[संजय गुप्त]। उत्तर भारत में वायु प्रदूषण के बढ़ते प्रकोप के कारण लोगों की सेहत के लिए भयंकर स्थिति पैदा हो गई है, लेकिन उससे निजात मिलने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही है। इसका एक कारण सरकारी तंत्र की घोर उदासीनता है। शायद इसी रवैये के चलते बीते दिनों शहरी विकास मंत्रालय से जुड़ी संसदीय समिति की ओर से प्रदूषण को लेकर बुलाई गई बैठक में कई विभागों के अधिकारी पहुंचे ही नहीं। सरकारी तंत्र के ऐसे रवैये के लिए एक हद तक केंद्र सरकार भी जिम्मेदार है।

इस समिति में 30 संसद सदस्य भी हैं, लेकिन बैठक में समिति के अध्यक्ष सहित कुल चार सदस्य ही पहुंचे। इस रवैये की आलोचना ही की जा सकती है, लेकिन सारा दोष इस समिति पर भी नहीं मढ़ा जा सकता, क्योंकि जिन्हें प्रदूषण से निपटने में राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखानी चाहिए वे उसका परिचय देने से इन्कार कर रहे हैं।

लोगों के लिए सांस लेना मुश्किल

यह किसी से छिपा नहीं कि प्रति वर्ष अक्टूबर और नवंबर के महीने में जब मौसम बदलता है तब पराली का धुआं, धूल के कण या वाहनों के उत्सर्जन से वातावरण इस कदर प्रदूषित हो जाता है कि लोगों के लिए सांस लेना तक मुश्किल हो जाता है।

चूंकि वायु प्रदूषण को लेकर कोई भी राजनीतिक दल संजीदा नहीं दिखता इसीलिए समय के साथ स्थिति लगातार विकराल होती जा रही है। पिछले कुछ वर्षो में उच्चतम न्यायालय की डांट-फटकार और एनजीटी की सख्ती के बाद जो कदम उठाए गए हैं उससे स्थिति में थोड़ा-बहुत तो सुधार आया है, लेकिन उसे पर्याप्त नहीं कहा जा सकता।

अक्टूब में शुरू होती है पराली जलना

सच्चाई यही है कि मीडिया में तमाम चर्चा और आम लोगों में जागरूकता के बाद भी ऐसे कदम नहीं उठाए जा सके हैं जिससे वायु प्रदूषण पर लगाम लगती दिखे। अक्टूबर में जब उत्तर भारत के तापमान में कमी आनी शुरू होती है तभी पंजाब और हरियाणा में पराली जलनी शुरू होती है।

इस पराली का धुआं, सड़कों की धूल, वाहनों का उत्सर्जन आदि मिलकर आसमान मे स्मॉग पैदा करते हैं। यह स्मॉग या तो तेज हवा से दूर होता है या फिर बारिश से। वायुमंडल को दूषित करने में पराली दहन एक बड़ा कारण है। मूलत: यह पराली धान की फसल का अवशेष होती है।

पराली का धुंआ ले लेता है स्मॉग का रूप

पंजाब और हरियाणा के किसान इसे जलाना पसंद करते हैं। वे वर्षों से ऐसा करते चले आ रहे हैं। पंजाब और हरियाणा में जैसे-जैसे धान का रकबा बढ़ रहा है वैसे-वैसे पराली जलने से पर्यावरण को होने वाला नुकसान भी बढ़ रहा है। पराली जलाने का काम पंजाब, हरियाणा के साथ-साथ पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में भी होता है। चूंकि सर्दियां आते ही पश्चिम की तरफ से हवा चलने लगती है इसलिए पाकिस्तान से लेकर पंजाब, हरियाणा में जलने वाली पराली का सारा धुआं दिल्ली और आसपास के आसमान पर छाकर स्मॉग का रूप ले लेता है। 

जैसे हाल के समय में पंजाब और हरियाणा में धान की खेती का रकबा बढ़ा है वैसे ही दिल्ली और आसपास किस्म-किस्म के निर्माण कार्यों में तेजी आई है। इसके चलते निर्माण स्थलों से उड़ने वाली धूल की मात्रा बढ़ी है। इसी के साथ पर्यावरण को नुकसान पहुंचाने वाले वाहनों के उत्सर्जन की मात्रा में भी वृद्धि हुई है।

दिल्ली एनसीआर में आबादी का घनत्व ज्यादा

इसकी वजह यही है कि दिल्ली-एनसीआर में वाहनों की संख्या बढ़ी है। इसका कारण दिल्ली-एनसीआर में आबादी का घनत्व ज्यादा होना है। दिल्ली-एनसीआर में प्रदूषण का एक कारण दशहरे और दिवाली में पटाखों का इस्तेमाल भी है। हालांकि धीरे-धीरे उनका इस्तेमाल कम हो रहा है, लेकिन बेहतर होगा कि उनका इस्तेमाल और कम किया जाए।

