[ संतोष त्रिवेदी ]: धीरे-धीरे सब कुछ खुल रहा है- लॉकडाउन भी, वायरस भी और हम भी। पहले सरकार खुली फिर विपक्ष। हवाई जहाज भी खुले। रेलगाड़ियां खुलीं तो उनके ड्राइवर भी खुल गए। जाना था दूलापुर, पहुंच गए दौलतपुर। आखिर कोई कहां तक धीर धरे। सरकार ने कई दिनों तक पिटारी खोली, फिर नियम खोले। विपक्ष ने दावे खोले, पोल खोली। सब अपनी-अपनी भूमिका पूरी निष्ठा से निभा रहे। सबसे बड़ी ईमानदारी तो सियासत ने दिखाई। उसकी चाल वायरस से भी तेज हो गई है। शुरुआती संकोच के बाद सब अपनी-अपनी गोटियां उछाल रहे। उनको लगता है वे सब रोटियां बनकर जमीन पर गिरेंगी। गरीब आदमी से सब बेइंतहा प्यार करने पर तुले हुए हैं। जब सरकार और विपक्ष, दोनों उसे बचाने के लिए प्रतिबद्ध हो जाएं तो समझिए उसे कोई नहीं बचा सकता। गरीब का मरना कोई अनहोनी नहीं है, बल्कि ऐसे समय में उसका बच जाना अचरज से भरा है।

लॉकडाउन सरकार द्वारा जल्दबाजी में उठाया गया कदम: विपक्ष

जब लॉकडाउन लगा तो विपक्ष ने रहस्य खोला कि सरकार ने जल्दबाजी में कदम उठाया है। जब चरणों में लॉकडाउन खुलने लगा तब विपक्ष की आंखें खुलीं कि सरकार के ये चरण तो बिल्कुल गलत हैं और उसका आचरण भी संदिग्ध है। वह बिना सोचे-समझे सब कुछ खोल रही है। कम से कम पोल खोलने का अधिकार तो विपक्ष के पास होता। सरकार को लोकतंत्र की यह न्यूनतम मर्यादा रखनी चाहिए, पर सरकार भी क्या-क्या रखे! उसके पास चतुर प्रवक्ता हैं जिनके पास जवाब देने से अधिक सवाल करने का हुनर है।

सरकार ने कहा- लोगों को अब कोरोना के साथ ही जीना होगा

और वायरस का क्या कहना! उसका चेहरा,चाल और चरित्र अबूझ है। सरकार से अधिक जनता में उसकी घुसपैठ हो गई है। जब उससे बचने की कोई उम्मीद नहीं दिख रही तब लोगों का डर भी खुलने लगा है। एक पुरानी मान्यता है कि जिस शत्रु से जीत न पाओ, उसे अपना लो। जबसे यह खबर आई कि इसके साथ ही जीना होगा, जीवन के प्रति सारी धारणाएं बदल गई हैं। दुखी लोग दार्शनिक हो गए हैं। भूख-प्यास से विरक्ति-सी हो गई है। जीवन से मोह नहीं रहा।

जो बड़े और कड़े नियमों से नहीं डरता वह एक वायरस से क्यों डरे

जो बड़े और कड़े नियमों से नहीं डरता वह एक वायरस से क्यों डरे? मरने का डर तभी तक रहता है जब तक जीने की कोई उम्मीद बचती है। वैसे भी डर का अपना बाजार होता है। जब डर पर्याप्त मात्रा में बिक जाता है तो स्वत: समाप्त हो जाता है। जैसे मार के आगे भूत भागते हैं, वैसे ही अब डर भाग रहा है-खुल रहा है। ऐसे माहौल में न हमें, न ही कोरोना को मुंह छिपाने की जरूरत है। इसलिए वह अब निडरता से खुलेआम सड़कों और मुहल्लों में प्रसाद की तरह बंट रहा है। एक आपदा ने न जाने क्या-क्या खोल दिया है। जो होशियार हैं, वे इसे अवसर की तरह ले रहे हैं। आम आपदाएं तो अब सामान्य हो चली हैं। उनमें अवसर भी सीमित हैं। इसमें अधिक हैं। इसलिए जमाखोर और कमीशनखोर पूरी निष्ठा से इस आपदा में अथाह अवसर तलाश रहे हैं।

सोशल मीडिया में नई आपदा

बाजार के अलावा साहित्य भी यही कोशिश कर रहा है। कुछ लोग मरते हैं, कुछ उन पर कहानियां रचते हैं। कवि और लेखक सोशल मीडिया पर खुल रहे हैं। संवेदनाएं भरे पेट से बाहर आ रही हैं। बरसों से उपेक्षित रहे वरिष्ठ अब कहीं जाकर मुख्यधारा से जुड़ सके हैं। आलोचकों की कोई नहीं सुन रहा है। सब अपनी-अपनी सुना रहे हैं। जिन रचनाओं को वे कभी लिखकर खुद नहीं समझ पाए, उन्हें सोशल मीडिया में खोल रहे हैं। पाठकों और श्रोताओं के लिए यह नई आपदा है। वे विचलित हैं।

कोरोना से आयी आपदा ने पेट और अरमान दोनों भरे

पहले समारोहों में जाकर बोर होते थे, अब घर बैठे हो रहे हैं। इस आपदा से हमें सिर्फ इतना ही फर्क पड़ा है कि हमारी बोरियत बदल गई है। इसे सकारात्मक रूप से लेने की जरूरत है। भले ही कुछ लोगों को मुट्ठी-भर अनाज नहीं मिला हो, अपने घर नहीं लौट सके हों पर इस आपदा ने बहुतों के पेट और अरमान दोनों भरे हैं। आने वाले दिनों में कुछ और चीजें खुलेंगी। कुछ पत्र खुलेंगे, कुछ पैकेज भी। क्या पता तब हम उसे लपकने से रह जाएं!

( लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं )