संजय गुप्त

पांच तिमाहियों के बाद आर्थिक विकास दर में उछाल दर्ज होना मोदी सरकार के लिए न केवल आर्थिक मोर्चे पर राहतकारी है, बल्कि राजनीतिक मोर्चे पर भी। ऐसा इसलिए, क्योंकि गुजरात चुनाव में अन्य अनेक मसलों के साथ अर्थव्यवस्था की सेहत को भी एक मुद्दा बनाया जा रहा है। चूंकि जीडीपी में उछाल यह भी बताता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था नोटबंदी के साथ-साथ जीएसटी के असर से भी मुक्त हो रही है इसलिए यह स्वाभाविक है कि सरकार राहत महसूस करती दिख रही है। हालांकि यह पहले से तय था कि नोटबंदी का कुछ न कुछ असर जीडीपी पर पड़ेगा, लेकिन इसके बावजूद आर्थिक विकास दर में गिरावट को राजनीतिक मसला बनाने की कोशिश की गई। चूंकि अर्थव्यवस्था जब नोटबंदी के असर से मुक्त हो रही थी तभी जीएसटी पर अमल शुरू हो गया और उसकी जटिलता के कारण जीडीपी पर असर पड़ा इसलिए विपक्षी दलों और खासकर कांग्रेस की ओर से यह कहा जाने लगा कि मोदी सरकार की नीतियों के चलते अर्थव्यवस्था की हालत खराब हो रही है। हालांकि यह भी पहले से तय था कि जब भी जीएसटी पर अमल होगा उद्योग-व्यापार जगत को कुछ मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा, लेकिन इसके बावजूद जीएसटी का हौवा बनाने की कोशिश की गई। उसे गब्बर सिंह टैक्स तक कहा गया। जीएसटी को किस तरह सस्ती राजनीति का मुद्दा बनाने की कोशिश की गई, यह इससे पता चलता है कि कांग्रेस ने बीते दिनों सूरत में गब्बर सिंह, सांभा, कालिया वगैरह के वेश में एक जुलूस निकाला।

