[ राजीव सचान ]: अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट ने पुलिस सुधार संबंधी एक दशक से अधिक पुराने अपने फैसले की सुध ली। उसने केंद्र सरकार सहित सभी राज्य सरकारों को आदेश दिया कि वे कार्यवाहक पुलिस महानिदेशकों की नियुक्ति करने से बाज आएं और पुलिस महानिदेशक पद पर किसी को नियुक्त करने के पहले शीर्ष पुलिस अधिकारियों की एक सूची संघ लोक सेवा आयोग को भेजें ताकि वह तीन नामों का एक पैनल बना सके। सुप्रीम कोर्ट के निर्देशानुसार केंद्र अथवा राज्यों को इसी पैनल में से ही कोई एक नाम पुलिस महानिदेशक के लिए चयनित करना होगा।

सुप्रीम कोर्ट की ओर से दी गई यह व्यवस्था एक तरह कार्यपालिका के काम में हस्तक्षेप है, लेकिन उसे उसके अधिकार क्षेत्र में इसलिए दखल देना पड़ा, क्योंकि न तो केंद्र सरकार पुलिस सुधारों के प्रति दिलचस्पी दिखा रही थी और न ही राज्य सरकारें। सुप्रीम कोर्ट को रह-रह कर ऐसे अनेक मसलों पर दखल देना पड़ता है जो मूलत: कार्यपालिका अथवा विधायिका के कार्य क्षेत्र के दायरे में आते हैैं। एक अर्से से यह देखने में आ रहा है कि सरकारें जटिल सामाजिक एवं धार्मिक मसलों को सुलझाने से बचने में ही अपनी भलाई समझती हैैं।

सरकारों का काम इसलिए और आसान हो गया है, क्योंकि विपक्षी दल भी इन मसलों पर मौन धारण रखना या फिर जैसा चल रहा है वैसा ही चलने देने के पक्ष में रहते हैैं। यह किसी से छिपा नहीं कि तीन तलाक के मसले पर अधिकांश विपक्षी दलों का यही कहना था कि सरकार अथवा सुप्रीम कोर्ट को तो इस पचड़े में पड़ना ही नहीं चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के पास जो तमाम सामाजिक मसले हैैं उनमें तीन तलाक के बाद हलाला निकाह भी है और मुस्लिम महिलाओं के खतने की प्रथा पर रोक का मामला भी। समलैैंगिकता और जनसंख्या संबंधी मसले भी उसके समक्ष विचाराधीन हैैं। यह ठीक है कि मोदी सरकार तत्काल तीन तलाक के खिलाफ खड़ी हुई, लेकिन यह स्पष्ट नहीं कि समलैैंगिकता को अपराध मानने वाली धारा 377 पर उसका क्या रुख है? भले ही सुप्रीम कोर्ट समलैैंगिकता को अपराध मानने के मसले पर सुनवाई कर रहा हो, लेकिन यह किसी से छिपा नहीं कि उसने ही दिल्ली उच्च न्यायालय के उस फैसले को पलटा था जिसमें धारा 377 को खारिज कर दिया गया था।

कहना कठिन है कि समलैैंगिकता पर सरकार का क्या रुख होगा और सुप्रीम कोर्ट अपने फैसले को खारिज करेगा या नहीं, लेकिन उसके पास एक अन्य बड़ा सामाजिक मसला जनसंख्या का भी है। बढ़ती जनसंख्या एक गंभीर मसला है, लेकिन आज जब बढ़ती-घटती जनसंख्या दुनिया के अनेक देशों में एक ज्वलंत समस्या बनी हुई है तब किसी को नहीं पता कि भारत में सत्तापक्ष या विपक्ष का इस मसले पर क्या कहना है?

यह हैरानी की बात है कि करीब चार दशक पहले बढ़ती जनसंख्या तो एक मुद्दा थी, लेकिन आपातकाल में जबरन नसबंदी अभियान के बाद राजनीतिक दलों एवं अन्य नीति-नियंताओं के एजेंडे से यह मसला ऐसे बाहर हुआ कि फिर किसी ने उसकी सुध नहीं ली। क्या यह अजीब नहीं कि 43 साल पहले 1975 में जब भारत की आबादी 55-56 करोड़ थी तब तो बढ़ती जनसंख्या एक गंभीर मसला थी, लेकिन आज जब वह बढ़कर 130 करोड़ से अधिक हो गई है तब कोई भी उसके बारे में न तो चर्चा करता है और न ही चिंता?

