[ सुनील मिश्र ]: इस समय में यदि भारत के सर्जनात्मक विकास और उत्कर्ष की विश्वख्याति का परिप्रेक्ष्य देखा जाए तो यह हमारे लिए थोड़ा मुश्किल समय नजर आएगा। मुश्किल इस मायने में कि हमारे बीच से जीनियस का निरंतर प्रयाण हो रहा है। साहित्य से, कला से, रंगमंच से, संगीत से, नृत्य से, सिनेमा से स्थापित मूर्धन्य अलविदा कहते जा रहे हैं। गिरीश कारनाड ऐसे ही एक मूर्धन्य थे। शारीरिक व्याधियों के चलते उन्हें अपने साथ ऑक्सीजन रखनी होती थी, लेकिन यह निर्भरता उनकी सर्जनात्मकता का कुछ भी बिगाड़ न पाती थी। वह अध्ययन, मनन, लेखन के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों के लिए भी प्राय: घर के बाहर आ जाया करते थे।

शीर्षस्थ रंगकर्मी गिरीश कारनाड

समकालीन भारतीय कला जगत में चित्रपट कथा लेखक और फिल्म निर्देशक के साथ ही शीर्षस्थ रंगकर्मी के रूप में स्थापित कारनाड का जन्म 1938 में महाराष्ट्र के माथेरान में एक चिकित्सक परिवार में हुआ था। उनका बचपन बहुत संघर्षपूर्ण था जहां उन्होंने अपनी मां को बच्चों के पालन-पोषण के लिए अनेक तकलीफें उठाते देखा था। वह बचपन से ही प्रतिभाशाली थे और अपने सभी भाई-बहनों के संरक्षक भी।

शेड्स स्कॉलरशिप

1958 में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के दो साल बाद उन्हें शेड्स स्कॉलरशिप मिली और वह ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में पढ़ाई के लिए गए। वहीं उन्होंने अपना पहला नाटक ययाति लिखा, जिसका मंचन इंग्लैंड में भी हुआ। बाद में वह लगातार नाट्य लेखन में सक्रिय रहे। चेन्नई में स्थापित ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस में प्रबंधक के रूप में काम करते हुए उन्होंने तुगलक, हयवदन, अंजुमालिगे, हूमा, हुंजा, नागमंडल, द फायर एंड द रेन नाटकों का लेखन किया। इन नाटकों से उनकी यात्रा का आकलन करें तो वह उत्तम से उत्कृष्ट होती चली गई। ये सभी कृतियां साहित्यिक मूल्यों से परिपूर्ण और रंगप्रयोगों की दृष्टि से अत्यंत समृद्ध और प्रभावी मानी जाती हैं। कारनाड ने बादल सरकार, मोहन राकेश और विजय तेंदुलकर की सक्रियता के दौर में अपनी सृजनशीलता से समानांतर प्रतिष्ठा और सम्मान अर्जित किया।

विलक्षण नाटककार से मित्रता

हिंदी के विलक्षण नाटककार पंडित सत्यदेव दुबे से उनकी गहरी मित्रता रही। हयवदन समकालीन भारतीय रंग लेखन की उत्कृष्ट उपलब्धि के रूप में उनका बहुचर्चित और प्रशंसित नाटक है। कारनाड के लिखे नाटक राष्ट्रीय ही नहीं अंतरराष्ट्रीय प्राप्त मंचों पर भी अनेकों बार प्रदर्शित होकर सराहे गए। वह मूलत: कन्नड़ लेखक थे, किंतु समकालीन सर्जनात्मक विश्व में उनकी एक अखिल भारतीय छवि सर्वमान्य थी। उनके नाटक अनेक विदेशी और भारतीय भाषाओं में अनूदित होकर मंचित हुए।

हयवदन की बर्लिन आर्ट फेस्टिवल में प्रस्तुति

1984 में जर्मन नाट्य दल द्वारा हयवदन की वायमर नाट्यगृह में प्रस्तुति और बर्लिन आर्ट फेस्टिवल में प्रदर्शन तथा 1993 में अमेरिका के मिनिपोलिस में नागमंडल की प्रथम प्रस्तुति के बाद कई देशों में उसके प्रदर्शन विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। मिथकीय धारणाओं पर आधारित उनके नाटक मनोविश्लेषणात्मक प्रतीक प्रयोगों से परिपूर्ण माने जाते थे। एक रंगकर्मी के रूप में अपनी समृद्ध पहचान को वह गंभीरतापूर्वक स्वीकारते थे, अपने लिए वह आलोचक थे और बहुधा इसे लेकर लगातार बात भी किया करते थे।