आर्थिक मसलों को चुनावी मुद्दा बनाने में हर्ज नहीं, लेकिन ऐसा करते समय तथ्यों को मनमाने तरीके से पेश नहीं किया जाना चाहिए। यह कहना कठिन है कि जीडीपी के ताजा आंकड़े सामने आने के बाद कांग्रेस जीएसटी को मसला बनाने की कोशिश जारी रखेगी या बंद करेगी, लेकिन यह तय है कि सरकार और भाजपा इसे अपनी एक उपलब्धि के तौर पर प्रचारित करेगी। यह स्वाभाविक भी है, लेकिन जहां यह उत्साहजनक है कि आखिरकार जीडीपी में वृद्धि का सिलसिला कायम हुआ वहीं इसके प्रति सतर्क रहने की भी आवश्यकता है कि आर्थिक वृद्धि दर में बढ़त का यह क्रम जारी रहे। यह ठीक है कि जीएसटी में सुधार की प्रक्रिया जारी है और उसके बेहतर असर भी दिखेंगे, लेकिन केवल इतना ही पर्याप्त नहीं है। अब जब यह कहा जा रहा है कि अर्थव्यवस्था नोटबंदी और जीएसटी जैसे अल्पकालिक झटकों से मुक्त हो चुकी है तब फिर इस दिशा में ठोस कदम उठाए जाने चाहिए कि पेट्रोलियम उत्पाद और रियल्टी सेक्टर जीएसटी के दायरे में कैसे आएं? सच तो यह है कि शराब को भी जीएसटी के दायरे में लाया जाना चाहिए, क्योंकि इन सबको सबसे बड़े टैक्स सुधार के दायरे से बाहर रखने का कोई औचित्य नहीं दिख रहा है। सरकार इसकी भी अनदेखी नहीं कर सकती कि जीडीपी में वृद्धि के बावजूद निवेश के मोर्चे पर स्थिति बहुत उत्साहजनक नहीं। यह ठीक नहीं कि विदेशी पूंजी निवेश के साथ-साथ घरेलू उद्यमी भी पूंजी निवेश करने के लिए और इंतजार करते दिख रहे हैं। अब जब कारोबारी माहौल में सुगमता पर मुहर लग गई है तब फिर सरकार को यह देखना ही चाहिए अपेक्षित पूंजी निवेश क्यों नहीं हो रहा है? जीडीपी में वृद्धि के आंकड़ों का एक सच यह भी है कि कृषि और सेवा क्षेत्र में गिरावट के साथ अर्थव्यवस्था में निर्यात की भी भागीदारी कम दिख रही है। यह पिछली तिमाही के 1.2 फीसद के स्तर पर ही नजर आ रहा है।
सरकार को जिस मोर्चे पर सबसे अधिक ध्यान देने की जरूरत है वह है कृषि क्षेत्र। कृषि क्षेत्र की हालत में सुधार सरकार की प्राथमिकता सूची में होना चाहिए। यह इसलिए ,क्योंकि जीडीपी के ताजा आंकड़ों में कृषि क्षेत्र में विकास दर महज 1.7 प्रतिशत ही दिख रही है। यह वृद्धि दर पिछली तिमाही से भी कम है? ऐसा क्यों है, इसके कारणों का पता करके उनका निवारण करने पर तुरंत ध्यान दिया जाना चाहिए। एक तो इसलिए कि सरकार बार-बार यह कह रही है कि वह अगले पांच सालों में किसानों की आय दोगुना करना चाहती है और दूसरे, इसलिए कि खेती पर एक बड़ी आबादी निर्भर है। आखिर कृषि क्षेत्र की मौजूदा वृद्धि दर से किसानों की आय दोगुनी कैसे होगी? हालांकि कृषि क्षेत्र और किसानों की हालत में सुधार के लिए कई कदम उठाए गए हैं, लेकिन अभी तक उनके सकारात्मक परिणाम सामने आते नहीं दिख रहे हैं। किसानों की एक बड़ी समस्या खेती की लागत बढ़ते जाना और उपज का उचित मूल्य न मिल पाना है। सरकार के नीति-नियंता इसकी अनदेखी नहीं कर सकते कि इस समस्या का समाधान फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में वृद्धि से भी नहीं हो पा रहा है। किसानों को लागत से कुछ अधिक मूल्य कैसे मिले, इसे सुनिश्चित करने के साथ ही कृषि क्षेत्र पर आबादी के बड़े हिस्से की निर्भरता कम करने की भी जरूरत है। इस जरूरत की पूर्ति तब होगी जब उद्योग-व्यापार जगत में रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध होंगे।
यह सही है कि जीडीपी के ताजा आंकड़े सरकार को राहत देने और यह कहने का अवसर देने वाले हैं कि अर्थव्यवस्था की स्थिति को लेकर निराशा जताने का कोई मतलब नहीं, लेकिन इसी के साथ वह इसकी अनदेखी नहीं कर सकती कि राजकोषीय घाटा बढ़ता जा रहा है। अक्टूबर के अंत तक राजकोषीय घाटा पूरे वित्त वर्ष के लक्ष्य के 96 फीसद तक पहुंच गया था। इसके चलते चालू वित्त वर्ष में राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पार करने की आशंका जताई जा रही है। इस आशंका का मूल कारण सरकार का खर्च अधिक और आमदनी अनुमान से कम रहना है। इसी आशंका के चलते जीडीपी में वृद्धि के आंकड़ों के बावजूद शेयर बाजार में बढ़त के बजाय गिरावट दर्ज की गई। ध्यान रहे कि सरकार ने चालू वित्त वर्ष के लिए राजकोषीय घाटे को कम कर जीडीपी के 3.2 फीसद तक लाने का लक्ष्य रखा है। यह लक्ष्य पाना इसलिए मुश्किल हो रहा है, क्योंकि कर संग्रह में कमी आ रही है। एक मुश्किल यह भी है कि कर राजस्व के साथ गैर-कर राजस्व में भी कमी आती दिख रही है। हालांकि सरकार विनिवेश के जरिये अच्छी-खासी रकम जुटाने के आश्वासन देती रही है, लेकिन विनिवेश प्रक्रिया उतनी तेजी से आगे नहीं बढ़ रही जितनी कि अपेक्षित है।
जीडीपी में वृद्धि दिखने के बावजूद सरकार को यह समझने की जरूरत है कि अर्थव्यवस्था को और गति देने एवं उसे सुदृढ़ करने की आवश्यकता बनी हुई है। जिस तरह जीएसटी में सुधार और बदलाव के लिए गठित समिति ने व्यापारियों के लिए समस्या बने तमाम नियम-कानूनों की पहचान कर ली है और सरकार उन्हें दूर करने के लिए तैयार दिख रही है उसी तरह उसे अर्थव्यवस्था की अन्य समस्याओं के समाधान पर भी गंभीरता से ध्यान देना चाहिए। इससे ही उद्योग-व्यापार जगत को राहत मिलने के साथ ही सरकार अर्थव्यवस्था के मोर्चे पर मजबूत दिखेगी। दरअसल जब ऐसा होगा तभी आर्थिक मसलों पर नारेबाजी की राजनीति का सिलसिला थमेगा।

[ लेखक दैनिक जागरण के प्रधान संपादक हैं ]