उमेश चतुर्वेदी। अफसोसजनक तथ्य ही है कि इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विशाल उभार के दौर में इसके कंटेंट के नियमन की कोई आधिकारिक व्यवस्था नहीं बन पाई है। कहने के लिए ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी तो है, पर वह कंटेंट को नियमित करने की दिशा में कारगर नहीं हो पाई है। शायद यही वजह है कि आए दिन टीवी समाचार चैनलों की रिपोर्टिंग पर समाज के जिम्मेदार तबकों की तरफ से सवाल उठते रहे हैं। ये सवाल कई बार अदालतों तक भी पहुंचते रहे हैं।

लेकिन हर बार इलेक्ट्रॉनिक माध्यम स्वनियमन की अपनी व्यवस्था देकर बचते रहे हैं। सरकारी तंत्र इस व्यवस्था में हस्तक्षेप करने से बचता रहा है। उसे इस बात की आशंका सताती रही है कि अगर उसने हस्तक्षेप किया तो मीडिया समुदाय इसे अपनी स्वाधीनता पर हमला मान सकता है। शायद यही वजह है कि बंबई हाईकोर्ट ने इलेक्ट्रॉनिक माध्यमों के कंटेंट के नियमन की व्यवस्था नहीं होने पर हैरानी जताते हुए इस बारे में सूचना और प्रसारण मंत्रलय से जवाब भी मांगा है।

इन दिनों टीवी समाचार चैनलों का हॉट केक सुशांत सिंह राजपूत की कथित आत्महत्या का मामला बना हुआ है। इस मामले की जांच से जुड़े तथ्यों के इलेक्ट्रॉनिक चैनलों से लगातार होते रहे खुलासे से नाराज महाराष्ट्र पुलिस के कुछ पूर्व अधिकारियों ने बंबई हाईकोर्ट में जनहित याचिका डालकर कहा था कि कई टीवी चैनल समानांतर जांच चला रहे हैं। इसी मामले की सुनवाई करते हुए दस सितंबर को हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश दीपांकर दत्ता और जीएस कुलकर्णी की पीठ ने हैरानी जताई कि टीवी चैनलों के कंटेंट के नियमन को लेकर कोई व्यवस्था नहीं है। इसके पहले भी हाईकोर्ट ने मीडिया से इस मामले की रिपोìटग करते हुए जिम्मेदारी दिखाने की बात कही थी।

भारत में जब भी मीडिया के नियमन की बात आती है, तो मीडिया हाउस इसे स्वनियमन के हवाले करने की मांग करते रहे हैं। वाजपेयी सरकार में सूचना और प्रसारण मंत्री रहते सुषमा स्वराज ने मीडिया की स्थिति पर विचार करने के लिए मीडिया कमीशन को गठित करने का विचार दिया था। उस वक्त भी मीडिया घरानों ने स्वनियमन की मांग रखी थी। भारत में राष्ट्रीय ब्रॉडकास्टिंग एसोसिएशन ने स्वनियमन की व्यवस्था के लिए 2007 में पूर्व मुख्य न्यायाधीश जेएस वर्मा की अध्यक्षता में ब्रॉडकास्टिंग स्टैंडर्ड अथॉरिटी का गठन तो किया, लेकिन वह व्यवस्था कारगर होती नजर नहीं आ रही है। स्वनियमन की व्यवस्था उन समाजों में ही ज्यादा कारगर हो सकती है, जहां कारोबार में भी उच्च नैतिक मानदंडों का पालन हो। उदाहरण के लिए अमेरिका में रेडियो-टीवी प्रोड्यूसर एसोसिएशन है, जिसने प्रोड्यूसरों और रिपोर्टरों के लिए दिशा-निर्देश तय कर रखे हैं। इसके बावजूद अगर वहां कंटेंट को लेकर किसी को शिकायत होती है, तो वह फेडरल कम्युनिकेशन कमीशन का दरवाजा खटखटा सकता है। प्रेस की स्वतंत्रता का विचार जिस ब्रिटेन से आया, वहां भी ऑफिस ऑफ कम्युनिकेशन कार्य करता है। ब्रिटेन की नियमन व्यवस्था सबसे बेहतर मानी जाती है।

ब्रिटेन में बीबीसी जहां लाइसेंस धारकों से मिली फीस पर चलता है, वहीं भारत में चाहे चैनल हों या अखबार, उनकी निर्भरता ग्राहकों से मिली फीस के बजाय विज्ञापन पर ज्यादा है। ऐसे में विज्ञापनदाता, चाहे वह सरकार हो या फिर कोई निजी कॉरपोरेट घराना, वह कंटेंट पर प्रभाव डालता है। इन सबके बीच जवाबदेही व जिम्मेदारी का लगातार क्षरण हुआ है। इसी वजह से प्रायोजित रिपोìटग और तमाशा संस्कृति हावी होती गई है। यदि कभी इसकी शिकायत की भी जाती है, तो स्वनियमन की व्यवस्था ज्यादातर मामलों में रस्मी कार्रवाई करती नजर आती है। इसलिए यहां भी वैधानिक तरीके से नियमन होना चाहिए।

[वरिष्ठ पत्रकार]