विवेक ओझा। हाल ही में इस्लामिक देशों की बहुलता वाले खाड़ी क्षेत्र में ऐसी घटना हुई है जो इस क्षेत्र की स्थिरता और खाड़ी देशों के वैश्विक व क्षेत्रीय ताकतों से संबंधों को बड़े स्तर पर प्रभावित करने वाली है। दरअसल खाड़ी सहयोग संगठन के सुप्रीम काउंसिल के 41वें सत्र की सऊदी अरब में हुई बैठक से ठीक पहले सऊदी अरब ने एक अभूतपूर्व कदम उठाते हुए खाड़ी देश कतर पर लगाए गए राजनीतिक, कूटनीतिक और आíथक प्रतिबंधों को हटा लिया और कतर के लिए अपने स्थल, समुद्री और वायु सीमा को खोलने का निर्णय कर लिया।

इसके अलावा, सऊदी अरब ने कतर को जीसीसी समिट यानी गल्फ कॉपरेशन काउंसिल की बैठक में भाग लेने के लिए आमंत्रित भी कर दिया। इससे अब संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन और इजिप्ट (मिस्न) जैसे देशों के मन में भी कतर के प्रति दुर्भावना और बढ़ी खाई भर गई है। चारों देशों ने कतर के साथ अपने संबंधों की पुनर्बहाली का निर्णय लिया है, क्योंकि ऐसा करना खाड़ी क्षेत्र के एकीकरण, स्थिरता और क्षेत्रीय सहयोग के लिए अत्यंत जरूरी है।

गौरतलब है कि वर्ष 2017 में सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन और इजिप्ट ने कतर के साथ अपने आíथक और कूटनीतिक संबंध खत्म कर लिए थे। तब कतर पर यह आरोप लगाया गया था कि वह कुछ आतंकी समूहों को हर स्तर पर सहयोग देकर खाड़ी क्षेत्र की सुरक्षा और स्थिरता को खतरे में डाल रहा है। कतर पर यह आरोप लगता रहा है कि वह इजिप्ट में अस्थिरता फैलाने वाले आतंकी संगठन मुस्लिम ब्रदरहुड को समर्थन प्रदान करता है।

जिन चारों देशों ने कतर के साथ रिश्ते खत्म किए थे, उन सभी ने समय समय पर कतर पर हमास, अल कायदा और आइएस जैसे आतंकी संगठनों को समर्थन देने के आरोप लगाए हैं। इन देशों ने कतर पर जो प्रतिबंध लगाए, उसे हटाने के लिए कई शर्ते रखी थीं, जिनमें शामिल थे- अल जजीरा और कतर वित्त पोषित न्यूज आउलेट्स को बंद करना, ईरान के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों को तोड़ना, कतर में तुर्की के सैन्य अड्डे को बंद करना और अन्य खाड़ी देशों के आंतरिक मामलों में कतर द्वारा हस्तक्षेप नहीं करना। दरअलस कतर के ईरान से निकट संबंध भी सऊदी अरब, यूएई, बहरीन और इजिप्ट को रास नहीं आते थे। वैसे भी कुछ वर्ष पूर्व ईरान समíथत हिजबुल्ला नामक आतंकी संगठन पर खाड़ी सहयोग संगठन ने प्रतिबंध लगा दिया था।

इस्लामिक ताकतों की लामबंदी को तोड़ना जरूरी : सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात को अब एहसास होने लगा है कि अधिक समय तक कतर का आíथक और राजनयिक बहिष्कार कतर को तुर्की और ईरान के ज्यादा नजदीक लाकर खड़ा कर देगा और हाल के समय में चीन व ईरान की बढ़ती नजदीकी के घेरे में भी कतर को लेने के प्रयास से खाड़ी क्षेत्र की प्रादेशिक अखंडता और इस्लामिक सोलिडेरिटी को गहरा झटका लगेगा। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन और इजिप्ट आपस में सहयोगी हैं और इन्हें यह बात समझ में आ गई है कि इस्लामिक विश्व या अरब विश्व के दो सबसे बड़े प्रतिनिधियों सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात के इस्लामिक वर्चस्व को तोड़ने के लिए कई ताकतें लामबंद होनी शुरू हो गई हैं, जिसमें मुख्य रूप से ईरान, तुर्की और मलेशिया जैसे देश शामिल हैं, ऐसे में खाड़ी देश कतर का इस लामबंदी से जुड़ना खाड़ी क्षेत्र और खासकर सऊदी अरब की प्रतिष्ठा के लिहाज से ठीक नहीं होगा। यही कारण है कि जीसीसी समिट में उद्घोषणा करते हुए सऊदी अरब, यूएई, बहरीन और मिस्न ने खाड़ी क्षेत्र के एकीकरण व अरब और इस्लामिक एकता के नाम पर चारों देशों ने कतर के साथ अपने संबंधों को सामान्य करने का निर्णय किया। इसके साथ ही अब इन पांचों देशों में राजनयिक और आíथक संबंधों की पुनर्बहाली हो गई है। कुवैत और अमेरिका ने इस विवाद के समाधान में मध्यस्थता की भूमिका निभाई है।

