[ आर विक्रम सिंह ]: 21 नवंबर, 1962 चीन से 20 अक्टूबर, 1962 को प्रारंभ हुए हमारे युद्ध का अंतिम दिन था। ब्रिगेडियर दलवी अपनी पुस्तक हिमालयन ब्लंडर में लिखते हैं, ‘21 नवंबर की रात एक चीनी मेजर ने उन्हेंं बताया कि युद्ध समाप्त हो गया है। हम हमेशा दोस्त रहे हैं। इसलिए हमने कब्जा किए इलाकों से वापस जाने का फैसला किया है।’ लद्दाख में रेजांग ला के हमारे मोर्चे ने तो चीनियों को रोक दिया था, लेकिन नेफा में तवांग, सेला, बोमडिला के मोर्चों के टूटने के बाद असम घाटी का रास्ता उनके लिए खुल गया था। हमारे पास करने को कुछ नहीं था। रात में चीन के युद्धविराम और मैकमोहन लाइन से पीछे जाने की घोषणा से यह युद्ध समाप्त गया था, लेकिन हमारा सम्मान धूलधूसरित हो चुका था। महान रणनीतिकार क्लाजविट्ज ने कहा है कि युद्धों के उद्देश्य राजनीतिक होते हैं और वे राष्ट्रीय नीति के विस्तार होते हैं। तब चीन के उद्देश्य तो स्पष्ट थे। प्रश्न है कि क्या 1962 के युद्ध से पहले हमारे भी कोई राजनीतिक उद्देश्य थे और हमारी राष्ट्रीय नीति क्या थी?

युद्ध विराम रेखा को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लेने का प्रस्ताव नेहरू ने अयूब खान को दिया था

आश्चर्य होता है कि तब के हमारे नेतृत्व के पास कोई राजनीतिक लक्ष्य ही नहीं थे। जब हम आजाद हुए और मजहब के आधार पर बना विश्व का पहला देश पाकिस्तान अस्तित्व में आया, तब बंटवारे का खात्मा हमारा लक्ष्य नहीं बना। कश्मीर हमारी पहली समस्या थी। इसके लिए पाकिस्तान से युद्ध हुआ, फिर युद्ध विराम हुआ। तब इस धार्मिक-मनोवैज्ञानिक समस्या के जनमत संग्रह से समाधान का जवाहरलाल नेहरू का प्रस्ताव आश्चर्यजनक था। जब शेख अब्दुल्ला ने अपने असली रंग दिखाए तो उसके बाद युद्ध विराम रेखा को ही अंतरराष्ट्रीय सीमा मान लेने का प्रस्ताव नेहरू ने तत्कालीन फील्ड मार्शल अयूब खान को दिया। बंटवारा ही नेहरू का कश्मीर समाधान था। अयूब ने इसे खारिज कर दिया। उन्हेंं तो पूरा कश्मीर चाहिए था। स्पष्टत: अगले युद्ध की भूमिका तैयार थी, जबकि नेहरू का लक्ष्य था, कश्मीर की यथास्थिति। यही यथास्थिति नेहरू उत्तरी सीमाओं पर मैकमोहन लाइन एवं लद्दाख में अर्डांग-जॉनसन लाइन पर भी चाहते थे। शायद वे भूल गए कि यथास्थिति के लिए भी सेनाएं चाहिए होती हैं। यथास्थिति की नीतियां वहीं प्रभावी होती हैं, जहां कोई बड़ी शक्ति या संधि उनके संरक्षण के लिए खड़ी हो। जैसे कि नाटो या वारसा पैक्ट।

दोनों सीमाओं पर दोनों शत्रुओं के प्रगाढ़ संबंधों को तोड़ नहीं पाए

दूसरी ओर देखें तो कश्मीर पाकिस्तान का एक राजनीतिक लक्ष्य था। पाकिस्तान सीटो-सेंटो की अमेरिकी सैन्य संधियों में दुनिया को कम्युनिज्म से बचाने के लिए तो शामिल नहीं हुआ था। वहीं चीन के तिब्बत में सैन्य दखल से उसके विस्तारवादी राजनीतिक उद्देश्य प्रारंभ से ही स्पष्ट थे, लेकिन हमारी स्थिति नीतिगत अकर्मण्यता की बनी रही। हमारे नीतिगत प्रतीक जैसे शांतिपूर्ण सहअस्तित्व, वार्ताओं से समाधान, गुटनिरपेक्षता, नि:शस्त्रीकरण आदि स्वयं ही हमारे राष्ट्रीय हितों की राह में बाधा बन रहे थे। 1959 तक यह स्पष्ट हो चुका था कि हमारी दोनों सीमाओं पर दो सक्षम शत्रु हैं। इन दोनों में आपसी संपर्क भी बन रहे थे। 1963 में पाकिस्तान ने कश्मीर के गिलगिट-बाल्टिस्तान की उत्तरी सीमा पर स्थित शख्सगम घाटी की 5180 वर्ग किमी भूमि चीन को दे दी। जब स्पष्ट हो गया कि हमारे दोनों शत्रुओं में प्रगाढ़ संबंध कायम हो गए हैं, तब भूराजनीतिक समझ के अनुसार हमारा स्पष्ट राजनीतिक उद्देश्य होना चाहिए था कि साम, दाम, दंड, भेद जैसे भी हो, इन दोनों की साझेदारी के विकसित होने की संभावनाएं समाप्त की जाएं।

