[ जगमोहन सिंह राजपूत ]: मेरा जीवन ही मेरा संदेश है।’ गांधी जी के इस कथन को हम अपने मन-मस्तिष्क में उतार कर जितनी गहराई से समझाने का प्रयास करते हैैं, उतना ही यह अधिक विस्तार पाता जाता है। गांधी जी पूर्णता के लक्ष्य के मार्ग पर, जिसमें सत्य ही ईश्वर है, चले और चलते रहे। श्रद्धा और निष्ठा से चलते हुए वे आगे ही बढ़ते रहे। कितना और कहां तक पहुंचे, इसका अनुमान तो सदियों तक इतिहास लगाता रहेगा। परंपरागत परिवार में मोहनदास करमचंद गांधी को जो संस्कार मिले थे उनमें मानवीयता के समग्र तत्वों के साथ-साथ ऊंच-नीच, छुआछूत जैसे अस्वीकार्य तत्व भी प्रचलन में थे जो अज्ञान तथा अशिक्षा के कारण समाज में अपनी पकड़ बना चुके थे। दूसरी तरफ वे सद्गुण और विचार भी थे जो व्यक्ति को मनुष्य बनाते हैं।

गांधी जी ने पत्र लिखकर पिता से क्षमा मांगी

गांधी जी के जीवन की कुछ घटनाएं इस प्रकार हैैं। जैसे कि उन्होंने अध्यापक के इंगित करने के बाद भी कक्षा में नकल नहीं की। तरुणाई में सामान्य-सुलभ जिज्ञासा में मांस खाया। भाई का कर्ज चुकाने के लिए चोरी में भागीदारी की। फिर संस्कारों ने उन्हें विचलित किया। उन्होंने पत्र लिखकर पिता से क्षमा मांगी। पिता ने पत्र पढ़कर कुछ नहीं कहा। मोहनदास केवल उनके अश्रुपात को देखते रहे। मन-मस्तिष्क में उठे तूफान ने आगे के लिए उनका मार्ग प्रशस्त किया।

अच्छा हिंदू, मुसलमान, ईसाई या सिख बनने का प्रयास करना चाहिए

यूरोप और दक्षिण अफ्रीका में उन्हें धर्म-परिवर्तन के प्रयासों से पाला पड़ा। एक विचारवान और चिंतनशील व्यक्ति की भांति उन्होंने ईसाई तथा अन्य धर्मों-पंथों का अध्ययन किया। घर और परिवार से प्राप्त संस्कारों के कारण उन्हें अस्वीकृत नहीं किया। विश्लेषण के बाद अपने पंथ को ही अपने लिए सर्वोत्तम पाया। किसी को कम-ज्यादा नहीं पाया। इसका तो कोई प्रश्न ही नहीं था कि मेरा रास्ता ही सर्वोत्तम है, बाकी सभी अस्वीकार्य हैं! वे पूरे जीवन यही कहते रहे कि हर व्यक्ति को अपने मत-पंथ के अनुसार अच्छा हिंदू, मुसलमान, ईसाई या सिख बनने का प्रयास करना चाहिए।

सभी धर्म ईश्वरीय हैं, मगर सभी अपूर्ण हैं

प्राचीन भारत की संस्कृति की वैचारिक परिपक्वता में पंथ परिवर्तन के लिए किसी प्रकार के प्रयासों के लिए कोई जगह नहीं थी। हर वैचारिक विविधता इसमें स्वीकार्य थी, ईश्वर को मानें या न मानें, निर्गुण, सगुण, नास्तिक सभी अपने, सभी स्वीकार्य! आगे चलकर महात्मा गांधी यह कह सके कि सभी धर्म ईश्वरीय हैं, मगर सभी अपूर्ण हैं। सभी को समय के साथ गतिशीलता तो अपनानी ही होगी। सभी का अंतिम गंतव्य एक ही है। रास्ते अलग अलग हैं और हर रास्ता उस गंतव्य तक पहुंचाने में समर्थ है।

गांधी को माना होता तो क्या विश्व में हिंसा, अविश्वास, नरसंहार पनप पाता

अगर गांधी के जीवन का यह एक सिद्धांत ही मान लिया जाता तो क्या विश्व में इतनी हिंसा, अविश्वास, नरसंहार पनप पाता? इस तथ्य को राजनेता भले कहने में हिचकें, मगर पंथिक विविधता की अस्वीकार्यता, अन्य पंथों के प्रति असहिष्णुता और केवल अपने रास्ते को एकमात्र सच और सही मानना तथा उसी में किसी भी प्रकार से अन्य को लाने को अपना ईश्वरीय उत्तरदायित्व समझ लेना विश्व शांति और सद्भाव को कभी आगे नहीं बढ़ने देगा। इस सच्चाई से आंखें मूंदना अब बंद होना चाहिए। आगे का रास्ता वही है जो गांधी जी ने समझा, अपनाया और समझाया।