हालांकि वायु प्रदूषण जितना दिल्ली को त्रस्त करता है उतना ही उत्तर भारत के अन्य शहरों को भी, लेकिन दिल्ली के प्रदूषण की ही चर्चा ज्यादा होती है। उच्चतम न्यायालय हो या एनजीटी अथवा केंद्र सरकार, उनकी ओर से तभी सक्रियता दिखाई जाती है जब दिल्ली एनसीआर का प्रदूषण खबरों का हिस्सा बनता है।

पंजाब और हरियाणा में कम नहीं हो रहा पराली जलाना

पता नहीं क्यों यह देखने से इन्कार किया जा रहा है कि पंजाब और हरियाणा में पराली जलना इसलिए कम नहीं हो रहा है, क्योंकि किसान धान की खेती करना पसंद कर रहे हैं। इसका कारण मुफ्त बिजली देने की नीति और धान की सरकारी खरीद है। मुफ्त बिजली के कारण किसान भूजल का जमकर दोहन करते हुए धान की फसल इसलिए उगाते हैं, क्योंकि उसकी सरकारी खरीद का भरोसा रहता है।

पराली जलाने का सिलसिला इसलिए भी नहीं थम रहा, क्योंकि उसके निस्तारण के सही उपाय नहीं किए जा सके हैं। समझना कठिन है कि हमारे नीति-नियंता इससे अनजान क्यों बने रहे कि पराली का धुआं पर्यावरण को घातक क्षति पहुंचा रहा है।

पराली न जलाने के एवज में निश्चित राशि देने की मांग

चूंकि किसानों को खेत खाली करके उस पर गेहूं बोने की जल्दी रहती है इसलिए वे पराली जलाना बेहतर समझते हैं। पराली न जलाने के एवज में किसानों को एक निश्चित राशि देने की मांग न तो पंजाब सरकार पूरी कर सकी और न ही हरियाणा सरकार। वे केंद्र सरकार का मुंह देखती रहीं। इस वर्ष हरियाणा ने तो पराली दहन रोकने के लिए जब तक कुछ कदम उठाए तब तक तमाम पराली जल चुकी थी। पंजाब सरकार एक तरह से हाथ पर हाथ धरे बैठी रही।

हालांकि वायु प्रदूषण को लेकर शहरों में जागरूकता आई है, लेकिन ग्रामीण भारत में स्थिति जस की तस है। यह सही है कि मोदी सरकार के आने के उपरांत एलपीजी सिलेंडर का वितरण बढ़ाए जाने के कारण चूल्हों का इस्तेमाल कम हुआ है, लेकिन ग्रामीण इलाकों में अभी भी कोयले और लकड़ी का इस्तेमाल खाना बनाने में किया जा रहा है। बेहतर हो कि प्रदूषण से बचने के लिए वैसी ही ठोस पहल हो जैसी एक समय सुप्रीम कोर्ट की ओर से दिल्ली में हुई थी और उसके इसके तहत दिल्ली में सीएनजी बसों को अनिवार्य करने के साथ कारखानों को बाहर किया गया था।

राष्ट्रमंडल खेलों के दौरान वायु प्रदूषण को लेकर खुली आंखें

एक समय था जब दिल्ली-एनसीआर में सरकारों के साथ तमाम पर्यावरणविद् भी दूषित होते पर्यावरण की अनदेखी ही कर रहे थे। यह तब था जब पराली कोे प्रदूषण की वजह बताया जा रहा था। दैनिक जागरण इसमें अग्रणी था। वायु प्रदूषण को लेकर आंखें तब खुलीं जब राष्ट्रमंडल खेलों की तैयारी के दौरान दिल्ली के पर्यावरण को लेकर अंतरराष्ट्रीय मीडिया ने चिंता जतानी शुरू की। इसके बाद दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने यह कहना शुरू किया कि वायु प्रदूषण का कारण हरियाणा, पंजाब में पराली जलना है। प्रदूषण पर लगाम लगाने के लिए दिल्ली सरकार ने इस वर्ष भी सम-विषम योजना पर अमल किया, लेकिन यह योजना एक सीमा तक ही प्रभावी दिखती है।

इसका एक कारण इस योजना से दोपहिया वाहनों को बाहर रखा जाना है। ऐसे आधे-अधूरे उपाय राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी को ही प्रकट करते हैं। दुर्भाग्य से यह कमी राज्य सरकारों और उनकी विभिन्न एजेंसियों के साथ केंद्र सरकार में भी दिखती है। उन्हें यह समझने की सख्त जरूरत है कि प्रदूषण नियंत्रण के लिए उनकी ओर से बहुत कुछ किया जाना शेष है।

(लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं)