[ डॉ. ऋतु सारस्वत ]: यह स्वतंत्रता दिवस एक बार फिर महिला सबलीकरण के द्वार पर दस्तक देकर गया। यही दस्तक 2014 में भी सुनाई दी थी, जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से शौचालय का प्रश्न उठाया था और उसे महिलाओं की गरिमा से जोड़ा था। इस वर्ष प्रधानमंत्री ने उस वर्जना पर प्रहार किया, जिसने भारतीय महिलाओं का जीवन पीड़ादायक बना रखा है। उन्होंने कहा कि गरीब बहनों और बेटियों के लिए बेहतर स्वास्थ्य सेवा प्रदान करने को लेकर सरकार चिंतित है। उन्होंने महिलाओं के लिए सैनिटरी नैपकिन की सस्ती पहुंच के लिए सरकार के प्रयासों का विशेष तौर पर जिक्र किया। इसे माहवारी से जुड़ी वर्जनाओं को तोड़ने की दिशा में उठाए गए कदम के तौर पर देखा गया। इस पर आगे भी चर्चा की दरकार है। ध्यान रहे कि संयुक्त राष्ट्र ने मासिक धर्म की स्वच्छता को वैश्विक मुद्दा माना है। विश्व स्तर पर करीब 1.2 अरब महिलाओं को बुनियादी स्वच्छता नहीं मिलती, जिसके चलते वे बीमारियों का शिकार होती हैं और चूंकि माहवारी किशोरावस्था में आरंभ हो जाती है, इसलिए उस दौरान बरती जाने वाली अस्वच्छता एक अस्वच्छ समाज का निर्माण करती है।

57.6 फीसद भारतीय महिलाएं ही सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं

विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक रिपोर्ट बताती है कि 35 प्रतिशत से अधिक बीमारी और वयस्कों में लगभग 60 प्रतिशत समय से पहले मौतें उन व्यवहारों से जुड़ी होती हैं, जो किशोरावस्था के दौरान शुरू होती हैं। यदि भारत 10 और 19 वर्ष की आयु के बीच देश के 23.65 करोड़ बच्चों के स्वास्थ्य में सुधार करने में सक्षम हो जाता है, तो यह एक स्वस्थ और अधिक उत्पादक कामकाजी आबादी बनाएगा। यह एक दुर्भाग्यपूर्ण सच है कि समाज में लैंगिक भेदभाव के चलते माहवारी को महिला जनित समस्या मानकर उसकी ओर ध्यान नहीं दिया जाता। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार 57.6 प्रतिशत भारतीय महिलाएं ही सैनिटरी पैड का इस्तेमाल करती हैं, जबकि शेष अभी भी कपड़े, राख, जूट और अन्य सामग्री का इस्तेमाल कर अपनी जान जोखिम में डालती हैं। प्रश्न यह है कि क्या वे ऐसा जानबूझकर करती हैं?

आर्थिक विवशता के चलते भी महिलाएं अस्वच्छ साधनों का प्रयोग करती हैं

वास्तविकता यह है कि महिलाओं को इस संबंध में जानकारी नहीं है। एक और सच यह भी है कि आर्थिक विवशता के चलते भी महिलाएं अस्वच्छ साधनों का प्रयोग करती हैं। विश्व की एक चौथाई महिलाएं सर्वाइकल कैंसर से मरती हैं, जिसका प्रमुख कारण मासिक धर्म में बरती जाने वाली अस्वच्छता है। मासिक धर्म संबंधी अनुचित धारणाओं और वर्जनाओं को तोडे़ जाने की आवश्यकता है। माहवारी के विषय में सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से तमाम गलत धारणाएं, वर्जनाएं और मिथक कायम हैं। इनकी वजह से महिलाओं और लड़कियों को भेदभाव का सामना करना पड़ता है।

