[ साकेत सूर्येश ]: आत्मा-परमात्मा के रहस्यों, राजनीतिक सूक्ष्मताओं, ब्रह्माण्ड के रहस्य से भी अधिक गूढ़ और अधिक आनंददायक प्रश्न हिंदी साहित्य ने दिया है कि कवि क्या कहना चाहता है? यह एक प्रश्न है जिसे पहचानने की कला ने कई कवियों और समीक्षकों के जीवन की सार्थकता और करियर की सफलता निर्धारित की है। बड़े-बड़े अधिवेशनों में बड़े-बड़े बुद्धिजीवी इसी प्रश्न के उत्तर की खोज में समय बिताते रहे हैं।

गालिब कहना क्या चाहते हैं?

गालिब ने एक शेर कहा था ‘घर की दीवार पे खिला है सब्जा, हम हैं वीराने में आंगन में बहार आई है।’ दो शताब्दी पहले और आज भी कई शोधकर्ता यह ढूंढने में अपनी साहित्यिक ऊर्जा का सदुपयोग करके संस्कृति मंत्रालयों से पारितोषिक और अकादमियों से नौकरियां प्राप्त कर रहे हैं कि मिर्जा साहब यहां कहना क्या चाहते हैं?

असहिष्णु राष्ट्रवादी आत्मा

एक कहता है कि शायद गदर के माहौल में गालिब के भीतर एक असहिष्णु राष्ट्रवादी आत्मा घुस गई और घर में छुपे गालिब साहब ने यह शेर फरमाया। एक दार्शनिक किस्म के बुद्धिजीवी के अनुसार गालिब साहब कबीर के विचारों में डूबे हैं और कहना चाहते हैं कि मैं दूसरों की बहार देख रहा हूं और मेरी आत्मा पर एक पतझड़ छाया हुआ है तथा मेरे सूखे हुए विचारों के पत्ते आत्मा के आंगन में गिर रहे हैं। एक गुलजारी प्रवृत्ति के लेखक लिखते हैं कि गालिब साहब कहना चाहते हैं कि ‘सूखी हुई रूह पर धूप की पीली नमकीन रोशनी गिरती है और तुम, खूबसूरत सी, शाम के धुंधलके में आंगन में खिल रही हो।’ उनकी समीक्षा की पृष्ठभूमि में वायलिन की ध्वनि डालकर ऑडियो बनाए गए जो युवा वर्ग द्वारा हाथों-हाथ लिए गए।

गालिब की समीक्षा

वामपंथी लेखक का कहना है कि गालिब साहब का तात्पर्य है कि सर्वहारा यहां वीराने में पड़ा है और बुर्जुआ वर्ग बहार का आनंद ले रहा है। वीराने में पड़े सर्वहारा का कर्तव्य है कि इस अत्याचार के विरोध में आवाज उठाए और ‘होबे न, चोलबे न’ के अमर नारे के साथ कमरे की दीवार गिराकर आंगन और सामने के फुटपाथ को घर के अंदर खींच ले। वामपंथी लेखक के वचनों को बहुत सम्मान प्राप्त हुआ। पांच सितारा होटलों में पांच सितारा साहित्यकारों द्वारा उनकी पुस्तक का विमोचन हुआ। उनकी गालिब की समीक्षा विश्वविद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल हुई। गालिब के दीवान से अधिक उनकी समीक्षाएं बिकीं। वे एक विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हुए, अखबारों में लिखने लगे। तत्कालीन सरकार ने उन्हें पुरस्कार दिया, उस सरकार के गिरने के बाद उन्होंने नई सरकार के विरुद्ध पुरस्कार लौटाया और प्रबुद्ध चिंतक के रूप में उन्होंने देश-विदेश में ख्याति प्राप्त की।

व्यंग्य छोड़ समीक्षक बनेंगे

हमारे मित्र छगनलाल इन सब प्रेरणादायक प्रसंगों से बहुत उत्साहित हुए और एक दिन आकर बोले कि हम व्यंग्य का क्षेत्र छोड़कर समीक्षक बनेंगे और नामवर होंगे। छगनलाल के इस निर्णय के पीछे दो कारण थे। एक यह कि ‘कवि क्या कहना चाहता है’ में स्कोप अधिक है और दूसरा मुझे उलाहना देते हुए उन्होंने कहा कि व्यंग्यकार बनने में आगे कोई विकास नहीं है और बुढ़ापे में किचन गार्डन में टमाटर ही उगाने पड़ते हैं।

दक्षिणपंथ के साथ रहकर वामपंथ का विरोध

वहीं एक कुशल समीक्षक आगे राजनीतिक प्रवक्ता बन कर भिन्न-भिन्न दलों के भिन्न-भिन्न सुप्रीम नेताओं की भावनाओं का अनुवाद राजनीतिक उपयोगिता के अनुसार कर सकता है-मसलन महान नेता ने सिर को चीन के विदेश मंत्री से मिलते हुए दाईं ओर झुकाया, सो इसका तात्पर्य यह है कि वह दक्षिणपंथ के साथ रहेंगे और वामपंथी शक्तियों का विरोध करेंगे। अत: उन्होंने समीक्षक बनने का निर्णय लिया और सफल समीक्षक के नाते सफल होने के बाद वे तय करेंगे कि किस नेता को अपना मुक्तिबोध मानकर वे उनकी तमाम वक्तव्यों का गूढ़ मंतव्य जनता तक ले जाएंगे।

आंगन में बहार आई

हमने उनकी ओर भी गालिब का परिचित शेर फेंक कर पूछा कि कवि क्या कहना चाहता है? उन्होंने अपने चिर-परिचित अंदाज का प्रदर्शन करते हुए कहा कि संभव है कि गालिब की सुंदर-सी पड़ोसन शक्कर लेने उनके घर पहुंची हो और गालिब साहब के मुंह से यह बात निकल गई हो कि आंगन में बहार आई है और एक निरीह पति की भांति हम यहां भीतर वीराने में बैठे हैं।

गालिब सपने में आए

दूसरे दिन छगनलाल वापस आए और उनकी कांख में परसाई जी और शरद जी की पुस्तकें थीं। हमने पूछा कि वापस व्यंग्य की दुनिया की ओर लौट पड़ने का क्या तात्पर्य है? कहने लगे रात में गालिब उनके सपने में आए। एक तमाचा देकर कहने लगे, ‘भाई, कवि कभी-कभी वही कहता है जो वह कहना चाहता है।’ इसके बाद हमने वापस व्यंग्य की ओर लौटने का निर्णय लिया।

[ लेखक हास्य-व्यंग्यकार हैं ]

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