[ आशुतोष झा ]: चुनावी वक्त में वादों की ऐसी भरपूर बारिश होती है कि लगता है लोकतंत्र नेताओं के लिए ही नहीं, जनता के लिए सचमुच महापर्व होता है। अफसोस यह है कि यह बारिश कुछ ऐसी होती है जिसमें जनता सूखी ही रह जाती है। उसके हाथ भरोसे की डोर ही बचती है। वरना क्या कारण है कि राजनीतिक पार्टियों द्वारा लगभग 70 वर्षों से अब तक शब्दों के हेरफेर से पुराने वादे ही दोहराए जा रहे हैं। वे जो पहले पूरा नहीं कर पाए, चुनाव आते ही उसे भी पूरा करने का खम ठोकने लगते हैैं। साफ है कि राजनीतिक दल भी प्यार और जंग में सब कुछ सही वाली कहावत को सटीक मानते हैैं। सिर्फ जीत मायने रखती है, उसके तौर-तरीके नहीं। चूंकि साध्य के फेर में साधनों की पवित्रता की परवाह नहीं की जाती इसलिए जनता को भरमाकर बांट कर चुनावों में सफलता हासिल करने की पुरजोर कोशिश की जाती है।

मोदी सरकार के आखिरी बजट के संदर्भ में यह मानकर चला जा रहा है कि चार वर्षों से कठोर फैसले के लिए जानी जाने वाली सरकार अब नरम पड़ गई है। वह बजट में किसानों और आम लोगों के लिए कुछ विशेष कदम उठा सकती है। अगर ऐसा होता है तो यह इस बात की स्वीकारोक्ति होगी कि इस सरकार की चार साल की योजनाएं अधूरी रह गईं? क्या उन योजनाओं पर सवाल नहीं उठेगा जिनका भाजपा देशभर में बखान करती घूमती रही? इसके साथ ही क्या उसकी अब तक की सोच और उपलब्धियों पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगेगा? वास्तव में यही सवाल मुख्य विपक्ष कांग्रेस से भी होगा। पिछले एक महीने में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी तीन बड़ी घोषणाएं कर चुके हैैं-किसान कर्ज माफी, न्यूनतम आमदनी की गारंटी और महिला आरक्षण। क्या वह बताएंगे कि इसमें ऐसा क्या है जो कांग्रेस की ओर से पहली बार कहा जा रहा है?

क्या यह सच नहीं कि 50 साल पहले कांग्रेस ने गरीबी हटाने का नारा दिया था? कांग्रेस के आखिरी कार्यकाल यानी संप्रग-दो के वक्त तक भारत में गरीबी का आंकड़ा लगभग 30 फीसद था। अगर न्यूनतम आमदनी गरीबी खत्म करने की गारंटी है तो इतने वर्षों तक उसे क्यों नहीं लागू किया गया? किसान कर्ज माफी तो 2009 में भी आई थी, लेकिन यह सच्चाई है कि वह सफल नहीं हुई। हां, कांग्रेस को राजनीतिक सफलता जरूर मिली थी। आज देश के कई राज्यों में किसान कर्ज माफी योजना किसी न किसी तरह लागू है और उसके नतीजे किसी से छिपे नहीं। जहां तक महिला आरक्षण की बात है तो राहुल गांधी को इसका भी जवाब देना चाहिए कि राज्यसभा से विधेयक पारित कराने के बाद जब कांग्रेस केंद्र में सत्ता में रही थी तब वह इस पर आगे क्यों नहीं बढ़ी सकी? उस वक्त भाजपा की ओर से वही बोल बोले जा रहे थे जो अब कांग्रेस बोल रही है।

मसलन हम समर्थन कर रहे हैैं, कांग्रेस की सरकार चाहे तो बिल पास करा सकती है। सच्चाई तो यह है कि आज अगर राजग और कथित महागठबंधन की कसौटी पर इसे कसा जाए तो राहुल गांधी के लिए इसे पास करना बहुत मुश्किल है। इसके समक्ष अभी भी वही चुनौती है जिसके कारण पहले कांग्रेस इसे लोकसभा से पास नहीं कर पाई थी। राजद, सपा, जैसे दल और शरद यादव जैसे नेता वर्तमान महिला आरक्षण विधेयक के खिलाफ हैं।

माना जा रहा है कि चुनाव घोषणा पत्र तैयार होने के पहले राहुल गांधी कुछ और लोकलुभावन घोषणाएं कर सकते हैैं। इसी कारण यह जुमला चल निकला है कि कांग्रेस हर उस पत्तल को जूठा कर देना चाहती है जो भाजपा चुनाव से पहले जनता के सामने सजाना चाहती है। एक ऐसे वक्त जब आगामी आम चुनाव को युद्ध की तरह देखा जा रहा है तब ऐसी रणनीति पर हैरानी नहीं। यह देखना भी दिलचस्प है कि आज वही बसपा प्रमुख मायावती कांग्रेस के वादों पर सवाल खड़े कर रही हैैं जिन्हें महागठबंधन का भावी और अहम साथी माना जा रहा है। इसके साथ ही यह भी अभी पूरी तरह पता नहीं कि राजद और सपा कांग्रेस की बैसाखी हैैं या नहीं? दूसरी ओर भाजपा अपने कोर मुद्दे पर इसलिए नहीं बढ़ सकती, क्योंकि जदयू और लोजपा को उन पर एतराज है।

पूर्ण बहुमत हासिल कर सरकार चलाने के बाद भी यह हाल है तो फिर सवाल है कि ऐसे चुनावी वादों पर जनता भरोसा ही क्यों करे? यह जानते समझते हुए कि एक राजनीतिक दल की भारी-भरकम घोषणाएं सत्ता की सीढ़ी चढ़ते हुए हांफने लगती हैैं। उसके सामने कभी संसाधन तो कभी राजनीतिक मजबूरी की आड़ में छिपने का रास्ता अक्सर खुला होता है। आखिर राजनीतिक दलों के इस शह-मात में जनता कहां खड़ी है? उसके हाथ क्या लगने वाला है?

नेताओं की भारी-भरकम घोषणाओं और खासकर उनके लोकलुभावन वादों के समक्ष चुनाव आयोग असहाय सा है। वह नेताओं के बेलगाम बयानों की निंदा करने से अधिक कुछ नहीं कर पाता। वैसे उसका मानना है कि घोषणाएं वही होनी चाहिए जिन्हें पूरा किया जा सके। राजनीतिक दलों को उनकी पूरी रूपरेखा पेश करनी चाहिए। यह पहले ही साफ हो कि जो वादा किया जा रहा है उसके लिए पर्याप्त संसाधन हैं या नहीं?

किसानों का कर्ज लगभग 4 लाख करोड़ रुपये है। अगर न्यूनतम आमदनी योजना लागू की जाए तो उस पर भी लगभग सात लाख करोड़ रुपये का खर्च आएगा। क्या भारत फिलहाल इस स्थिति में है कि बाकी जन कल्याणकारी योजनाओं के साथ इतनी बड़ी योजना शुरू की जा सके? मनरेगा जैसी सफल योजनाओं की यात्रा के गवाह जानते हैं कि जब उसके लिए मजदूरी तय करने की बात हो रही थी तो तत्कालीन ग्रामीण विकास मंत्री रघुवंश प्रसाद सिंह को केंद्रीय कैबिनेट के अंदर कितनी कठिन लड़ाई लड़नी पड़ी थी, लेकिन विपक्ष में होने का एक फायदा होता है, आप घोषणाएं कर सकते हैैं। यही काम पिछली बार भाजपा ने किया था। सरकार के हाथ बंध जाते हैं, क्योंकि उसकी घोषणाएं किए गए कामकाज के आधार पर आंकी जाती हैं, जबकि विपक्ष को कुछ ज्यादा छूट होती है।

( लेखक दैनिक जागरण के राष्ट्रीय ब्यूरो प्रमुख हैैं )