समाज आधी दुनिया के विकास को अवरुद्ध कर रहा

भारत समेत कई देशों में अब भी मासिक धर्म के दौरान पितृसत्तात्मक नियंत्रण और महिलाओं की आवाजाही पर पाबंदियां उनकी समानता के अधिकारों को कमजोर बनाती हैं। कलंक और शर्मिंदगी का अहसास उन्हेंं जिस तरह कराया जाता है, वह उन्हेंं अशक्त करता है। यह पीड़ादायक नहीं, तो और क्या है कि माहवारी के चलते बच्चियांं स्कूल जाना छोड़ देती हैं? चौथे राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़े बताते हैं कि भारत में लगभग 23 प्रतिशत लड़कियों ने स्कूल छोड़ने के मुख्य कारण के रूप में मासिक धर्म को सूचीबद्ध किया। जिसे समाज महज महिलाओं की समस्या कहकर नकार देता है, वह आधी दुनिया के विकास को अवरुद्ध कर रही है।

सैनिटरी नैपकिंस के इस्तेमाल को लेकर झिझक

एक लड़की के मानसिक विकास के लिए यह बेहद जरूरी है कि वह अपने शरीर और उससे जुड़े परिवर्तन के बारे में सकारात्मक सोच के साथ जागरूक हो, किंतु दुखद पहलू यह है कि सामाजिक सोच ठीक इसके उलट है। भारत समेत कई देशों में माहवारी को प्राकृतिक-शारीरिक प्रक्रिया के रूप में देखे जाने के बजाय तमाम नकारात्मक धारणाओं से जोड़कर देखा जाता है और इसके बारे में चर्चा करना भी वर्जित समझा जाता है। इस पर चर्चा को बल देने के लिए हाल के वर्षों में कई किताबें सामने आई हैं, जैसे ‘फ्लो’ और ‘मॉय लिटिल रेड बुक’। विज्ञापन जगत में भी सैनिटरी नैपकिंस के इस्तेमाल को लेकर झिझक सी दिखाई देती है। विज्ञापनों में पैड पर नीले रंग के तरल को दिखाना इसका प्रमाण है।

सैनिटरी नैपकिन के विज्ञापन का विरोध

2010 में ऑलवेज एडवरटाइजिंग कंपनी ने पहली बार एक सैनिटरी नैपकिन के विज्ञापन में मासिक धर्म को दर्शाने के लिए लाल रंग के धब्बे इस्तेमाल किए थे। उस विज्ञापन का काफी विरोध किया गया। यह विरोध इस सत्य की प्रामाणिकता है कि आज भी तमाम उन्नति के दावों के बीच माहवारी का विषय बंद कोठरी में सड़ रहा है, जो बच्चियों के भीतर अपराधबोध और ग्लानि की भावनाओं को इस कदर भर देता है कि उन्हेंं अपने लड़की होने का दुख होता है। जो मासिक चक्र एक स्त्री को संपूर्णता देकर भावी पीढ़ी को जन्म देने में सक्षम बनाए, उसके प्रति नकारात्मक सोच चिंता का विषय है। अगर समय रहते इन वर्जनाओं को नहीं तोड़ा गया, तो आधी आबादी अपने स्वाभिमान की राह को सहजता से नहीं खोज पाएगी।

वर्जनाओं को तोड़ने की शुरुआत घर से ही करनी होगी और उसके बाद स्कूल से

माहवारी से जुड़ी वर्जनाओं को तोड़ने की शुरुआत घर से ही करनी होगी और उसके बाद स्कूल से। यह जरूरी है कि इस संबंध में शिक्षकों को प्रशिक्षित किया जाए और स्कूली वातावरण को बच्चियों के लिए सकारात्मकता से भरपूर बनाया जाए। स्कॉटलैंड में महिलाओं को मुफ्त में सैनिटरी नैपकिन देने का प्रस्ताव आया है। ऐसा ही कुछ अन्य देशों को भी करना होगा। उल्लेखनीय है कि भारत में भी अब स्कूलों और महिला महाविद्यालयों में सैनिटरी नैपकिन मुफ्त में दी जा रही है, परंतु अभी बहुत कुछ करना शेष है। अच्छा होगा कि प्रधानमंत्री ने लाल किले से जो कुछ कहा उस पर समाज चर्चा करे।

( लेखिका समाजशास्त्र की प्रोफेसर हैं )