व्यवहार में सबको समानता दें

यह वर्तमान और भावी पीढ़ी का उत्तरदायित्व है कि वह विश्व जनमत को समझाए कि सभी पंथिक विविधता की आवश्यकता को मन, वचन और कर्म से स्वीकारे, व्यवहार में सबको समानता दे और किसी भी प्रकार के लालच तथा प्रलोभन द्वारा पंथिक परिवर्तन के प्रयास अस्वीकार्य घोषित हों। इससे भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में बड़े संप्रदायों के बीच वैमनस्यता बढ़ती है।

गांधी ने छुआछूत के प्रति लोगों को जागृत किया

अब वह समय नहीं है जब मध्यकालीन परंपराएं या सामाजिक वैचारिकता उसी स्वरूप में लागू रहेंगी। परिवर्तन की गति को पहचानना हर समुदाय के लिए आवश्यक है। गांधी ने छुआछूत, मंदिर प्रवेश, महिलाओं का सम्मान, बराबरी का हक जैसी समस्याओं के प्रति लोगों को जागृत और जागरूक किया। वह इसमें आंशिक रूप से ही सफल हुए, मगर उनके जाने के बाद भी समाज उनकी इच्छाओं के अनुसार अपने में परिवर्तन करता जा रहा है। इसे आगे ले जाना होगा।

1931 में भारत की भावी राजनीति का आभास गांधी जी को हो गया था

परंपरागत भारतीय समाज सभी पंथों की उपस्थिति को स्वीकारता है। गांधी जी मानते थे कि जब अंग्रेज यहां नहीं आए थे तब हिंदू, मुसलमान, सिख तथा अन्य आपस में लड़ते ही नहीं रहते थे। आश्चर्य की बात है कि 1931 में ही भारत की भावी राजनीति का स्पष्ट आभास और अनुमान गांधी जी को हो गया था। तब उन्होंने कहा था, ‘मुझे इस बात का पूरा निश्चय है कि यदि नेता न लड़ना चाहें तो आम जनता को लड़ना पसंद नहीं है। इसलिए यदि नेता इस बात पर राजी हो जाएं कि दूसरे सभ्य देशों की तरह हमारे देश में भी आपसी लड़ाई-झगड़े का सार्वजनिक जीवन से नामोनिशान मिटा दिया जाना चाहिए और वे जंगलीपन तथा अधार्मिकता के चिन्ह माने जाने चाहिए तो मुझे इसमें कोई संदेह नहीं है कि आम जनता शीघ्र ही उनका अनुकरण करेगी।’

हिंसा, वैमनस्य से ही गरीबी, भुखमरी जन्म लेती है

इस समय 150वीं जयंती के अवसर पर विश्व भर में गांधी जी पर गहन चर्चाएं हो रही हैं, वे जो कुछ कह गए और जिसे पश्चिम की चकाचौंध से आच्छादित भारतीय नेतृत्व ने परे कर दिया था, वे बातें आज लोगों की आंखें खोल रही हैं। उन्हीं के विचारों में वैश्विक समस्याओं का समाधान दिखाई दे रहा है। हिंसा, वैमनस्य, अविश्वास से ही गरीबी, भुखमरी, प्रताड़ना जन्म लेती हैं। लोगों के बीच सद्भाव और सहयोग बढ़ाने के लिए ही गांधी जी जीवन भर प्रयत्नशील रहे। उनके प्रत्येक विचार से लोग भले ही सहमत न हों, मगर उनकी नीयत के प्रति कोई संदेह हो ही नहीं सकता है।

जब गांधी जी ने धर्म परिवर्तन की व्याख्या की थी

16 मार्च, 1931 को दादर में मजदूरों के समक्ष गांधी जी ने धर्म परिवर्तन की व्याख्या की थी। वहां कहे उनके इन शब्दों में विश्व का सुनहरा भविष्य छिपा है, ‘मैं यह बात हृदय की एकता के तकाजे पर और उसी की खातिर कह रहा हू। मैं इस देश के विभिन्न धर्मावलंबियों के बीच एकता स्थापित होते देखना चाहता हूं। प्रकृति में हम अपने चारों ओर जो विविधता देखते हैं उस विविधता के पीछे एक बुनियादी एकता है। धर्म भी इस प्राकृतिक नियम के अपवाद नहीं है। मनुष्य जगत को धर्म का दान इसलिए मिला है कि इस मौलिक एकता को चरितार्थ करने की प्रक्रिया को वह गति प्रदान कर सके।’ इसमें और देरी अब स्वीकार्य नहीं है।

( लेखक एनसीईआरटी के निदेशक रह चुके हैैं )