जागरण संपादकीय: मत प्रचार की स्वतंत्रता पर हो पुनर्विचार, मतांतरण पर रखनी होगी पैनी नजर
मुसलमानों की शिक्षण संस्था अंजुमन इस्लाम ने भी शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया है। अब आप देखें कि आर्य समाज सनातन धर्म और सिखों की तरफ से देश में सैकड़ों स्कूल कॉलेज और अस्पताल वगैरह चल रहे हैं लेकिन इन्होंने किसी ईसाई या मुसलमान के मतांतरण का कभी प्रयास नहीं किया। किसी को भी मत का प्रचार करने या मतांतरण करने की इजाजत नहीं दी जा सकती।
आरके सिन्हा। भारत के प्रत्येक नागरिक को किसी मत या पंथ को मानने या न मानने या फिर किसी भी मत से जुड़ने का अधिकार संविधान देता है, पर किसी प्रलोभन या गलतफहमी में योजनाबद्ध रूप से किसी तरह के मतांतरण को अपराध माना गया है। इस आलोक में उत्तर प्रदेश की एक विशेष अदालत द्वारा हाल में अवैध मत परिवर्तन के मामले में दोषी करार दिए गए 12 लोगों को उम्रकैद और चार अन्य दोषियों को 10-10 वर्ष कैद की सजा सुनाना महत्वपूर्ण है।
कोर्ट के मुताबिक, उमर गौतम और अन्य अभियुक्त एक साजिश के तहत धार्मिक उन्माद, वैमनस्य और नफरत फैलाकर देशभर में अवैध मतांतरण का गिरोह चला रहे थे। उनके तार कई दूसरे देशों से भी जुड़े थे। वे हवाला के जरिये विदेश से धन भेजे जाने के मामले में भी लिप्त थे। वे देश में आर्थिक रूप से कमजोर महिलाओं और दिव्यांगों को लालच देकर और उन पर अनुचित दबाव बनाकर बड़े पैमाने पर उनका मत परिवर्तन करा रहे थे।
उमर गौतम को मुफ्ती काजी जहांगीर आलम कासमी के साथ 2021 में दिल्ली के जामिया नगर से गिरफ्तार किया गया था। वह एक ऐसे अवैध संगठन का संचालन कर रहा था, जो उत्तर प्रदेश में मूक-बधिर छात्रों और गरीब लोगों को इस्लाम में मतांतरित कराने में शामिल था। उमर गौतम पहले हिंदू था, लेकिन उसने इस्लाम स्वीकार कर लिया और मतांतरण कराने के अवैध धंधे में सक्रिय हो गया। उसने करीब एक हजार गैर-मुस्लिम लोगों को इस्लाम में मतांतरित कराया।
भारतीय संविधान धार्मिक स्वतंत्रता की गारंटी देता है, जिसमें स्वेच्छा या स्वविवेक से मत बदलने का अधिकार भी शामिल है। संविधान के अनुच्छेद 25 और 26 में धार्मिक स्वतंत्रता और मत बदलने के अधिकार की बात तो कही गई है, पर उमर गौतम और उसके साथी गरीबों को लालच देकर और जोर-जबरदस्ती से मतांतरण करवा रहे थे। गौतम और उसका गिरोह भूल गया था कि मत परिवर्तन सामाजिक एकता को कमजोर कर सकता है और समाज में भयंकर नफरत पैदा कर सकता है।
भारत में मत परिवर्तन एक संवेदनशील मुद्दा है, जिसमें कानूनी, धार्मिक और सामाजिक सभी पहलू शामिल हैं। कुछ साल पहले केरल के प्रतिष्ठित फिल्म निर्माता-निर्देशक अली अकबर और उनकी ईसाई पत्नी लूसी अम्मा ने आर्य समाज में हवन के जरिये हिंदू धर्म अंगीकार कर लिया था। आर्य समाज के स्वामी जी द्वारा उनका नया नामकरण भी कर दिया गया। अली अकबर को नया नाम मिला था राम सिम्हन।
