो स्वर्ण और एक रजत एवं एक कांस्य पदक जीतकर नई सनसनी बनीं। वह टेबिल टेनिस में महिला सिंगल्स का खिताब जीतने वाली पहली भारतीय महिला बनीं। उन्होंने ओलंपिक पदक विजेता और दुनिया की नंबर चार खिलाड़ी सिंगापुर की फेंग तिआनवेई को हराकर बड़ा उलटफेर किया। भाला फेंक में नीरज चोपड़ा भी एक उम्मीद बनकर उभरे। इसके अलावा इस बार मुक्केबाजी में तीन और टेबल टेनिस में दो स्वर्ण पदक हासिल हुए।

ध्यान रहे कि पिछली बार इन खेलों में एक भी स्वर्ण पदक हासिल नहीं हुआ था। इसका मतलब है कि हमारे खिलाड़ी उन खेलों में भी आगे बढ़ रहे जिनमें पहले निराशा हाथ लगती थी, लेकिन यह ठीक नहीं रहा कि हॉकी में भी भारत की झोली खाली रही। दरअसल भारतीय महिला हॉकी टीम के कोच मारिन शोर्ड को पुरुषों की और लड़कों का जूनियर विश्व कप जीतने वाली टीम के कोच हरेंद्र सिंह को महिला टीम की कमान देने का फैसला समझ नहीं आया। यह पहेली सुलझाई जानी चाहिए। इसके साथ ही इस सवाल का जवाब भी दिया जाना चाहिए कि आखिर लगातार अच्छे परिणाम दे रहे अल्टमस की कोचिंग में क्या कमी थी? वह पाकिस्तान टीम के साथ जुड़ गए और हमारी तमाम रणनीतियों की बारीकियों से पाकिस्तानी वाकिफ हो गए।

अल्टमस के कोच रहते भारत ने पाकिस्तान को छह बार हराया था। इस बार भारतीय टीम उनके बिना पाकिस्तान को नहीं हरा पाई। हालांकि नए कोच मारिन की यह सोच गलत नहीं कि उन्होंने दो साल बाद टोक्यो में होने वाले ओलंपिक खेलों को ध्यान में रखते हुए जूनियर वल्र्ड कप जीतने वाली टीम के कई खिलाड़ियों को

अवसर दिए, लेकिन गोल्ड कोस्ट में टीम को और आगे तक जाना चाहिए था। महिला हॉकी टीम की 2002 के कॉमनवेल्थ गेम्स की कामयाबी पर ही फिल्म चक दे इंडिया बनी थी, लेकिन अब उसी टीम के प्रदर्शन में निरंतरता की कमी साफ दिखाई दी। इस टीम ने ओलंपिक चैंपियन इंग्लैंड को लीग में तो हरा दिया, लेकिन कांस्य पदक के मुकाबले में इंगलैंड से ही छह गोल खा बैठी।

वेटलिफ्टिंग में इस बार ज्यादा कड़ी प्रतियोगिता नहीं थी। कई स्पर्धाओं में तो भारतीय खिलाड़ियों की प्रतिस्पर्धा खुद से थी। ऐसे में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन कर पाना आसान नहीं होता, लेकिन मीराबाई चानू ने विश्व चैंपियनशिप से भी बेहतर प्रदर्शन करके साबित कर दिया कि उनकी तैयारी सही मायने में एशियाई खेलों के लिए है। एथलेटिक्स में मोहम्मद अनस याहिया बेशक 400 मीटर की दौड़ में कोई पदक नहीं जीत पाए,लेकिन उनका प्रदर्शन दो लिहाज से अहम रहा। एक, उन्होंने अपने राष्ट्रीय रिकॉर्ड को और सुधारा और दो 1958 के कार्डिफ राष्ट्रमंडल खेलों के बाद पहली बार कोई भारतीय इस दौड़ के फाइनल में दौड़ता दिखाई दिया। अनस ने अपना बेस्ट देने के अलावा न सिर्फ जमैका के दो एथलीटों को पीछे छोड़ा, बल्कि आखिरी पांच मीटर में पांचवें से चौथे स्थान पर पहुंचकर अपनी अच्छी फिनिशिंग का भी परिचय दिया।

अगर हाई जंपर तेजस्विन और तैराकी की नई सनसनी श्रीहरि अपने राष्ट्रीय रिकॉर्ड तक भी नहीं पहुंच पाए तो इसका मतलब है कि मनोवैज्ञानिकों को उनके साथ लंबी अवधि तक काम करने की जरूरत है। तैराक साजन प्रकाश और वीरधवल खाड़े अपने देश में फिसड्डियों के बीच अभ्यास करके उस स्तर तक नहीं पहुंच सकते जितनी उनमें क्षमताएं हैं। उन्हें ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका में नियमित अभ्यास की जरूरत है। नि:संदेह जरूरत इसकी भी है कि हम अपने अन्य खिलाड़ियों को भी विश्व स्तरीय सुविधाएं दें और वह भी देश के विभिन्न हिस्सों में। इसके अलावा विभिन्न खेलों में खिलाड़ियों की नई पौध तैयार करने की भी जरूरत है-ठीक वैसे ही जैसे बैडमिंटन में गोपीचंद ने तैयार की है।

कड़ी प्रतियोगिता के अभाव में कुश्ती में पुरुष पहलवानों का प्रदर्शन अच्छा रहा, लेकिन महिलाओं में केवल विनेश फोगट ही पूर्व विश्व चैंपियन को हरा पाईं। बेशक भारत को पांच स्वर्ण पदक मिले, लेकिन भारतीय पहलवानों का रुख कई सवाल उठाता है। इनके साथ ही उन सवालों का भी जवाब खोजा जाना चाहिए जो गोल्ड कोस्ट में 66 पदकों के साथ उभरे हैं और जिनसे हमारे खेल प्रशासक अनभिज्ञ नहीं हो सकते। बैडमिंटन में स्वर्ण पदक जीतने वाली साइना को जिस तरह अपने पिता को सुविधाएं दिलाने के लिए लड़ना पड़ा वह अच्छा नहीं रहा। इसी तरह यह भी ठीक नहीं रहा कि हमारे खिलाड़ियों को कोई यह बताने वाला भी नहीं था कि इंसुलिन के लिए र्सींरज का इस्तेमाल नहीं करना है।

( लेखक खेल पत्रकार एवं कमेंटेटर हैं)