खाड़ी देशों में आप्रवासी भारतीय कामगार : संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या प्रभाग और इंडिया स्पेंड की रिपोर्ट को देखें तो पूरी दुनिया में सबसे बड़ी डायस्पोरा कम्युनिटी भारतीय आप्रवासियों की है। सबसे अधिक आप्रवासी भारतीय खाड़ी देशों में रहते हैं। इन देशों में कामगार भारतीयों की संख्या लगभग 1.6 करोड़ है। दुनियाभर में करीब तीन करोड़ आप्रवासी भारतीयों की संख्या है। विश्व बैंक की नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार वर्ष 2018 में आप्रवासी भारतीयों के द्वारा 80 अरब डॉलर का रेमिटेंस यानी वित्त प्रेषण किया गया है। यूएई में अकेले लगभग 35 लाख भारतीय कार्यरत हैं। वहीं सऊदी अरब में 25 लाख, ओमान और कुवैत दोनों में क्रमश: 15-15 लाख आप्रवासी भारतीय कार्यरत हैं।

इस्लामिक सहयोग संगठन और भारत : अरब विश्व के साथ अच्छे संबंधों को बढ़ावा देना भारत की विदेश नीति का एक प्रमुख लक्ष्य रहा है, लेकिन खाड़ी देशों, मध्य पूर्व अथवा पश्चिम एशिया के इस्लामिक देशों के साथ भारत के संबंधों में समय समय पर उतार चढ़ाव देखे गए हैं। हाल के वर्षो में भारत सरकार ने जहां खाड़ी देशों के साथ मजबूत संबंधों पर जोर दिया, वहीं दूसरी तरफ भारत के नागरिकता संशोधन अधिनियम और राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर से उपजे विरोध प्रदर्शन, दंगे और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के हितों के प्रश्नों पर कई इस्लामिक देशों सहित खाड़ी देशों में एक असंतोष की भावना भड़काने का प्रयास किया गया जिससे कुछ खाड़ी देशों जैसे कुवैत ने इस्लामिक सहयोग संगठन से मांग कर दी कि भारत में मुस्लिम अल्पसंख्यक समुदाय के संरक्षण के मामले को उसे संज्ञान में लेना चाहिए।

खाड़ी सहयोग परिषद भारत का सबसे बड़ा क्षेत्रीय व्यापारिक साङोदार रहा है। वर्ष 2018-19 में दोनों के मध्य 121 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार हुआ है। इसमें भी संयुक्त अरब अमीरात के साथ 60 अरब और सऊदी अरब के साथ 34 अरब डॉलर का द्विपक्षीय वार्षकि व्यापार हुआ है। भारत अपनी ऊर्जा सुरक्षा के लिए बड़े स्तर पर खाड़ी देशों पर निर्भर है। भारत के कुल कच्चे तेल आयात का लगभग 20 प्रतिशत सऊदी अरब से और 10 प्रतिशत ईरान से आता है। इसलिए भारत को एक साथ सऊदी अरब और ईरान से अच्छे संबंधों को बना कर रखने की चुनौती रही है, क्योंकि दोनों देश एक दूसरे के प्रतिद्वंद्वी हैं। वहीं कतर भारत के लिए एलएनजी प्राप्ति का सबसे बड़ा स्नोत रहा है, लिहाजा कतर राजनीतिक संकट का प्रभाव भारत की ऊर्जा सुरक्षा पर पड़ना स्वाभाविक है। इसलिए भारत का यह दृष्टिकोण रहा है कि खाड़ी क्षेत्र में किसी भी समस्या का राजनीतिक और शांतिपूर्ण समाधान होना चाहिए और इन देशों के मध्य विश्वास निर्माण बहाली के हर संभव प्रयास किए जाने चाहिए। चूंकि खाड़ी क्षेत्र महाशक्तियों की क्षेत्रीय राजनीति की प्रयोगशाला भी रहा है, इसलिए वहां अलग अलग राष्ट्रों के समूहों की गुटबाजी को भी बढ़ावा मिलता रहा है। इसी क्रम में भारत ने ईरान से कच्चा तेल मंगाने के मुद्दे पर अमेरिका के दबाव को भी ङोला और यह भी कोशिश की कि उसे अपनी संप्रभुता से समझौता नहीं करना पड़े।

भारत को ईरान और रूस के साथ व्यापारिक समझौतों के आधार पर ही अमेरिका ने जीएसपी की सूची से बाहर भी निकाल दिया था। ईरान और रूस या फिर चीन के संबंध और प्रभाव खाड़ी देशों में न बढ़ें, अमेरिका इसकी कोशिश करता रहा है। इसी क्रम में उसके नेतृत्व में अब्राहम एकॉर्ड को भी अंजाम दिया गया जिसके तहत इजरायल और संयुक्त अरब अमीरात में संबंधों के लिए अभूतपूर्व समझौता किया गया है। इसका स्वागत भारत ने भी किया है। भारत का मानना है कि खाड़ी सहयोग परिषद के छह देश अपने चार्टर के अनुरूप सहयोग समन्वय की राह पर चलकर क्षेत्रीय स्थिरता को प्राप्त करें।

गौरतलब है कि जीसीसी के चार्टर में क्षेत्रीय समन्वय के प्रयासों पर बल दिया गया है। इसमें शामिल हैं- सदस्य राष्ट्रों में एकता के लिए समन्वय, एकीकरण और घनिष्ठ संबंध स्थापित करना, क्षेत्र के देशों के बीच संबंध, रिश्ते और सहयोग के सभी पहलुओं को मजबूत बनाना, आíथक और वित्तीय मामलों, वाणिज्यिक, सीमा शुल्क व परिवहन मामलों, शिक्षा और सांस्कृतिक मामलों, सामाजिक और स्वास्थ्य मामलों, संचार, सूचना, राजनीतिक, विधायी और प्रशासनिक मामलों में समान व्यवस्था और नियम अपनाना, उद्योग, खनन, कृषि, जल और पशु संसाधनों से संबंधित विज्ञान और प्रौद्योगिकी में प्रगति को बढ़ावा देना व संयुक्त परियोजनाएं शुरू करना। मालूम हो कि खाड़ी सहयोग परिषद की संकल्पना रक्षा योजना परिषद के साथ-साथ क्षेत्रीय साझा बाजार के रूप में की गई थी।

जीसीसी से पाकिस्तान पर बनेगा दबाव : सऊदी अरब को वर्ष 2019 में फाइनेंशियल एक्शन टास्क फोर्स की पूर्ण सदस्यता प्रदान की गई है। सऊदी अरब, इजरायल और अमेरिका भारत के सामरिक साङोदार हैं। इनके सहयोग के जरिये भारत पाकिस्तान के आतंक के वित्त पोषण की प्रक्रिया पर प्रभावी नकेल कस सकता है। दरअसल सऊदी अरब पहला अरब देश बन गया है जिसे ऐसी सदस्यता मिली है। अमेरिका में आयोजित समूह की वार्षकि बैठक के बाद सऊदी अरब को यह अवसर प्राप्त हुआ है। सऊदी प्रेस एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार, 1989 में समूह की पहली बैठक की 30वीं वर्षगांठ पर वैश्विक धन शोधन रक्षक के रूप में उसे इस टास्क फोर्स में शामिल किया गया है। सऊदी अरब की इस टास्क फोर्स में सदस्यता कई मायनों में दक्षिण एशिया में आतंक के वित्त पोषण को नियंत्रित करने में एक कारगर कदम साबित हो सकती है। चूंकि इस टास्क फोर्स में खाड़ी सहयोग परिषद (जीसीसी) के छह सदस्यों के ब्लॉक के अलावा एक ब्लॉक के रूप में यूरोपियन कमीशन भी सदस्य है, इसलिए यह इन सभी सदस्यों के फंडिंग मैकेनिज्म को ताíकक बनाने में मददगार साबित होगा।

सऊदी अरब इस टास्क फोर्स के पूर्ण सदस्य के रूप में किसी देश को अनुदान या ऋण देने से पहले सोचेगा कि कहीं इसका इस्तेमाल प्राप्तकर्ता देश आतंकी गतिविधियों के लिए तो नहीं करेगा। चूंकि जीसीसी यानी गल्फ कॉपरेशन काउंसिल एक क्षेत्रीय ब्लॉक के रूप में टास्क फोर्स का सदस्य है तो संयुक्त अरब अमीरात, कुवैत, बहरीन, ओमान और कतर पर भी दबाव पड़ेगा कि वो पाकिस्तान जैसे देश को आíथक मदद देने के पहले सुनिश्चित कर लें कि पाकिस्तान ऐसे धन का क्या इस्तेमाल करने वाला है। ऐसे में 1999 में संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में आतंकी गतिविधियों हेतु टेरर फंडिंग और ट्रांसफर को रोकने के लिए किए गए अभिसमय को प्रभावी तरीके से लागू करने की जरूरत है।

[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]