[ संजय गुप्त ]: मानव सभ्यता के विकास में सूचनाओं का आदान-प्रदान एक अहम पहलू है। सूचनाओं का यह आदान-प्रदान अलग-अलग तरीकों से प्राचीन काल से चला आ रहा है। समाचार पत्रों के उदय के साथ इसने एक संस्थागत रूप ग्रहण किया। समाचार पत्रों के माध्यम से नियंत्रित तरीके से सूचनाएं आम लोगों तक पहुंचने लगीं। समाचार पत्रों के बाद रेडियो और फिर टेलीविजन ने इस क्रम को तेज किया। प्रांरभ में टेलीविजन पर सरकारों का नियंत्रण रहा, लेकिन धीरे-धीरे इस माध्यम की कमान निजी हाथों में भी आ गई। इसके चलते सूचनाओं का आदान-प्रदान कुछ लोगों के लिए एक व्यवसाय बना तो कुछ ने इसे सामाजिक चेतना का हथियार बनाया।

यह एक तथ्य है कि अधिकतर समाचार पत्र और टीवी चैनलों का संचालन करने वाले मीडिया समूहों ने समाज के प्रति अपनी जिम्मेदारी को बखूबी समझा और इसके प्रति सचेत रहे कि समाज के लिए उपयोगी सूचनाओं का ही प्रचार-प्रसार हो। कंप्यूटर आने के साथ ही सूचना संसार में एक क्रांति सी आई। इंटरनेट की खोज ने इस क्रांति को नया मुकाम दिया। शुरुआत में कुछ क्षेत्रों और लोगों तक सीमित रहे इंटरनेट को जल्द ही सभी ने अपना लिया। सच तो यह है कि यह सभी की जरूरत बन गया और ज्यादा से ज्यादा लोगों ने उसे अपनी कार्यप्रणाली का हिस्सा बना लिया। इनमें सरकारें और उनका प्रशासनिक तंत्र भी शामिल है।

सर्च इंजन गूगल ने सूचनाएं हासिल करने के काम को और आसान बना दिया। इसमें संदेह नहीं कि इंटरनेट ने विकास को नए आयाम दिए हैं, लेकिन सोशल मीडिया के उभार ने इंटरनेट को लेकर कुछ सवाल भी खड़े कर दिए हैं। सबसे गंभीर सवाल अश्लीलता के प्रसार और निजता के हनन को लेकर हैैं। इन सवालों पर भारत समेत पूरी दुनिया में बहस चल रही है। इस बहस के बीच लोगों की निजी जानकारी लीक होने या चोरी करने की खबरें आ रही हैैं। चूंकि इसका व्यावसायिक उपयोग हो रहा है इसलिए उसकी सुरक्षा एक समस्या बन गई है। एक अन्य समस्या सोशल मीडिया के जरिये फैल रहा नफरत और दुष्प्रचार भी है।

आज सोशल मीडिया का सबसे सशक्त और व्यापक प्लेटफार्म फेसबुक है। फेसबुक के साथ ट्विटर, वाट्सएप, इंस्टाग्राम जैसे माध्यम भी खासे लोकप्रिय हैं। वाट्सएप फेसबुक की ही एक कंपनी है। यह आपस में संपर्क-संवाद का और साथ ही सूचनाएं पहुंचाने का सबसे सरल और प्रचलित माध्यम है। सोशल मीडिया ने जहां समाज के हर व्यक्ति को यह मौका दिया कि वह अपनी बात एक खुले मंच पर रख सके वहीं अब पिछले कुछ सालों से इसके तमाम नुकसान भी देखने में आ रहे हैं।

चूंकि सोशल मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म सभी को सहज उपलब्ध हैैं इसलिए आतंकी, अतिवादी और अन्य अवांछित तत्वों को उनका इस्तेमाल करने से रोकना कठिन हो रहा है। तमाम आतंकी संगठन और खास तौर पर आइएस अपने प्रचार-प्रसार के लिए केवल सोशल मीडिया पर ही निर्भर है। वैसे तो झूठी खबरों और नफरत फैलाने वाली बातों का प्रसार सोशल मीडिया के सभी माध्यमों से हो रहा है, लेकिन इस मामले में सबसे कुख्यात वाट्सएप है।

अपने देश में भीड़ की हिंसा के कई मामलों में यह सामने आया कि वाट्सएप से इस आशय की झूठी सूचनाएं फैलाई गईं कि अमुक जगह बच्चा चोरी करने वाले सक्रिय हैैं। इसी तरह कई जगह अशांति इसलिए बनी, क्योंकि नफरत फैलाने वाला कोई संदेश प्रसारित किया गया था। आम धारणा है कि वाट्सएप झूठी खबरें यानी फेक न्यूज के प्रसार का पसंदीदा माध्यम बन गया है। इसी कारण सरकारों को इस माध्यम के दुरुपयोग को रोकने के उपाय सोचने पड़ रहे हैैं। ध्यान रहे कि इस माध्यम की तकनीक भी ऐसी है कि किसी अन्य के लिए सूचनाओं को पढ़-समझ पाना कठिन है।

