विवेक ओझा। भारत सरकार के वाणिज्य और उद्योग राज्य मंत्री ने कुछ दिनों पहले स्पष्ट रूप से कहा है कि भारत और आसियान के मध्य मुक्त व्यापार समझौते की समीक्षा से द्विपक्षीय व्यापार के दोगुना हो जाने की संभावना व क्षमता है। भारत सरकार का पक्ष रखते हुए यह भी कहा गया कि आसियान के साथ ई-कॉमर्स, फिनटेक, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और ब्लॉकचेन टेक्नोलॉजी के क्षेत्र में गठजोड़ की बड़ी संभावनाएं हैं जिनका उपयोग पारस्परिक लाभ के लिए किया जा सकता है।

भारत का कहना कि दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के संगठन आसियान से उसने कई बार निवेदन किया है कि दोनों के बीच एफटीए की समीक्षा के लिए आसियान तैयार हो क्योंकि इससे आसियान तो लाभ में है पर भारत व्यापार असंतुलन का सामना कर रहा है। भारत का मानना है कि आसियान भारतीय हितों के संबंध में निष्ठुर बना है।

भारत का मानना है कि आसियान देशों में से कुछ देश भारत के साथ व्यापार में चीनी वस्तुएं भेजकर भारतीय हितों को प्रभावित कर रहे हैं। चूंकि आसियान ने चीन के साथ खुद मुक्त व्यापार समझौता कर रखा है और म्यांमार जैसे देशों ने द्विपक्षीय स्तर पर चीन के साथ एफटीए कर रखा है, इस आधार पर भारत की चिंताओं और आशंकाओं को खारिज नहीं किया जा सकता है।

आसियान का कहना है कि वह भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौते के रिव्यू के लिए तब सहमत होगा जब भारत आसियान सहित 16 सदस्यीय रीजनल कॉम्प्रिहेंसिव इकोनॉमिक पार्टनरशिप (आरसीईपी) से जुड़ जाए। भारत ने इन 16 देशों में से 12 के साथ अपने व्यापार असंतुलन को देखते हुए इससे बाहर रहने का निर्णय किया था। हालांकि कंबोडिया और फिलीपींस ने भारत के साथ मुक्त व्यापार समझौता करने में रुचि दिखाई है और इसका प्रस्ताव किया है।

व्यापारिक घाटे की पड़ताल: भारत सरकार के वाणिज्य और उद्योग मंत्रलय के वाणिज्य विभाग के नए आंकड़ों की तरफ देखें तो पता चलता है कि भारत और आसियान समूह के बीच वर्ष 2016-17 में 71.57 अरब, 2017-18 में 81.33 अरब, 2018-19 में 96.79 अरब डॉलर का द्विपक्षीय व्यापार था। 2015-16 में मात्र 65 अरब डॉलर के व्यापार से 2018-19 के दौरान लगभग 97 अरब डॉलर के द्विपक्षीय व्यापार तक पहुंचने की यात्र के बीच भारत ने हर वर्ष आसियान के भारत अनुकूल व्यापारिक दशाओं के निर्माण ना करने के चलते व्यापारिक घाटे का सामना किया जो 2015-16 से लगातार बढ़ता रहा है। वर्ष 2016-17 में भारत को 9.65 अरब डॉलर, 2017-18 में 12.93 अरब डॉलर और 2018-19 में 21.85 अरब डॉलर के व्यापारिक घाटे का सामना करना पड़ा है।

आसियान देशों के बाजारों में भारतीय निर्यात भी सीमित रहा है। अब जब यह कहा जा रहा है कि भारत आसियान मुक्त व्यापार समझौता भारत के लिए लाभदायक नहीं रहा है तो इस बात की पड़ताल आवश्यक है कि क्या आसियान बाजार में भारत का निर्यात वास्तव में आसियान से आयात की तुलना में ज्यादा रहा है। भारत सरकार का वाणिज्य विभाग कहता है कि 2016-17 में आसियान बाजारों में भारतीय निर्यात 30.96 अरब डॉलर, 2017-18 में 34.2 अरब और 2018-19 में 37.47 अरब डॉलर रहा जो संतोषजनक नहीं कहा जा सकता। इन्हीं वित्त वर्षो में आसियान से भारत में आयात क्रमश: 40.6 अरब डॉलर, 47.13 अरब और 59.32 अरब डॉलर रहा। यानी भारत आसियान व्यापारिक संबंधों में आसियान का पलड़ा भारी रहा है और इसकी एक बड़ी वजह भारत आसियान मुक्त व्यापार समझौता है।

भारत और आसियान के बीच वस्तुओं में व्यापार को लेकर मुक्त व्यापार समझौता पर हस्ताक्षर के 13 अगस्त को 11 वर्ष हो जाएंगे। वर्ष 2009 में हुए इस समझौते से भारत ने क्या पाया है, इसकी समीक्षा जरूरी है। भारत और आसियान के बीच सेवाओं में व्यापार को लेकर मुक्त व्यापार समझौते का अनुसमर्थन यानी रेटिफिकेशन एक जुलाई 2015 को किया गया था। इसी दिन भारत और आसियान निवेश समझौते को भी रेटिफाई किया गया था। इसके अलावा यदि द्विपक्षीय स्तर पर देखें तो भारत और थाईलैंड के बीच मुक्त व्यापार समझौता अर्ली हार्वेस्ट स्कीम को वर्ष 2004 में ही क्रियान्वित किया जा चुका है।

वर्ष 2005 में भारत ने सिंगापुर के साथ व्यापक आर्थिक सहयोग समझौते पर हस्ताक्षर कर उसे क्रियान्वित किया था। इसकी दो बार समीक्षा हो चुकी है और तीसरी समीक्षा हेतु सहमति बनी है। इसके अलावा 2011 में भारत और मलेशिया के बीच भी व्यापक आर्थिक सहयोग समझौता हुआ था, जो मुक्त व्यापार समझौते से पहले का रूप होता है। इन आंकड़ों को देने का औचित्य यह है कि आसियान के साथ एक ट्रेड ब्लॉक के रूप में और कुछ आसियान देशों के साथ द्विपक्षीय स्तर पर व्यापारिक समझौतों को संपन्न करने के बावजूद भारत व्यापारिक अधिशेष की स्थिति नहीं प्राप्त कर पाया है। अब चाहे कारण चीन और मलेशिया हो या म्यांमार, भारत को अपने व्यापारिक हितों से समझौता नहीं करना चाहिए।

वैश्विक व्यापारिक प्रणाली में जिस तरह से भारत का कद और उसकी आर्थिक स्थिति हाल के वर्षो में बढ़ी है, उसने भारत को आíथक महाशक्तियों और क्षेत्रीय आíथक शक्तियों के साथ व्यापारिक सौदेबाजी करने की क्षमता दी है, इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता। इस सच्चाई को भारत द्वारा आरसीईपी जैसे बड़े मुक्त व्यापार समझौते से बाहर निकलने, व्यापारिक घाटे की समीक्षा करने, जीएसपी से बाहर निकाले जाने के बावजूद अपने आíथक संप्रभुता के संदेश अमेरिका को देने, विश्व व्यापार संगठन व वल्र्ड बैंक में अपने पक्ष को प्रभावी तरीके से रखने के तौर पर देखा जा सकता है।

बढ़ते व्यापार घाटे का कारण: भारत आसियान के बीच बढ़ता व्यापार घाटा यूं ही नहीं है। एक तरफ घरेलू स्तर पर विरोध के कारण दोनों ही पक्षों द्वारा व्यापार के लिए संवेदनशील सूची को अधिक लंबा बनाया गया जिससे बहुत से महत्वपूर्ण क्षेत्रों में व्यापार एफटीए के तहत होता ही नहीं है। दूसरी तरफ भारत और आसियान पूरक अर्थव्यवस्थाएं इसलिए हैं, क्योंकि आसियान देश विनिर्माण क्षेत्र में अग्रणी है तो भारत सेवा क्षेत्र में, लेकिन मुक्त व्यापार समझौता विनिर्माण क्षेत्र पर केंद्रित रहा है और सेवा क्षेत्र में जहां भारत तुलनात्मक बढ़त की स्थिति में था, वहां भारत को समझौते के तहत कोई लाभ नहीं मिला। साथ ही दोनों के मध्य अप्रभावी क्षेत्रीय संपर्क एक प्रमुख बाधा के रूप में रहा है जिससे भारत की आसियान देशों के बाजार तक समुचित पहुंच ही नहीं बन पाई। ऐसे में भारत के पूवरेत्तर राज्य सबसे प्रभावी भूमिका अवश्य निभा सकते थे, परंतु वहां के अवसंरचनात्मक पिछड़ापन ने कभी उसकी संभावनाओं का दोहन नहीं होने दिया।