लक्ष्यविहीनता का चरमकाल: नेहरू के बाद भी हमारी राजनीतिक सोच नेहरूवादी ही बनी रही

काराकोरम सड़क संपर्क मार्ग गिलगिट-बाल्टिस्तान से ही होकर गुजरता है। गिलगिट-बाल्टिस्तान की वापसी हमारा राजनीतिक एवं सैन्य उद्देश्य बन जाना चाहिए था। जब राजनीतिक नेतृत्व यह लक्ष्य तय करता तो सैन्य योजना बनती, अस्त्र-शस्त्र, साजोसामान, उपकरण आदि लिए जाते, लेकिन वार्ताओं से समाधान को स्थायी राज्यनीति बना लेने के कारण ऐसा राजनीतिक आकलन प्रस्तुत करने वाला ही कोई नहीं था। अत: ऐसा सैन्य लक्ष्य नियत ही नहीं किया जा सका। हमारा सैन्य दायित्व कश्मीर विवाद का समाधान नहीं, बल्कि युद्ध विराम रेखा की रक्षा करते रहने का रह गया। यह लक्ष्यविहीनता का चरमकाल था। नेहरू के बाद भी हमारी राजनीतिक सोच नेहरूवादी ही बनी रही।

रणनीतिक सोच का अभाव: 1965 का पाकिस्तानी आक्रमण स्वर्णिम अवसर की तरह होता

यदि हमने गिलगिट-बाल्टिस्तान की वापसी का लक्ष्य नियत कर अपनी योजनाएं बनाई होतीं तो 1965 का पाकिस्तानी आक्रमण हमारे लिए स्वर्णिम अवसर की तरह होता। आज हमारे लिए एक बड़ा खतरा बना हुआ सीपेक राजमार्ग अस्तित्व में ही न आता। इस तरह की रणनीतिक सोच के अभाव का परिणाम यह था कि अंतरराष्ट्रीय दबावों के कारण 1965 में कब्जे में आया हाजीपीर पास वापस कर हमें यथास्थिति बहाल करनी पड़ी। 1971 की सैन्य विजय भी इसी नीतिगत लक्ष्यविहीनता के कारण निष्प्रभावी हो गई।

भारत के नेता पाकिस्तान को परमाणु शक्ति देश बनते देखते रहे

हमारे नेता पाकिस्तान को परमाणु शक्ति देश बनते देखते रहे। हमारे नेताओं में कोई यह सोचने वाला नहीं था कि परमाणु शक्ति वाले पाकिस्तान के बाद आप कश्मीर का सैन्य समाधान कैसे कर सकेंगे? इजरायल से सहयोग के प्रस्ताव के बाद भी हमारे नेताओं को पाकिस्तान पर आक्रमण कर उसके परमाणु प्रतिष्ठान को नष्ट करने का साहस नहीं हुआ। दरअसल अपने यहां ऐसे निर्णय लेने योग्य सक्षम नेतृत्व का विकास ही नहीं हुआ। जिस देश के नेता साम्राज्यवाद के प्रतिनिधि माउंटबेटन को दस माह तक अपना राष्ट्राध्यक्ष बनाए रहे, जो अमेरिका और रूस के सुरक्षा परिषद् में स्थायी सीट के प्रस्ताव को चीनी तुष्टीकरण के लिए मना कर दे, जो तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉन एफ केनेडी द्वारा दिए गए परमाणु बम बनाने के सहयोग प्रस्ताव को फकत गुटनिरपेक्षता की नेतागीरी के लिए खारिज कर दे, उस नेतृत्व को राष्ट्रहित के लिए शक्ति-राजनीति के उपयोग की समझ कहां से आएगी?

अब फिजाएं बदल रही हैं, पाक अधिकृत कश्मीर वापस चाहिए

हालांकि अब फिजाएं बदल रही हैं। पहली बार देश में राष्ट्रीय लक्ष्य की सोच बनी है। पाक अधिकृत कश्मीर वापस चाहिए। पहली बार सीमा पार के प्रताड़ित समाज की परवाह की गई है। चीन और पाकिस्तान को देखने का नजरिया बदला हुआ है। लद्दाख जो 1962 में हमारे सैनिकों की शहादत का गवाह रहा था, उसी के गलवन से 15 जून, 2020 को अपना खोया हुआ आत्मसम्मान हासिल करने की हमारी यात्रा प्रारंभ हुई है। हमारे निहत्थे सैनिकों ने जो साहस दिखाया है, वह जिंदगी भर चीन से सहमे रहे नेताओं को आईना दिखाता है। तुष्टीकरण अब राज्यनीति नहीं है। यह देश उनके साथ है जो राष्ट्र के लक्ष्यों के लिए शक्ति की भाषा बोल सकते हैं।

( लेखक पूर्व सैनिक एवं पूर्व प्रशासक हैं )