फेसबुक और वाट्सएप संचालित करने वाले मार्क जुकरबर्ग अपने व्यावसायिक हितों के चलते सूचनाओं के प्रसार को नियंत्रित करने के लिए तैयार नहीं। यही स्थिति अन्य सोशल मीडिया कंपनियों की भी है। इनका तर्क है कि उनका प्लेटफार्म सबके लिए है और वे किसी को अपनी बात कहने से रोक नहीं सकते। यह बात और है कि जब ये कंपनियां किसी समस्या से घिरती हैैं तो अपना सुर बदल लेती हैैं। हाल में अपने यूजर्स के डाटा लीक को लेकर बुरी तरह घिरने के बाद फेसबुक संस्थापक मार्क जुकरबर्ग ने भविष्य में ऐसा न होने देने का वायदा किया। फेसबुक यूजर्स का डाटा लीक होने का मामला भारत से भी जुड़ा है। चुनावी लाभ के लिए फेसबुक यूजर्स की निजी जानकारियां कैंब्रिज एनालिटिका कंपनी को बेची गईं। एक गंभीर मामला होने के कारण सरकार ने इसकी जांच सीबीआइ से कराने का फैसला किया है।

चूंकि सोशल मीडिया कंपनियों का व्यावसायिक हित इसी में है कि ज्यादा से ज्यादा लोग उनके माध्यम का इस्तेमाल करें इसलिए यही उनका बिजनेस मॉडल बन गया है। इसी के जरिये वे अरबों-खरबों कमा रही हैैं। टेलीकॉम कंपनियां भी इसी तर्ज पर काम कर रही हैैं। जब मोबाइल फोन नए-नए आए थे तब उनकी कॉल दरें इतनी महंगी थीं कि लोग कॉल करने से भी बचते थे और कॉल रिसीव करने से भी। धीरे-धीरे पहले कॉल दरें लगातार कम हुईं और फिर डाटा की दरें। अब तो कॉल और डाटा दरें लगभग मुफ्त हो चली हैैं। परिणाम यह है कि लोग मोबाइल पर गैर जरूरी बातें करने में घंटों खपा देते हैैं। डाटा के इस्तेमाल में भी यही स्थिति है।

चूंकि सब कुछ करीब-करीब मुफ्त में उपलब्ध है इसलिए लोग कुछ न कुछ देखते-सुनते रहते हैं या फिर सोशल मीडिया के प्लेटफार्म में बेवजह सक्रिय रहते हैैं। इस दौरान ही वे जाने-अनजाने झूठी खबरों के प्रचार-प्रसार में सहायक बनते हैैं। कई बार शरारती और अतिवादी तत्व जानबूझकर नफरत फैलाने के लिए तरह-तरह की झूठी खबरें गढ़ते या फिर उन्हें प्रसारित करते हैैं। सोशल मीडिया कंपनियां ऐसे तत्वों के खिलाफ कार्रवाई के मामले में आनाकानी करती हैैं। वे ऐसा इसलिए करती हैैं, क्योंकि उनका व्यावसायिक हित प्रभावित होता है। यही स्थिति टेलीकॉम कंपनियों की है। वे डाटा को तेल की तरह मानकर भारी-भरकम निवेश तो कर रही हैैं, लेकिन इस पर ध्यान देने को तैयार नहीं कि उनका बिजनेस मॉडल समाज और सरकारों के लिए समस्या बन रहा है।

अगर सोशल मीडिया प्लेटफार्म के बेजा इस्तेमाल पर लगाम लगानी है तो सूचनाओं के आदान-प्रदान की कोई ऐसी कीमत तय करनी होगी जिससे लोग उसका बेवजह या फिर अनुचित इस्तेमाल करने से बचें। इससे पूरी तौर पर तो नहीं, कुछ हद तक सोशल मीडिया प्लेटफार्म का दुरुपयोग थमेगा। इसी के साथ सोशल मीडिया कंपनियों को इसके लिए बाध्य किया जाना चाहिए कि वे नफरत फैलाने वालों की जानकारी देने के लिए तैयार रहें। यदि वे आर्टिफिशियल इंजीनिर्यंरग का सहारा लेकर यह जानने में सफल हैैं कि किस यूजर की क्या पसंद है तो वे यह भी तो जान सकती हैैं कि किस यूजर ने नफरत फैलाने वाली सूचना फैलाई। बेहतर होगा कि इस पर गौर किया जाए कि हर चीज की अति बुरी होती है और इसमें सोशल मीडिया प्लेटफार्म का इस्तेमाल भी है।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]