दूर हो भाषाई संपर्क की बाधा: भारत-म्यांमार-कंबोडिया के बीच त्रिपक्षीय राजमार्ग जैसी परियोजनाओं से बड़ी आशाएं रहीं, पर समय गुजरता रहा और ये निर्माणाधीन ही रही हैं। एक और समस्या भाषागत भी है। आसियान देशों की भाषाएं हमारे यहां अधिक लोकप्रिय नहीं हैं और वहां के कुछ देशों में अंग्रेजी उतनी प्रभावी नहीं। ऐसे में भाषाई संपर्क व्यापारिक संपर्क को अक्सर प्रभावी नहीं होने देता। बढ़ते व्यापारिक घाटे के लिए समझौते की शर्तो को ही दोष देना उचित नहीं है, बल्कि भारत की घरेलू आर्थिक नीतियों को भी इसके लिए जवाबदेह मानना चाहिए। आखिर भारतीय विनिर्माण कंपनियां आसियान के बाजार के अनुरूप प्रतिस्पर्धी क्यों नहीं हैं? हमारे यहां उत्पादों की विविधता नहीं होगी तो आसियान के बाजार में मांग क्यों होगी? चीन की तुलना में आक्रामक उपस्थिति के लिए हमारी कंपनियों की तैयारी क्या है? आखिर हम अभी भी व्यापार के लिए यूरोप या खाड़ी देशों पर ही क्यों बल देते हैं? ऐसे तमाम सवालों के जवाब में ही इस व्यापार घाटे का समाधान छिपा है।

विनिर्माण के क्षेत्र में आगे बढ़े भारत: भारत एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था है जिसका सभी महत्वपूर्ण वैश्विक आíथक मंचों पर दखल है। भारत विश्व के व्यापारिक खिलाड़ियों के लिए बड़ा बाजार है, उसके पास वैश्विक उत्पादों के लिए सशक्त उपभोक्ता वर्ग है और सबसे बड़ी बात कि एक लोकतांत्रिक देश के रूप में भारत किसी भी देश के व्यापारिक हितों को अधिक सुरक्षा देने की स्थिति में है। लिहाजा कई देशों की मंशा भारत के साथ जल्द मुक्त व्यापार समझौता कर लेने की है।

अवसंरचना, संस्कृति और पर्यटन, सूचना प्रौद्योगिकी, शिक्षा, कौशल विकास, हेल्थकेयर, फार्मास्युटिकल्स, कृषि, खाद्य प्रसंस्करण जैसे कई क्षेत्र हैं जहां भारत आसियान के बीच व्यापार संबंधों को नई ऊर्जा देने की क्षमता रखता है, पर पारस्परिक लाभ सुनिश्चित हुए बिना नया गठजोड़ बेमानी है। भारत ने लंबे समय से ना चाहते हुए भी कई बड़े देशों और क्षेत्रीय संगठनों के साथ होने वाले व्यापार में मिलने वाली बड़ी हानियों को बरदाश्त किया है, पर अब भारत कुछ महत्वपूर्ण पहलुओं पर ध्यान देकर, अपनी आíथक कूटनीति को धार देकर अपने व्यापारिक हितों की सुरक्षा कर सकता है। इसके लिए भारत को सबसे पहले अपने घरेलू बाजार में अपेक्षित बदलाव लाने होंगे, भिन्न भिन्न क्षेत्रों के घरेलू उत्पादकों की क्षमता ईमानदारी से बढ़ानी होगी, अपने घरेलू उत्पादों को इतना प्रतिस्पर्धी बनाना होगा कि वो वैश्विक बाजारों की अपरिहार्य जरूरत बन सकें।

भारत को ना केवल अपने निर्यात और निर्यातकों को मजबूती देने की जरूरत है, बल्कि विकसित देशों के बाजारों में भारतीय निर्यात की कीमत भी सिद्ध करने का प्रयास करना होगा। भारत को उन उत्पादों और सेवाओं की पहचान करनी होगी जहां वह केवल आयात पर निर्भर है। भारत को यह सोचना शुरू करना चाहिए कि कोई भी वस्तु जिसका वह विनिर्माण नहीं कर पाया है, उसके लिए स्वयं को तकनीकी रूप से सक्षम बनाएगा और उसका विनिर्माण कर दिखाएगा।

ऐसा होने पर मेक इन इंडिया जैसे कदम की सार्थकता सिद्ध हो सकेगी। दक्षिण पूर्वी एशिया में भारत को चीन समर्थक आर्थिक परिवेश के कारणों की पहचान करनी चाहिए और चीन के दक्षिण पूर्वी एशियाई देशों के साथ विवाद को कूटनीति के स्तर प्रयोग में लाते हुए आसियान देशों को भारतीय हितों के अनुकूल काम करने के लिए विश्वास में लेने का प्रयास करना चाहिए, तभी लुक ईस्ट पॉलिसी और एक्ट ईस्ट पॉलिसी भी प्रभावी परिणाम दे पाने वाली साबित होगी।

[अंतरराष्ट्रीय मामलों के जानकार]