हम सभी प्राय: दुख से दूर भागते हैं और हम सबको सुख की चाह, सुख की तलाश होती है। दुख को प्राय: तीन प्रकार का माना गया है। पहला दैहिक यानी शारीरिक कष्ट या शारीरिक विकृति आदि। दूसरा दैनिक यानी अचानक टूट पड़ने वाली विपत्ति जिसे ईश्वरीय दंड कहा जाता है। तीसरा है, भौतिक जिसका आगमन संसार से होता है, जैसे-दरिद्रता, दुश्मनी, अपयश और न्यायिक दंड आदि। इन सबका आगमन हमारे जीवन में न हो और हम सदा सुखी बने रहें, यही हमारी कामना होती है, किंतु क्या ऐसा संभव है कि हवा भी चले और पेड़ का पत्ता भी न हिले? सिक्के का एक पहलू तो हम अपने हाथ में ले लें और दूसरा हमारे हाथ से बाहर रहे। जी नहीं इस सतत परिवर्तन में व्यस्त प्रकृति के आंचल में ऐसा संभव नहीं। जो कुछ इस प्रकृति में जन्मा है, उसे प्रकृति के नियम बांधेंगे ही। हमें उनमें बंधना ही पड़ेगा। हां अगर उसका हमें पता चल जाए जो प्रकृति के, शरीर के पार है तो हम प्रकृति का अतिक्रमण कर सकते हैं, किंतु उस स्थिति में हमें सुख-दुख दोनों का ही अतिक्रमण करना होगा। कारण यह कि सुख और दुख दोनों ही प्रकृति से आते हैं। इसलिए दोनों ही हमारे शरीर में उत्तेजना लाते हैं। बहरहाल निराश होने की आवश्यकता नहीं है। सुख का सागर उपलब्ध हो सकता है।
जीवित अवस्था में भीतर मौजूद परमात्म तत्व की प्रतीति ही परमानंद अर्थात सुख का सागर है। इसी सुख के सागर की तलाश में महात्मा बुद्ध, महावीर भटके और फिर इसे पाने के बाद तटस्थ हो गए। वे सब के सब संसार में भटकते रहे, किंतु उन्हें स्वयं को क्षीण कर लेने के अतिरिक्त कुछ न मिला था। कारण यह कि जिसे वे बाहर तलाश रहे थे, वह उनके भीतर ही मौजूद था। जिसे हम ढूंढ़ रहे हों, उसकी ओर हमारी पीठ हो तो हम उसे कितनी ही दूर क्यों न खोजते चले जाएं, वह हमें मिलेगा कैसे? इसलिए हमें किसी भी बाहरी आडंबर में उलझने के बजाय उस परम तत्व की खोज की यात्रा पर निकलना ही होगा, लेकिन आश्चर्य कि हमें धन, यश, पद कुछ भी हासिल करना हो तो हम अपने श्रम पर विश्वास करते हुए दिन-रात एक कर देते हैं, किंतु जब बात परमात्म तत्व की खोज की होती है तब हम सोचते हैं कि कोई हमें प्रदान कर दे। स्वाभाविक है कि ऐसा संभव नहीं। तैरना है तो हमें पानी में उतरना ही होगा।
[ अजय गोंडवी ]