पचास से ज्यादा फिल्मों का निर्माण

सिनेमा के क्षेत्र में उनके अवदान को तो नकारा जा ही नहीं सकता। अब तक पचास से ज्यादा फिल्मों का उन्होंने निर्माण किया, दस से अधिक वृत्तचित्र बनाए और लगभग इतने ही दूरदर्शन धारावाहिकों का निर्माण भी किया। उनकी सर्वाधिक चर्चित फिल्मों में काडु का नाम लिया जाता है। संस्कारा उनकी पहली फिल्म थी जिसमें पटकथा लेखन के साथ ही उन्होंने अभिनय भी किया था। वंश वृक्ष, निशांत, मंथन, भूमिका, कलयुग, गोधूलि, उंबरठा, सुबह, स्वामी, चेलुवी आदि उनकी अन्य चर्चित फिल्में थीं। शशि कपूर के आग्रह पर उन्होंने उत्सव फिल्म का निर्देशन भी किया था जो अपने समय की एक बड़ी प्रयोगधर्मी और क्लासिक फिल्म मानी जाती है।

होमीभाभा फेलोशिप

अकीरा कुरोसावा से प्रेरित उनकी एक अत्यंत महत्वपूर्ण फिल्म ओंडानेंडु कलाउल्ली का जिक्र प्राय: होता है। कारनाड भारतीय सिनेमा में ग्रामोन्मुखी रुझान और नवयथार्थवाद के प्रतिनिधि माने जाते हैं। साठ के दशक में नवीन रंग चेतना और सत्तर के दशक में नए सिनेमा के आंदोलन के प्रेरणादायी सूत्रधारों में उनकी गणना होती है। कारनाड को 1970 में दो वर्ष के लिए रंगकर्म के क्षेत्र में सर्जनात्मक कार्य के लिए होमीभाभा फेलोशिप भी मिली।

कारनाड की उदारता

1974 में उन्होंने फिल्म एवं टेलीविजन संस्थान पुणे के पहले निदेशक के पद पर कार्य किया। इस दौरान एक दिलचस्प प्रसंग यह भी है कि जिस समय कारनाड वहां निदेशक थे, अभिनेता नसीरुद्दीन शाह ने लंबा आंदोलन छेड़ रखा था जिसमें उनके अनेक साथी कार्यबाधित कर रहे थे। उसी वक्त एक समय जब श्याम बेनेगल उनसे मिलने आए और निशांत में अभिनय का प्रस्ताव दिया तो उन्होंने श्याम बेनेगल से नसीर की बड़ी तारीफ की और प्रेरित किया कि वह उनको भी इस फिल्म में अवसर दें। ऐसे वक्त में जब आपका विद्यार्थी आंदोलनरत हो और आप उसको एक बड़े अवसर से जोड़ने की उदारता और बड़ा हृदय रखें, ऐसे उदाहरण कम ही सामने आते होंगे। यह कारनाड की सदाशयता और समृद्ध दृष्टि का प्रमाण माना जाएगा।

शिकागो विवि में विजिटिंग प्रोफेसर

बेनेगल के साथ उन्होंने निशांत के अलावा मंथन फिल्म में भी काम किया और कलयुग की पटकथा भी लिखी। 1976 में वह कर्नाटक राज्य नाटक अकादमी और 1988 से 93 तक केंद्रीय संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष पद को सुशोभित करते रहे। इसी दौरान उन्हें दो वर्ष के लिए शिकागो विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर और फुलब्राइट स्कॉलर इन रेसीडेंस के रूप में भी काम करने का अवसर प्राप्त हुआ।

भारतीय ज्ञानपीठ से सम्मानित

उन्हें अनेक प्रतिष्ठित सम्मान प्राप्त हुए जिनमें 1971 में संगीत नाटक अकादमी, कमला देवी चट्टोपाध्याय पुरस्कार, पद्मश्री, पद्मविभूषण शामिल हैं। उनकी पहली फिल्म संस्कारा राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक से पुरस्कृत नेशनल अवार्ड प्राप्त फिल्म है। 1994 में उन्हें कर्नाटक विवि ने डॉक्टर ऑफ लिटेरचर की मानद उपाधि से सम्मानित किया। 1998 में वह रंगकर्म के क्षेत्र में राष्ट्रीय कालिदास सम्मान से विभूषित हुए। इसी वर्ष भारतीय ज्ञानपीठ ने भी उन्हें सम्मानित किया।

व्यक्तित्व में असाधारण गरिमा

वह भारतीय ज्ञान परंपरा और हमारी अनंत दार्शनिक परिकल्पनाओं की उत्कृष्टता के चेहरे के रूप में हमारे बीच रहे। अपनी जीवटता के साथ उनका हमारे बीच होना हमें एक प्रकार की ऑक्सीजन देता था। उनके व्यक्तित्व में असाधारण गरिमा थी। वह रंगमंच के साथ किताबों के संसार में अपने आपको बहुत सहज और समरस पाते थे। वह बौद्धिक और सांस्कृतिक जगत में ऐसे व्यक्ति थे जिन्हें सम्मानित करके सम्मान की गरिमा बढ़ जाती थी। उनका अवसान बौद्धिक-सांस्कृतिक समाज की अपूरणीय क्षति है।

( लेखक सिनेमा पर सर्वोत्तम लेखन के लिए नेशनल अवार्ड से पुरस्कृत हैं )

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