इसमें दोराय नहीं कि इंदिरा गांधी ने आपातकाल थोपकर बहुत बुरा किया, लेकिन इससे भी बुरा यह हुआ कि उस दौरान जनसंख्या नियंत्रण के जबरन तौर-तरीकों ने राजनीतिक दलों को इतना भयभीत कर दिया कि उन्होंने जनसंख्या विस्फोट से आंखें ही मूंद लीं। हालत यह हुई कि जनसंख्या नियंत्रण विभाग का नाम ही बदलकर परिवार नियोजन कर दिया गया। नए नाम वाले इस विभाग ने अपनी सारी ऊर्जा गर्भनिरोधक उपायों के प्रचार-प्रसार में लगा दी और इस तरह जनसंख्या नियंत्रण का मसला सदैव के लिए नेपथ्य में चला गया। ऐसा तब हुआ जब भारत दुनिया का पहला देश था जिसने बढ़ती जनसंख्या की समस्याओं का संज्ञान लिया और 1952 में ही आबादी नियंत्रण का राष्ट्रीय कार्यक्रम शुरू किया। चूंकि भारत ऐसा करने वाला पहला देश बना इसलिए दुनिया के उन देशों ने भी हमसे सीख ली जहां जनसंख्या तेजी के साथ बढ़ रही थी।

इसका कोई मतलब नहीं कि हम हर साल जून में आपातकाल की याद करें, लेकिन यह भूल जाएं कि कैसे इस काले कालखंड ने एक जरूरी राष्ट्रीय कार्यक्रम को हमेशा के लिए पटरी से उतार दिया? यह सही है कि आपातकाल के दौरान संजय गांधी की सनक के चलते जनसंख्या नियंत्रण का अभियान एक दहशत बन गया था, लेकिन जरूरत इस दहशत को खत्म करने की थी, न कि इस जरूरी अभियान को विस्मृत कर देने की। हमारे नेताओं ने दहशत खत्म करने के नाम पर एक उपयोगी राष्ट्रीय कार्यक्रम को एक तरह से ठंडे बस्ते में डाल दिया। इसका ही यह दुष्परिणाम हैैं कि भारत आबादी के मामले में जल्द ही चीन को पछाड़ने वाला है।

आज जैसा माहौल है उसमें अगर कोई राजनीतिक दल और खासकर सत्तारूढ़ दल जनसंख्या नियंत्रण की जरूरत भी जताए तो उसे जनविरोधी करार देने में समय नहीं लगेगा। दुनिया के अन्य देशों की तरह हम भी 11 जुलाई को जनसंख्या दिवस मनाते हैैं, लेकिन इस दौरान महज रस्म अदायगी ही होती है। सभा-संगोष्ठी में चर्चा-परिचर्चा करके यह मान लिया जाता है कि जनता को बेलगाम बढ़ती जनसंख्या के खतरों से अच्छी तरह आगाह कर दिया गया। नि:संदेह पढ़ा-लिखा तबका परिवार नियोजन की महत्ता से परिचित है, लेकिन अनपढ़-निर्धन तबका इसके प्रति सचेत नहीं कि जरूरत से ज्यादा बड़ा परिवार मुसीबत की जड़ है।

भला हो सुप्रीम कोर्ट का कि उसने सरकार की ओर से जनसंख्या नियंत्रण की कोई प्रभावी नीति बनाए जाने की मांग वाली याचिकाओं को मंजूर कर लिया है, लेकिन उसे ऐसा कोई फैसला भी देना होगा जिससे अभीष्ट की पूर्ति हो। और भी बेहतर होगा कि वह राजनीतिक दलों को यह हिदायत भी दे कि वे फालतू के मसलों पर तू तू- मैैं मैैं करने के बजाय समाज और देश की चिंता करना सीखें।

इसमें संदेह है कि सुप्रीम कोर्ट राजनीतिक दलों को ऐसी कोई हिदायत देगा और यदि देगा भी तो उनकी सेहत पर कोई असर पड़ेगा, लेकिन इसमें दोराय नहीं कि वे जनहित से जुड़े मसलों पर चर्चा करने से कन्नी ही अधिक काटते हैैं। ऐसा करके वे न केवल सच का सामना करने से इन्कार करते हैैं, बल्कि अपने स्वार्थी रवैये का परिचय देते हैैं।

[ लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं ]