सामान्यत: हमें यह सिखाया और पढ़ाया जाता है कि इस सृष्टि में मुख्यत: दो प्रकार की प्रजातियां हैं- एक स्त्री के रूप में और दूसरा पुरुष के रूप में, किंतु दार्शनिक जब यथार्थ और सत्य-दृष्टि से इस जगत को देखते हैं तो वे कहते हैं कि शरीर-दृष्टि से व्यवहार चलाने के लिए हम भले ही स्त्री और षुरुष के रूप में विधि-सृष्टि का बंटवारा कर लें, किंतु यथार्थ में चाहे जिस भी शरीर में जीव हो, वह एक तरह से पुरुष ही है, स्त्री का संबोधन केवल जगत्-व्यवहार तक ही सीमित है। सत्यदृष्टा जब अपने इस कथन का विश्लेषण करते हैं तो वे जीव-शरीर को पुर अर्थात् निवास स्थान के रूप में कहते हुए यह बताते हैं कि जीवमात्र का शरीर रहने का एक स्थान है और इसमें रहने वाला परब्रह्म परमात्मा का अंश है। वह सभी में समान रूप से रहता है तथा वही एकमात्र पुरुष है जिसकी चेतना और सत्ता से सभी जीव सक्रिय और सचेष्ट हैं। इस स्थिति में जीवों के विविध शरीरों को स्त्री और पुरुष के रूप में देखना मिथ्या-दृष्टि है। यही कारण है कि शास्त्र कहते हैं कि शरीर में शयन करने वाले को पुरुष कहते हैं।

ऋग्वेद संहिता में एक सूक्त संकलित है जिसका नाम पुरुष सूक्त है। इसमें परब्रह्म परमात्मा का कथन पुरुष के रूप में किया गया है और यह कहा गया है कि यह हजारों सिरों वाला है, हजारों नेत्रों वाला है, हजारों पैरों वाला है। यह अपनी दस अंगुलियों के परिमाण में होकर भी इस समस्त पृथ्वी तथा आकाश लोक को आच्छादित किए हुए है। यही एकमात्र पुरुष है जो नित्य, अजन्मा और चेतन रूप है। तर्कशास्त्री इस विभु पुरुष की एकात्मक सत्ता की सिद्धि में कहते हैं कि जो निरंतर आगे की ओर ही जाता है और कभी भी पीछे नहीं लौटता है, वह पुरुष है। उनका यह कहना है कि आवागमन के इस स्वभाव वाले संसार में जो मरता है उसका जन्म होता है और जन्म शरीर का नहीं, आत्मांश जीव का होता है। इस रूप में इस जीव ने एक बार जिस शरीर को धारण कर लिया होता है, जीव लौटकर उस शरीर में कभी न आकर आगे की ओर ही जाता है तथा दूसरे विविध शरीर धारण करता है। इसलिए निरंतर आगे की ओर जाने से यह शाश्वत जीव ही पुरुष है। यही पूर्ण पुरुष जानने योग्य है। इसी के आधार पर पुरुषार्थ का जन्म और आकलन होता है।

[ डॉ. गदाधर त्रिपाठी ]