हिंदू धर्म ही क्यों? यह प्रश्न पूछे जाने पर अली अकबर ने कहा था, ‘क्योंकि हिंदू धर्म कोई धर्म नहीं, बल्कि एक संस्कृति है। यहां नर्क में जाने का डर नहीं है। आप एक इंसान की तरह जी सकते हैं, क्योंकि भगवान आपके अंदर हैं। अपने भीतर ईश्वर को देखना एक महान विचार है।’ कहते हैं कि राम सिम्हन केरल में हिंदू धर्म अपनाने वाले पहले मुसलमान थे, लेकिन यह राम सिम्हन के स्वविवेकपूर्ण निर्णय को दर्शाता है। इस पर कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए।
किसी को लालच देकर या जोर जबरदस्ती मतांतरण करवाना तो कतई सही नहीं माना जा सकता है। समझ नहीं आता कि कुछ मतों से जुड़े लोग क्यों इसी फिराक में रहते हैं कि उनके मत से अन्य मतों को मानने वाले जुड़ जाएं। कई इस्लामिक और ईसाई संगठन इसी कोशिश में रहते हैं कि दूसरे मत को मानने वाले उनके मजहब का हिस्सा बन जाएं? यह कोई बात हुई क्या? फिर यदि बाकी मतों को मानने वाले लोग भी यही करने लगें तो समाज में भाईचारा कहां और कैसे बचा रहेगा।
अगर कोई अपने मन से उस मत को त्याग देता है, जिसमें उसका जन्म हुआ है तब तो कोई बात नहीं है। संगीत निर्देशक एआर रहमान का ही उदाहरण लें, जिन्होंने खुद ही हिंदू धर्म छोड़कर इस्लाम स्वीकार कर लिया। उनके परिवार के बाकी सदस्यों ने भी इस्लाम अपना लिया। यहां तक तो सब ठीक है, पर कुछ तत्व सुदूर इलाकों में रहने वालों को अपने पाले में लाने के जुगाड़ में रहते हैं। इस सबकी तो हमारा संविधान अनुमति नहीं देता।
जब उमर गौतम जैसों पर कार्रवाई होती है तो कुछ कथित बुद्धिजीवी प्रलाप करने लगते हैं। पिछले कई वर्षों से पंजाब से खबरें आ रही हैं कि राज्य में दलित सिखों को लालच देकर ईसाई मत से जोड़ा जा रहा है।
यह सवाल अपने आप में बेहद महत्वपूर्ण है कि क्या भारत में मत प्रचार की अनुमति जारी रहनी चाहिए? कभी-कभी लगता है कि इस मसले पर देश में बहस हो ही जाए कि क्या भारत में मत प्रचार की स्वतंत्रता जारी रहे अथवा नहीं? देखा जाए तो केवल मत पालन की स्वतंत्रता होनी चाहिए। मत के प्रचार-प्रसार की छूट की कोई आवश्यकता ही नहीं। मत कोई दुकान या व्यापार तो है नहीं जिसका प्रचार-प्रसार करना जरूरी हो।
अगर हम इतिहास के पन्नों को खंगालें तो देखते हैं कि भारत के संविधान निर्माताओं ने सभी धार्मिक समुदायों को अपने मत के प्रचार की छूट दी थी। क्या इसकी कोई आवश्यकता थी? बेशक भारत में ईसाई मत की तरफ से शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में ठोस और ईमानदारी से काम किया गया है, पर कहने वाले कहते हैं कि उस सेवा की आड़ में मतांतरण का ही उसका मुख्य लक्ष्य रहा है।
उधर इस्लाम का प्रचार करने वाले बिना कुछ किए ही मतांतरण करवाने के मौके खोजते हैं। हालांकि मुसलमानों की शिक्षण संस्था अंजुमन इस्लाम ने भी शिक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय काम किया है। अब आप देखें कि आर्य समाज, सनातन धर्म और सिखों की तरफ से देश में सैकड़ों स्कूल, कॉलेज और अस्पताल वगैरह चल रहे हैं, लेकिन इन्होंने किसी ईसाई या मुसलमान के मतांतरण का कभी प्रयास नहीं किया। लोगों को अपने मत को मानने की तो अनुमति होनी चाहिए, पर अपने मत का प्रचार करने या मतांतरण करने की इजाजत तो नहीं दी जा सकती।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार और पूर्व सांसद हैं)