[राजीव सचान]: Lok Sabha Election 2019: पांच साल विपक्ष में रहने, सत्ता विरोधी प्रभाव का लाभ उठाने और मोदी सरकार की चौतरफा घेराबंदी करने के बाद भी अगर कांग्रेस पिछली बार के मुकाबले इस बार केवल आठ सीटें ही अधिक पा सकी तो यह हर लिहाज से करारी हार है। इस हार के बाद पार्टी में हाहाकार मचना ही था, सो मचा हुआ है। यह मचना भी चाहिए। कांग्रेस में हाहाकार की खबरों के बीच Rahul Gandhi अपने इस्तीफे पर अड़े बताए जा रहे हैं। इस्तीफे की उनकी पेशकश के बाद कांग्रेस के अन्य अनेक नेता भी इस्तीफा देने के लिए लाइन लगाए हुए हैं। पता नहीं इन इस्तीफों का क्या होगा, लेकिन जिस तरह पराजय के मूल कारणों की तह में जाए बिना राहुल गांधी के साथ-साथ अन्य कांग्रेसी नेता कुर्बानी देने को तैयार दिख रहे हैं, उससे यह नहीं लगता कि पार्टी का भला होने वाला है।

Rahul Gandhi अपने तीन वरिष्ठ नेताओं- पी चिदंबरम, अशोक गहलोत और कमलनाथ से इसलिए खफा बताए जा रहे हैं कि उन्होंने उनके इन्कार के बावजूद अपने बेटों के लिए टिकट ले लिया और फिर उन्हें जिताने में ऐसा जुटे कि पार्टी की सुध लेना ही भूल गए। आखिर जब राहुल गांधी यह जान रहे थे कि ये पिताजी अपने बेटों की किस्मत चमकाने में व्यस्त हो जाएंगे, तब फिर उन्होंने चिदंबरम, गहलोत और कमलनाथ के बेटों को टिकट दिया ही क्यों?

क्या राहुल गांधी इसलिए अपने रुख पर कायम नहीं रह सके, क्योंकि उन्होंने खुद बहन प्रियंका को सीधे महासचिव बनाकर कांग्रेस की राजनीति में सक्रिय कर दिया था? वह शायद इसलिए भी ज्यादा जोर देकर इन नेताओं के बेटों को टिकट देने से इन्कार न कर सके हों, क्योंकि उन्हें यह अहसास हो कि वह भी तो सोनिया गांधी के बेटा होने के कारण ही कांग्रेस अध्यक्ष बन सके हैं। सच्चाई जो भी हो, चिदंबरम, अशोक गहलोत और कमलनाथ के बेटों के टिकट उन्हीं दिनों पक्के हुए होंगे जब लालकृष्ण आडवाणी और मुरली मनोहर जोशी के टिकट कटने पर कांग्रेस के नेता भाजपा को यह ताना देने में लगे हुए थे कि वह अपने बुजुर्ग नेताओं का सम्मान नहीं करती।

कांगेस भाजपा से कुछ सीखे या नहीं, लेकिन उसे यह तो समझना ही चाहिए कि संस्थाएं चाहे राजनीतिक हों या गैर राजनीतिक, वे दृढ़ फैसलों से ही चलती हैं। संस्था संचालक को विनम्र होना चाहिए, लेकिन उसे फैसला लेते समय दृढ़ता दिखानी चाहिए। बेशक राहुल गांधी विनम्र और सरल स्वभाव के हैं, लेकिन वह तब बहुत अहंकारी और अशालीन दिखते थे, जब मोदी के प्रति अपनी हिकारत का प्रदर्शन करते हुए अपना प्रिय नारा-चौकीदार चोर है उछालते थे। बेहतर हो राहुल गांधी किसी से और हो सके तो कांगेस की सोशल मीडिया प्रभारी से पता कराएं कि इस अभद्र नारे ने कांग्रेस का कितना भला किया? यह एक भद्दा नारा था और राहुल गांधी के मुख से तो बिल्कुल भी शोभा नहीं देता था।

राहुल गांधी ने चुनाव नतीजों को जनता का आदेश मानते हुए कांग्रेस की पराजय विनम्रतापूर्वक स्वीकार कर एक परिपक्व नेता जैसा व्यवहार किया। इसी दौरान उन्होंने कहा कि यह विचारधारा की लड़ाई है और वह यह लड़ाई लड़ते रहेंगे, लेकिन आखिर कौन सी विचारधारा? क्या वही जिसके तहत राहुल गांधी टुकड़े-टुकड़े गैैंग वाले कन्हैया कुमार को सहारा देने जेएनयू चले गए थे? यह वही कन्हैया कुमार हैैं जिन्हें बिहार के महागठबंधन में स्थान न मिलने पर दिग्विजय सिंह ने अफसोस जताया और ससम्मान भोपाल आमंत्रित किया। कन्हैया तो भोपाल में प्रकट नहीं हुए, लेकिन गुजरात में कांग्रेस के सिपाही जिग्नेश मेवाणी बेगूसराय जाकर लाडले कन्हैया को गले लगाते अवश्य दिखे। जिग्नेश दिल्ली में भी दिखे, लेकिन कांग्रेस नहीं, आम आदमी पार्टी के पक्ष में प्रचार करते हुए।

क्या कांग्रेस अपनी विचारधारा के तहत ही बालकोट हमले के सुबूत मांग रही थी और इमरान खान पर बुरी तरह फिदा नवजोत सिंह सिद्धू को देशभर में घुमा रही थी, लेकिन अपने सबसे कद्दावर मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को पंजाब में ही सीमित करना उचित समझ रही थी? क्या पार्टी की विचारधारा को बल देने के लिए ही राहुल गांधी ने केरल की वह सीट चुनी, जहां कांगेस की सहयोगी मुस्लिम लीग का दबदबा है? आखिर कांग्रेस की विचारधारा में ऐसा क्या जुड़ा या घटा, जिसके चलते राज ठाकरे से लेकर प्रशांत भूषण जैसे लोग राहुल गांधी के मुरीद बनकर उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में जुट गए थे?

आखिर शत्रुघ्न सिन्हा को यह सुविधा किसने दी कि वह अपनी मनचाही सीट से खुद खड़े हो जाएं और पत्नी को लखनऊ से समाजवादी पार्टी का उम्मीदवार बना दें? जब शत्रुघ्न सिन्हा को यह सुविधा दी जा रही थी, तब पार्टी ने खामोश रहना जरूरी क्यों समझा? ऐसे विचित्र फैसलों पर लोग हंसते नहीं तो क्या यह कहते कि राहुल जी ने शानदार दांव चला है।

आखिर पार्टी के भीतर यह विचार कहां से आया कि तीन राज्यों में जीत हासिल करने के बाद भी कांग्रेस को न केवल EVM के खिलाफ मोर्चा खोलना चाहिए, बल्कि VVPAT पर्चियों का मिलान 50 फीसद करने की मांग कर रहे दलों की पैरवी अपने वकील नेता से करानी चाहिए?

एक सवाल यह भी कि कांग्रेस के वकील नेताओं को तीन तलाक और अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट में खड़े होकर पार्टी की जड़ें खोदने वाली दलीलें देते देखकर किसी कांग्रेसी को यह आभास क्यों नहीं हुआ कि इससे जनता के बीच गलत संदेश जा सकता है? जो लोग भी यह कहकर राहुल गांधी की पीठ थपथपा रहे कि चुनावों में उन्होंने बड़ी मेहनत की वे अगर उनके शत्रु नहीं तो मित्र भी नहीं, क्योंकि मेहनत तो अरविंद केजरीवाल ने भी की और तेजस्वी यादव ने भी।

अगर कोई नेता जनता के मर्म को छूने और जमीनी हकीकत भांपने में नाकाम रहता है तो फिर कितनी भी मेहनत कर ले और कैसे भी नारे गढ़ ले उसे कुछ हासिल नहीं होता। यह राहुल गांधी ही बता सकते हैैं कि यह विचार किसका था कि आनन-फानन में NYAY नामक योजना की घोषणा कर दो और जब सवाल उठे कि इसके लिए पैसा कहां से आएगा तो आप कह देना, अनिल अंबानी की जेब से और सैम पित्रोदा से कहलवा देना, स्वार्थी मध्यवर्ग से।

क्या इतनी गंभीर गलतियां करने वाला कोई दल जनता का भरोसा हासिल कर सकता है? पता नहीं राहुल गांधी क्या करेंगे, लेकिन अगर राजनीति उनके मिजाज में नहीं है तो उन्हें और मुश्किल पेश आ सकती है। उन्हें कोई भी फैसला लेने के पहले यह तो देखना ही चाहिए कि वे तमाम फैसले किसने लिए, जिनकी वजह से पार्टी का बेड़ा गर्क हो गया?

( लेखक दैनिक जागरण में एसोसिएट एडीटर हैैं )

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